ऋषियों ने पूछा - हे ज्ञाननिधान सूतजी ! वे ब्रह्मर्षि वसिष्ठ तथा राजर्षि निमि जो देवताओं द्वारा भी सम्मानित थे, अपने-अपने शरीर को छोड़कर फिर नूतन शरीर से किस प्रकार संयुक्त हुए?
सूतजी बोले - हे ऋषिगणों ! महामना मित्र और वरुण देवता के तेज (वीर्य) से युक्त जो वह प्रसिद्ध कुम्भ था, उससे दो तेजस्वी ब्राह्मण प्रकट हुए। वे दोनों ही ऋषियों में श्रेष्ठ थे। पहले उस घट से महर्षि भगवान् अगस्त्य उत्पन्न हुए और मित्र से यह कहकर कि 'मैं आपका पुत्र नहीं हूँ' वहाँ से अन्यत्र चले गये। वह मित्र का तेज था, जो उर्वशी के निमित्त से पहले ही उस कुम्भ में स्थापित किया गया था। तत्पश्चात् उस कुम्भ में वरुण देवता का तेज भी सम्मिलित हो गया था।
‘तत्पश्चात् कुछ काल के बाद मित्रावरुण के उस वीर्य से तेजस्वी वसिष्ठ मुनि का प्रादुर्भाव हुआ। जो इक्ष्वाकु कुल के गुरु या पुरोहित हुए।
महातेजस्वी राजा इक्ष्वाकु ने उनके वहाँ जन्म ग्रहण करते ही उन अनिन्द्य मुनि वसिष्ठ का कुल के हित के लिये पुरोहित के पद पर वरण कर लिया
इस प्रकार नूतन शरीर से युक्त वसिष्ठ मुनि की उत्पत्ति का प्रकार बताया गया। अब निमि का जैसा वृत्तान्त है, वह सुनो।'
राजा निमि को देह से पृथक् हुआ देख उन सभी मनीषी ऋषियों ने स्वयं ही यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करके उस यज्ञ को पूरा किया। उन श्रेष्ठ ब्रह्मर्षियों ने पुरवासियों और सेवकों के साथ रहकर गन्ध, पुष्प और वस्त्रों सहित राजा निमि के उस शरीर को तेल के कड़ाह आदि में सुरक्षित रखा।'
तदनन्तर जब यज्ञ समाप्त हुआ, तब वहाँ भृगु ने कहा - राजन् ! (राजा के शरीर के अभिमानी जीवात्मन्!) मैं तुमपर बहुत संतुष्ट हूँ, अतः यदि तुम चाहो तो तुम्हारे जीव- चैतन्य को मैं पुनः इस शरीर में ला दूंगा।
भृगु के साथ ही अन्य सब देवताओं ने भी अत्यन्त प्रसन्न होकर निमि के जीवात्मा से कहा— राजर्षे! वर माँगो तुम्हारे जीव- चैतन्यको कहाँ स्थापित किया जाये।
समस्त देवताओं के ऐसा कहने पर निमि के जीवात्मा ने उस समय उनसे कहा - सुरश्रेष्ठ! मैं समस्त प्राणियों के नेत्रों में निवास करना चाहता हूँ।
तब देवताओं ने निमि के जीवात्मा से कहा - बहुत अच्छा, तुम वायुरूप होकर समस्त प्राणियों के नेत्रोंमें विचरते रहोगे। पृथ्वीनाथ! वायुरूप से विचरते हुए आपके सम्बन्ध से जो थकावट होगी, उसका निवारण करके विश्राम पाने के लिये प्राणियों के नेत्र बारंबार बंद हो जाया करेंगे।
देवताओं ने कहा - ‘मुनियों! राजा निमि बिना शरीर के ही प्राणियों के नेत्रों में अपनी इच्छा के अनुसार निवास करें। वे वहाँ रहकर सूक्ष्म शरीर से भगवान का चिन्तन करते रहें। पलक उठने और गिरने पर उनके अस्तित्व का पता चलता रहेगा। ऐसा कहकर सब देवता जैसे आये थे, वैसे चले गये; इसके बाद महर्षियों ने यह सोचकर कि ‘राजा के न रहने पर लोगों में अराजकता फैल जायेगी’ निमि के शरीर का मन्थन किया। उस मन्थन से एक कुमार उत्पन्न हुआ। जन्म लेने के कारण उसका नाम हुआ जनक। विदेह से उत्पन्न होने के कारण ‘विदेह’ और मन्थन से उत्पन्न होने के कारण उसी बालक का नाम ‘मिथिल’ हुआ। उसी ने मिथिलापुरी बसायी।
'इस अद्भुत जन्म का हेतु होने के कारण वे जनक कहलाये तथा विदेह (जीव रहित शरीर) से प्रकट होनेके कारण उन्हें वैदेह भी कहा गया। इस प्रकार पहले विदेहराज जनक का नाम महातेजस्वी मिथि हुआ, जिससे यह जनकवंश मैथिल कहलाया। तभी से राजा निमि द्वारा बसाये गए नगर को राजा मिथि के नाम से जनकपुरी अथवा मिथिला कहा जाने लगा।'
'ऋषियों! राजाओं में श्रेष्ठ निमि के शाप से ब्राह्मण वशिष्ठ और ब्राह्मण वसिष्ठ के शाप से राजा निमि का जो अद्भुत जन्म घटित हुआ, उसका सारा कारण मैंने आपको कह सुनाया।'
सूतजी बोले - ऋषियों! जनक का उदावसु, उसका नन्दिवर्धन, नन्दिवर्धन का सुकेतु, उसका देवरात, देवरात का बृहद्रथ, बृहद्रथ का महावीर्य, महावीर्य का सुधृति, सुधृति का धृष्टकेतु, धृष्टकेतु का हर्यश्व और उसका मरु नामक पुत्र हुआ। मरु से प्रतीपक, प्रतीपक से कृतिरथ, कृतिरथ से देवमीढ, देवमीढ से विश्रुत और विश्रुत से महाधृति का जन्म हुआ। महाधृति का कृतिराज, कृतिराज का महारोमा, महारोमा का स्वर्णरोमा और स्वर्णरोमा का पुत्र हुआ ह्रस्वरोमा। इसी ह्रस्वरोमा के पुत्र महाराज सीरध्वज थे। (राजा सीरध्वज को रामायण में राजा जनक भी कहा गया है। ये माता सीता के पिता कहलाये।) वे जब यज्ञ के लिये धरती जोत रहे थे, तब उनके सीर (हल) के अग्रभाव (फाल) से सीता जी की उत्पत्ति हुई। इसी से उनका नाम ‘सीरध्वज’ पड़ा। सीरध्वज के कुशध्वज, कुशध्वज के धर्मध्वज और धर्मध्वज के दो पुत्र हुए-कृतध्वज और मितध्वज। कृतध्वज के केशिध्वज और मितध्वज के खाण्डिक्य हुए।
'केशिध्व्ज आत्मविद्या में बड़ा प्रवीण था। खाण्डिक्य था कर्मकाण्ड का मर्मज्ञ। वह केशिध्वज से भयभीत होकर भाग गया। केशिध्वज का पुत्र भानुमान और भानुमान का शतद्युम्न था। शतद्युम्न से शुचि, शुचि से सनद्वाज, सनद्वाज से ऊर्ध्वकेतु, ऊर्ध्वकेतु से अज, अज से पुरुजित, पुरुजित् से अरिष्टनेमि, अरिष्टनेमि से श्रुतायु, श्रुतायु से सुपार्श्वक, सुपार्श्वक से चित्ररथ और चित्ररथ से मिथिलापति क्षेमधि का जन्म हुआ। क्षेमधि से समरथ, समरथ से सत्यरथ, सत्यरथ से उपगुरु और उपगुरु से उपगुप्त नामक पुत्र हुआ। यह अग्नि का अंश था। उपगुप्त का वस्वनन्त, वस्वनन्त का युयुध, युयुध का सुभाषण, सुभाषण का श्रुत, श्रुत का जय, जय का विजय और विजय का ऋत नामक पुत्र हुआ। ऋत का शुनक, शुनक का वीतहव्य, वीतहव्य का धृति, धृति का बहुलाश्व, बहुलाश्व का कृति और कृति का पुत्र हुआ महावशी।
हे ऋषियों ! ये मिथिल के वंश में उत्पन्न सभी नरपति ‘मैथिल’ अथवा 'जनक' कहलाते हैं। ये सब-के-सब आत्मज्ञान से सम्पन्न एवं गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से मुक्त थे। क्यों न हो, याज्ञवल्क्य आदि बड़े-बड़े योगेश्वरों की इन पर महान कृपा जो थी।
इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-४४(44) समाप्त !
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