भाग-४४(44) शिव का परिछन व पार्वती का सुंदर रूप देख प्रसन्न होना तथा वर-वधू द्वारा एक-दूसरे का पूजन

 


परिछन का अर्थ है - वर-वधु का आवभगत, वर या वधु को बुरी नज़र से बचाने का रस्म, टोटका, न्यासावर्त्त, आरती, और निहुछने का कार्य। यह विवाह की एक रीति है। 

सूतजी बोले – हे ऋषिगणों! भगवान शिव सबको आनंदित करते हुए प्रसन्नतापूर्वक अपने गणों, देवताओं, सिद्ध मुनियों तथा अन्य लोगों के साथ गिरिराज हिमालय के धाम में गए। हिमालय की पत्नी मैना भी अंदर से शिवजी की आरती उतारने के लिए सुंदर दीपकों से सजी हुई थाली लेकर बाहर आईं। उस समय उनके साथ ऋषि पत्नियां तथा अन्य स्त्रियां भी मौजूद थीं। भगवान शिव का मनोहर रूप चारों ओर अपनी कांति बिखेर रहा था। उनकी शोभा करोड़ों कामदेवों के समान थी। 

'उनके प्रसन्न मुखारबिंद पर तीन नेत्र थे। अंगकांति चंपा के समान थी। शरीर पर सुंदर वस्त्र और आभूषण उनके व्यक्तित्व में चार चांद लगा रहे थे। उनके मस्तक पर सुंदर चंद्रमुकुट लगा था, गले में हार तथा हाथों में कड़े तथा बाजूबंद उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। चंदन, कस्तूरी, कुमकुम और अक्षत से उनका शरीर विभूषित था। उनका रूप दिव्य और अलौकिक था, जो अनायास ही सबको अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। उनका मुख अनेकों चंद्रमाओं की चांदनी के समान उज्ज्वल और शीतल था।' 

'ऐसे परम सुंदर और मनोहर रूप वाले दामाद को पाकर हिमालय पत्नी मैना की सभी चिंताएं दूर हो गईं। वे आनंदमग्न होकर अपने भाग्य की सराहना करने लगीं। शिवजी को दामाद बनाकर स्वयं को कृतार्थ मानने लगीं और अपनी पुत्री पार्वती, अपने पति हिमालय तथा अपने कुल को धन्य मानने लगीं। उस समय प्रसन्नतापूर्वक वे शिवजी की आरती उतारने लगीं। आरती उतारते हुए देवी मैना सोच रही थीं कि जैसा पार्वती ने महादेव जी के बारे में बताया था, ये उससे भी अधिक सुंदर हैं। इनका रूप लावण्य तो चित्त को प्रसन्नता देने वाला तथा समस्त पापों और दुखों का नाश करने वाला है। विधिपूर्वक आरती पूरी करने के पश्चात मैना अंदर चली गईं।'

'उस समय उस विवाह में पधारी युवतियों ने वर के रूप में पधारे परमेश्वर शिव के सुंदर, कल्याणकारी और मनोहारी रूप की बहुत प्रशंसा की। वे आपस में हंसी-ठिठोली कर रही थीं। साथ ही साथ अपनी सखी पार्वती के भाग्य की भी सराहना कर रही थीं कि उसे शिवजी जैसे वर की प्राप्ति हुई है। वे मैना से कहने लगीं कि हमने तो इतना सुंदर वर किसी के विवाह में भी नहीं देखा है। पार्वती धन्य हैं जो उसे ऐसा पति प्राप्त हो रहा है। भगवान शिव के सुंदर मनोहारी रूप के दर्शन करके सब देवताओं सहित ऋषि-मुनि बहुत प्रसन्न हुए।' 

'गंधर्व भगवान शिव के यश का गान करने लगे तथा अप्सराएं प्रसन्न होकर नृत्य करने लगीं। उस समय गिरिराज हिमालय के यहां आनंद ही आनंद था। हिमालय ने आदरपूर्वक मंगलाचार किया और मैना सहित वहां उपस्थित सभी नारियों ने वर का परिछन किया तथा घर के भीतर चली गईं। तत्पश्चात महादेव जी व उनके साथ बारात में पधारे हुए सभी महानुभाव जनवासे में चले गए। तत्पश्चात साक्षात दुर्गा का अवतार देवी पार्वती कुलदेवी की पूजा करने के लिए अपने कुल की स्त्रियों सहित अपने अंतःपुर से बाहर आईं। वहां जिसकी दृष्टि भी पार्वती पर पड़ी, वह उन्हें देखता ही रह गया। पार्वती की अंगकांति नील अंजन के समान थी। उनके लंबे, घने और काले केश सुंदर चोटी में गुंथे हुए थे। मस्तक पर कस्तूरी की बेदी के साथ सिंदूरी बिंदी उनके रूप लावण्य को बढ़ा रही थी।' 

'उनके गले में अनेक सुंदर रत्नों से जड़े हार शोभा पा रहे थे। सुंदर रत्नों से बने केयूर, वलय और कंकण उनकी भुजाओं को विभूषित कर रहे थे। रत्नों से जड़े कानों के कुंडल दमकती शोभा से उनके गालों पर अनुपम छवि बना रहे थे। उनके मोती के समान सुंदर एवं सफेद दांत अनार के दानों की भांति चमक रहे थे। उनके होंठ मधु से भरे बिंबफल की तरह लाल थे। महावर पैरों की शोभा में वृद्धि कर रही थी। उनके अंगों में चंदन, अगर, कस्तूरी और कुमकुम का अंगराग लगा हुआ था। पैरों में पड़ी पायजेब से निकली घुंघरुओं की रुनझुन रुनझुन की आवाज कानों में मधुर संगीत घोल रही थी। उनकी इस मंत्रमुग्ध छवि को देखकर सभी देवता उनके सामने नतमस्तक होकर जगत जननी पार्वती को भक्तिभाव से प्रणाम कर रहे थे। उस समय भगवान शिव भी उनके इस अनुपम सौंदर्य को कनखियों से देखकर हर्ष का अनुभव कर रहे थे। पार्वती के अनुपम रूप को देखकर शिवजी ने अपनी विरह की वेदना को त्याग दिया। पार्वती के रूप ने उनको मोहित कर दिया था।'

'इधर पार्वती ने कुलदेवताओं की प्रसन्नता के लिए उनका विधि-विधान से पूजन किया। तत्पश्चात वे अपनी सखियों और ब्राह्मण पत्नियों के साथ पुनः महल में लौट गईं। उधर ब्रह्माजी, विष्णुजी व भगवान शिव भी अपने-अपने स्थान पर ठहर गए।'

'गिरिराज हिमालय ने उत्साहपूर्वक वेद मंत्रों द्वारा पार्वती और शिवजी को उपस्नान करवाया। तत्पश्चात वैदिक और लौकिक आचार रीति का पालन करते हुए भगवान शिव द्वारा लाए गए वस्त्रों एवं आभूषणों से गिरिजानंदिनी देवी पार्वती को सजाया गया। पार्वती की सखियों और वहां उपस्थित ब्राह्मण पत्नियों ने पार्वती को उन सुंदर वस्त्रों एवं सुंदर रत्नजड़ित आभूषणों से अलंकृत किया। शृंगार करने के उपरांत तीनों लोकों की जननी महाशैलपुत्री देवी शिवा अपने हृदय में महादेव जी का ही ध्यान कर रही थीं। उस समय उनका मुखमंडल चंद्रमा की चांदनी के समान सुंदर व दिव्य लग रहा था । हिमालयनगरी में चारों ओर महोत्सव होने लगा। लोगों की प्रसन्नता और उल्लास देखते ही बनता था। उस समय वहां हिमालय ने शास्त्रोक्त रीति से लोगों को बहुत दान दिया और अन्य वस्तुएं भी बांटीं।'

गिरिराज हिमालय के राजपुरोहित मुनि गर्ग जी ने हिमालय से कहा कि हे पर्वतराज! लग्न का समय हो रहा है। आप भगवान शिव तथा अन्य सभी बारातियों को यथाशीघ्र यहां बुला लें। तब शैलराज के मंत्री सब देवताओं सहित भगवान शिव को बुलाने के लिए जनवासे में गए और उन्हें जल्दी विवाह मंडप में पधारने का निमंत्रण दिया। उन्होंने शिवजी से कहा कि प्रभु ! कन्यादान का समय समीप आ गया है । वर और कन्या को पंडित जी बुला रहे हैं।' 

'तब भगवान सुंदर वस्त्र आभूषणों से सुसज्जित होकर अपने वाहन नंदी पर बैठकर सब देवताओं और ऋषि-मुनियों के साथ मण्डप की ओर चल दिए। साथ में उनके गण भी अपने स्वामी भगवान शिव की जय-जयकार करते हुए नाचते-गाते चलने लगे। शिवजी के मस्तक पर छत्र था और चारों ओर चंवर डुलाया जा रहा था। महान उत्सव हो रहा था। शंख, भेरी, पटह, आनक, गोमुख बाजे बज रहे थे। अप्सराएं नृत्य कर रही थीं। चारों दिशाओं से देवगण उन पर पुष्पों की वर्षा कर रहे थे। इस प्रकार महादेव जी सुशोभित होकर यज्ञ के मंडप पर पहुंचे।'

'मंडप के द्वार पर उनकी प्रतीक्षा कर रहे पर्वतों ने आदरपूर्वक उन्हें नंदी पर से उतारा और भीतर ले गए। शैलराज हिमालय ने भक्तिपूर्वक उन्हें नमस्कार किया और विधि-विधान के अनुसार उनकी आरती उतारी। उन्होंने भगवान श्रीहरि विष्णु, परमपिता ब्रह्माजी तथा सदाशिव को पाद्य अर्घ्य दिया और सुंदर उत्तम आसनों पर बैठाया। तत्पश्चात शैलराज प्रिया देवी मैना ब्राह्मण स्त्रियों व पुरवासिनों के साथ वहां पधारी। उन्होंने अपने जमाई भगवान शिव की आरती उतारी और उनका मधुपर्क से पूजन किया तथा सारे मंगलमय कार्य संपन्न किए।'

'तत्पश्चात शैलराज हिमालय, ब्रह्माजी, विष्णुजी व भगवान शिव को साथ लेकर उस स्थान पर गए जहां देवी पार्वती वेदी पर बैठी हुई थीं। तब वहां बैठे सभी ऋषि-मुनि, समस्त देवता व अन्य शिवगण उत्सुकता से शिव-पार्वती के लग्न की प्रतीक्षा करने लगे। हिमालय के कुलगुरु श्री गर्ग जी ने पार्वती जी की अंजलि में चावल भरकर शिवजी के ऊपर अक्षत डाले। तत्पश्चात पार्वती जी ने दही, अक्षत, कुश और जल से आदरपूर्वक भगवान शिव का पूजन किया।' 

'पूजन करते समय प्रसन्नतापूर्वक पार्वती भगवान शिव के दिव्य स्वरूप को निहार रही थीं। पार्वती जी के अपने वर शिवजी का पूजन कर लेने के पश्चात गर्ग मुनि के कथनानुसार त्रिलोकीनाथ महादेव जी ने अपनी वधू होने जा रही देवी पार्वती का पूजन किया। इस प्रकार एक-दूसरे का पूजन करने के पश्चात वर-वधू शिव व पार्वती वहीं वेदी पर बैठ गए। उनकी छवि अत्यंत उज्ज्वल और मनोहर थी। दोनों वहां बहुत शोभा पा रहे थे। तब लक्ष्मी आदि सभी देवियों ने उनकी आरती उतारी।'

इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-४४(44) समाप्त !

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