अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन ! रावण के उस महानाद को सुनकर सूर्यपुत्र भगवान् यम ने यह समझ लिया कि 'शत्रु विजयी हुआ और मेरी सेना मारी गयी। 'मेरे योद्धा मारे गये' – यह जानकर यमराज के नेत्र क्रोध से लाल हो गये और वे उतावले होकर सारथि से बोले -'मेरा रथ ले आओ'।
तब उनके सारथि ने तत्काल एक दिव्य एवं विशाल रथ वहाँ उपस्थित कर दिया और वह सामने विनीतभाव से खड़ा हो गया। फिर वे महातेजस्वी यम देवता उस रथ पर आरूढ़ हुए।
'उनके आगे प्रास और मुद्रर हाथ में लिये साक्षात् मृत्यु-देवता खड़े थे, जो प्रवाहरूप से सदा बने रहनेवाले इस समस्त त्रिभुवन का संहार करते हैं। उनके पार्श्वभाग में कालदण्ड मूर्तिमान् होकर खड़ा हुआ, जो उनका मुख्य एवं दिव्य आयुध है। वह अपने तेज से अग्नि के समान प्रज्वलित हो रहा था। उनके दोनों बगल में छिद्ररहित कालपाश खड़े थे और जिसका स्पर्श अग्नि के समान दुःसह है, वह मुद्गर भी मूर्तिमान् होकर उपस्थित था।'
'समस्त लोकों को भय देने वाले साक्षात् काल को कुपित हुआ देख तीनों लोकों में हलचल मच गयी। समस्त देवता काँप उठे। तदनन्तर सारथि ने सुन्दर कान्तिवाले घोड़ों को हाँका और वह रथ भयानक आवाज करता हुआ उस स्थान पर जा पहुँचा, जहाँ राक्षसराज रावण खड़ा था। इन्द्र के घोड़ों के समान तेजस्वी और मन के समान शीघ्रगामी उन घोड़ों ने यमराज को क्षणभर में उस स्थान पर पहुँचा दिया, जहाँ वह युद्ध चल रहा था।'
'मृत्युदेवता के साथ उस विकराल रथ को आया देख राक्षसराज के सचिव सहसा वहाँ से भाग खड़े हुए। उनकी शक्ति थोड़ी थी। इसलिये वे भय से पीड़ित हो अपना होश - हवाश खो बैठे और 'हम यहाँ युद्ध करने में समर्थ नहीं हैं' ऐसा कहकर विभिन्न दिशाओं में भाग गये। परंतु समस्त संसार को भयभीत करनेवाले वैसे विकराल रथ को देखकर भी दशग्रीव के मन में न तो क्षोभ हुआ और न भय ही।'
अत्यन्त क्रोध से भरे हुए यमराज ने रावण के पास पहुँचकर शक्ति और तोमरों का प्रहार किया तथा रावण के मर्मस्थानों को छेद डाला। तब रावण ने भी सँभलकर यमराज के रथ पर बाणों की झड़ी लगा दी, मानो मेघ जल की वर्षा कर रहा हो। तदनन्तर उसकी विशाल छाती पर सैकड़ों महाशक्तियों की मार पड़ने लगी।'
'वह राक्षस शल्यों के प्रहार से इतना पीड़ित हो चुका था कि यमराज से बदला लेने में समर्थ न हो सका। इस प्रकार शत्रुसूदन यम ने नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रोंका प्रहार करते हुए रणभूमि में लगातार सात रातों तक युद्ध किया। इससे उनका शत्रु रावण अपनी सुध-बुध खोकर युद्ध से विमुख हो गया।'
'वीर रघुनन्दन! वे दोनों योद्धा समर भूमि से पीछे हटने वाले नहीं थे और दोनों ही अपनी विजय चाहते थे; इसलिये उन यमराज और राक्षस दोनों में उस समय घोर युद्ध होने लगा। तब देवता, गन्धर्व, सिद्ध और महर्षि गण प्रजापति को आगे करके उस समराङ्गण में एकत्र हुए। उस समय राक्षसों के राजा रावण तथा प्रेतराज यम के युद्धपरायण होने पर समस्त लोकों के प्रलय का समय उपस्थित हुआ-सा जान पड़ता था।'
'राक्षसराज रावण भी इन्द्र की अशनि के सदृश अपने धनुष को खींचकर बाणों की वर्षा करने लगा, इससे आकाश 'ठसाठस भर गया' उसमें तिलभर भी खाली जगह नहीं रह गयी। उसने चार बाण मारकर मृत्यु को और सात बाणों से यम के सारथि को भी पीड़ित कर दिया। फिर जल्दी-जल्दी लाख बाण मारकर यमराज के मर्मस्थानों में गहरी चोट पहुँचायी।'
'तब यमराज के क्रोध की सीमा न रही। उनके मुख से वह रोष अग्नि बनकर प्रकट हुआ। वह आग ज्वाला मालाओं से मण्डित, श्वास वायु से संयुक्त तथा धूम से आच्छन्न दिखायी देती थी। देवताओं तथा दानवों के समीप यह आश्चर्यजनक घटना देखकर रोषावेश से भरे हुए मृत्यु एवं काल को बड़ा हर्ष हुआ।'
तत्पश्चात् मृत्युदेव ने अत्यन्त कुपित होकर वैवस्वत यम से कहा – 'आप मुझे छोड़िये - आज्ञा दीजिये, मैं समराङ्गण में इस पापी राक्षस को अभी मारे डालता हूँ। महाराज! यह मेरी स्वभाव सिद्ध मर्यादा है कि मुझसे भिड़कर यह राक्षस जीवित नहीं रह सकता। श्रीमान् हिरण्यकशिपु, नमुचि, शम्बर, निसन्दि, धूमकेतु, विरोचनकुमार बलि, शम्भु नामक दैत्य, महाराज वृत्र तथा बाणासुर, कितने ही शास्त्रवेत्ता राजर्षि, गन्धर्व, बड़े-बड़े नाग, ऋषि, सर्प, दैत्य, यक्ष, अप्सराओं के समुदाय, युगान्तकाल में समुद्रों, पर्वतों, सरिताओं और वृक्षों सहित पृथ्वी – ये सब मेरे द्वारा क्षय को प्राप्त हुए हैं।'
'ये तथा दूसरे बहुतेरे बलवान् एवं दुर्जय वीर भी मेरे द्वारा विनाश को प्राप्त हो चुके हैं, फिर यह निशाचर किस गिनती में है? धर्मज्ञ! आप मुझे छोड़ दीजिये। मैं इसे अवश्य मार डालूँगा। जिसे मैं देख लूँ, वह कोई बलवान् होने पर भी जीवित नहीं रह सकता। काल! मेरी दृष्टि पड़ने पर वह रावण दो घड़ी भी जीवन धारण नहीं कर सकेगा। मेरे इस कथन का तात्पर्य केवल अपने बल को प्रकाशित करना मात्र नहीं है; अपितु यह स्वभाव सिद्ध मर्यादा है।'
‘मृत्यु की यह बात सुनकर प्रतापी धर्मराज ने उससे कहा – 'तुम ठहरो, मैं ही इसे मारे डालता हूँ।' तदनन्तर क्रोध से लाल आँखें करके सामर्थ्यशाली वैवस्वत यम ने अपने अमोघ कालदण्ड को हाथ से उठाया। उस कालदण्ड के पार्श्वभागों में कालपाश प्रतिष्ठित थे और वज्र एवं अग्नितुल्य तेजस्वी मुगर भी मूर्तिमान् होकर स्थित था।'
'वह कालदण्ड दृष्टि में आने मात्र से प्राणियों के प्राणों का अपहरण कर लेता था। फिर जिससे उसका स्पर्श हो जाये अथवा जिसके ऊपर उसकी मार पड़े, उस पुरुष के प्राणों का संहार करना उसके लिये कौन बड़ी बात है ? ज्वालाओं से घिरा हुआ वह कालदण्ड उस राक्षस को दग्ध-सा कर देनेके लिये उद्यत था। बलवान् यमराज के हाथ में लिया हुआ वह महान् आयुध अपने तेज से प्रकाशित हो उठा। उसके उठते ही समराङ्गण में खड़े हुए समस्त सैनिक भयभीत होकर भाग चले। कालदण्ड उठाये यमराज को देखकर समस्त देवता भी क्षुब्ध हो उठे।'
यमराज उस दण्ड से रावण पर प्रहार करना ही चाहते थे कि साक्षात् पितामह ब्रह्मा वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने दर्शन देकर इस प्रकार कहा - अमित पराक्रमी महाबाहु यमराज ! तुम इस कालदण्ड के द्वारा निशाचर रावण का वध न करो। देवप्रवर! मैंने इसे देवताओं द्वारा न मारे जा सकने का वर दिया है। मेरे मुँह से जो बात निकल चुकी है, उसे तुम्हें असत्य नहीं करना चाहिये।
‘जो देवता अथवा मनुष्य मुझे असत्यवादी बना देगा, उसे समस्त त्रिलोकी को मिथ्याभाषी बनाने का दोष लगेगा, इसमें संशय नहीं है। यह कालदण्ड तीनों लोकों के लिये भयंकर तथा रौद्र है। तुम्हारे द्वारा क्रोधपूर्वक छोड़ा जाने पर यह प्रिय और अप्रिय जनों में भेदभाव न रखता हुआ सामने पड़ी हुई समस्त प्रजा का संहार कर डालेगा।'
'इस अमित तेजस्वी कालदण्ड को भी पूर्वकाल में मैंने ही बनाया था। यह किसी भी प्राणी पर व्यर्थ नहीं होता है। इसके प्रहार से सबकी मृत्यु हो जाती है। अत: सौम्य ! तुम इसे रावण के मस्तक पर न गिराओ। इसकी मार पड़ने पर कोई एक मुहूर्त भी जीवित नहीं रह सकता। कालदण्ड पड़ने पर यदि यह राक्षस रावण न मरा तो अथवा मर गया तो दोनों ही दशाओं में मेरी बात असत्य होगी।'
‘इसलिये हाथ में उठाये हुए इस कालदण्ड को तुम लङ्कापति रावण की ओर से हटा लो। यदि समस्त लोकों पर तुम्हारी दृष्टि है तो आज रावण की रक्षा करके मुझे सत्यवादी बनाओ।'
ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर धर्मात्मा यमराज ने उत्तर दिया - यदि ऐसी बात है तो लीजिये मैंने इस दण्ड को हटा लिया। आप हम सब लोगों के प्रभु हैं अत: आपकी आज्ञा का पालन करना हमारा कर्तव्य है। परंतु वरदान से युक्त होने के कारण यदि मेरे द्वारा इस निशाचर का वध नहीं हो सकता तो इस समय इसके साथ युद्ध करके ही मैं क्या करूँगा? इसलिये अब मैं इसकी दृष्टि से ओझल होता हूँ, यों कहकर यमराज रथ और घोड़ों सहित वहीं अन्तर्धान हो गये।
'इस प्रकार यमराज को जीतकर अपने नाम की घोषणा करके दशग्रीव रावण पुष्पक विमान पर आरूढ़ हो यमलोक से चला गया। तदनन्तर सूर्यपुत्र यमराज तथा महामुनि नारदजी ब्रह्मा आदि देवताओं के साथ प्रसन्नतापूर्वक स्वर्ग में गये।'
इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-४३(43) समाप्त !
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