भाग-४३(43) इक्ष्वाकु पुत्र राजा निमि की कथा एवं निमि का वशिष्ठ से द्रोह

 


सूतजी कहते हैं - हे ऋषिगणों ! मेरी जितनी बुद्धि थी तथा जितना मैंने अपने गुरु भगवान श्रीवेदव्यास से सुना था उसके अनुसार मैंने भगवान राम के वंश में महाराज इक्ष्वाकु से राजा दशरथ तक के चरित्रों का वर्णन संक्षेप कहा। अब मैं महाराज इक्ष्वाकु के ही एक पुत्र राजा निमि के वंश की कथा आपको सुनाता हूँ। निमि वंश में ही भगवान राम की सहधर्मिणी लक्ष्मी स्वरूपा माता सीता का जन्म हुआ। 

'हे ऋषियों! निमि पराक्रम और धर्म में पूर्णत: स्थिर रहनेवाले थे। उन पराक्रम सम्पन्न नरेश ने उन दिनों गौतम आश्रम के निकट देवपुरी के समान एक नगर बसाया महायशस्वी राजर्षि निमि ने जिस नगर में अपना निवास स्थान बनाया, उसका सुन्दर नाम रखा गया वैजयन्त। इसी नाम से उस नगर की प्रसिद्धि हुई (देवराज इन्द्र के प्रासादका नाम वैजयन्त है, उसी की समता से निमि के नगर का भी यही नाम रखा गया था)।  

उस महान् नगर को बसाकर राजा के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मैं पिता के हृदय को आह्लाद (प्रसन्नता) प्रदान करने के लिये एक ऐसे यज्ञ का अनुष्ठान करूँ, जो दीर्घकाल तक चालू रहनेवाला हो।' 

‘तदनन्तर इक्ष्वाकु नन्दन राजर्षि निमि ने अपने पिता मनु पुत्र इक्ष्वाकु से पूछकर अपना यज्ञ कराने के लिये सबसे पहले ब्रह्मर्षि शिरोमणि वसिष्ठजी का वरण किया। उसके बाद अत्रि, अङ्गिरा तथा तपोनिधि भृगु को भी आमन्त्रित किया।' 

उस समय ब्रह्मर्षि वसिष्ठ ने राजर्षियों में श्रेष्ठ निमि से कहा - देवराज इन्द्र ने एक यज्ञ के लिये पहले से ही मेरा वरण कर लिया है; अत: वह यज्ञ जब तक समाप्त न हो जाये तब तक तुम मेरे आगमन की प्रतीक्षा करो। 

वसिष्ठजी के चले जाने के बाद महान् ब्राह्मण महर्षि गौतम ने आकर उनके कार्य को पूरा कर दिया। उधर महातेजस्वी वसिष्ठ भी इन्द्र का यज्ञ पूरा कराने लगे। नरेश्वर राजा निमि ने उन ब्राह्मणों को बुलाकर हिमालय के पास अपने नगर के निकट ही यज्ञ आरम्भ कर दिया, राजा निमि ने पाँच हजार वर्षों तक के लिये यज्ञ की दीक्षा ली। उधर इन्द्र-यज्ञ की समाप्ति होने पर अनिन्द्य भगवान् वसिष्ठ ऋषि राजा निमि के पास होतृकर्म करने के लिये आये। वहाँ आकर उन्होंने देखा कि जो समय प्रतीक्षा के लिये दिया था, उसे गौतम ने आकर पूरा कर दिया। 

यह देख ब्रह्मकुमार वसिष्ठ महान् क्रोध से भर गये और राजा से मिलने के लिये दो घड़ी वहाँ बैठे रहे। परंतु उस दिन राजर्षि निमि अत्यन्त निद्रा के वशीभूत हो सो गये थे। राजा मिले नहीं, इस कारण महात्मा वसिष्ठ मुनि को बड़ा क्रोध हुआ। वे राजर्षि को लक्ष्य करके बोलने लगे - भूपाल निमे! तुमने मेरी अवहेलना करके दूसरे पुरोहित का वरण कर लिया है, इसलिये तुम्हारा यह शरीर अचेतन होकर गिर जायेगा। 

तदनन्तर राजा की नींद खुली। वे उनके दिये हुए शाप की बात सुनकर क्रोध से मूर्च्छित हो गये और ब्रह्मयोनि वसिष्ठ से बोले – मुझे आपके आगमन की बात मालूम नहीं थी, इसलिये सो रहा था। परंतु आपने क्रोध से कलुषित होकर मेरे ऊपर दूसरे यमदण्ड की भाँति शापाग्नि का प्रहार किया है। अतः ब्रह्मर्षे! चिरंतन शोभा से युक्त जो आपका शरीर है, वह अचेतन (अर्थात बिना शरीर का जीवन जैसे वायु) होकर गिर जायेगा - इसमें संशय नहीं है। इस प्रकार रोष से भरे दोनों वहां से विदेह (बिना देह के) हो गए।  

'एक-दूसरे के शाप से देह त्याग करके तपस्या के धनी वे धर्मात्मा राजर्षि और ब्रह्मर्षि वायुरूप हो गये। महातेजस्वी महामुनि वसिष्ठ शरीर रहित हो जाने पर दूसरे शरीर की प्राप्ति के लिये अपने पिता ब्रह्माजी के पास गये। 

धर्मके ज्ञाता वायुरूप वसिष्ठजी ने देवाधिदेव ब्रह्माजी के चरणों में प्रणाम करके उन पितामह से इस प्रकार कहा - भगवन्! मैं राजा निमि के शाप से देह हीन हो गया हूँ; अतः वायुरूप में रह रहा हूँ। प्रभो! समस्त देहहीनों को महान् दुःख होता है और होता रहेगा; क्योंकि देहहीन प्राणी के सभी कार्य लुप्त हो जाते हैं। अत: दूसरे शरीर की प्राप्ति के लिये आप मुझपर कृपा करें। 

तब अमित तेजस्वी स्वयम्भू ब्रह्मा ने उनसे कहा - महायशस्वी द्विजश्रेष्ठ ! तुम मित्र और वरुण के छोड़े हुए तेज (वीर्य) में प्रविष्ट हो जाओ। वहाँ जाने पर भी तुम अयोनिज रूप से ही उत्पन्न होओगे और महान् धर्म से युक्त हो पुत्ररूप से मेरे वश में आ जाओगे। मेरे पुत्र होने के कारण तुम्हें पूर्ववत् प्रजापति का पद प्राप्त होगा।

ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर उनके चरणों में प्रणाम तथा उनकी परिक्रमा करके वायुरूप वसिष्ठजी वरुणलोक को चले गये। उन्हीं दिनों मित्र देवता भी वरुण के अधिकार का पालन कर रहे थे। वे वरुण के साथ रहकर समस्त देवेश्वरों द्वारा पूजित होते थे। इसी समय अप्सराओं में श्रेष्ठ उर्वशी सखियों से घिरी हुई अकस्मात् उस स्थान पर आ गयी। उस परम सुन्दरी अप्सरा को क्षीर सागर में नहाती और जल क्रीडा करती देख वरुण के मन में उर्वशी के लिये अत्यन्त उल्लास प्रकट हुआ। उन्होंने प्रफुल्ल कमल के समान नेत्र और पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाली उस सुन्दरी अप्सरा को समागम के लिये आमन्त्रित किया। 

तब उर्वशी ने हाथ जोड़कर वरुण से कहा -  सुरेश्वर ! साक्षात् मित्रदेवता ने पहले से ही मेरा वरण कर लिया है। 

यह सुनकर वरुण ने कामदेव के बाणों से पीड़ित होकर कहा - सुन्दर रूप-रंगवाली सुश्रोणि ! यदि तुम मुझसे समागम करना नहीं चाहती तो मैं तुम्हारे समीप इस देवनिर्मित कुम्भ में अपना यह वीर्य छोड़ दूँगा और इस प्रकार छोड़कर ही सफल मनोरथ हो जाऊँगा। 

लोकनाथ वरुण का यह मनोहर वचन सुनकर उर्वशी को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह बोली - प्रभो! आपकी इच्छा के अनुसार ऐसा ही हो। मेरा हृदय विशेषत: आप में अनुरक्त है और आपका अनुराग भी मुझ में अधिक है; इसलिये आप मेरे उद्देश्यसे उस कुम्भ में वीर्याधान कीजिये। इस शरीर पर तो इस समय मित्र का अधिकार हो चुका है। 

उर्वशीके ऐसा कहने पर वरुण ने प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशमान अपने अत्यन्त अद्भुत तेज (वीर्य) - को उस कुम्भमें डाल दिया। तदनन्तर उर्वशी उस स्थान पर गयी, जहाँ मित्रदेवता विराजमान थे। उस समय मित्र अत्यन्त कुपित हो उस उर्वशी से इस प्रकार बोले - दुराचारिणि! पहले मैंने तुझे समागम के लिये आमन्त्रित किया था; फिर किसलिये तूने मेरा त्याग किया और क्यों दूसरे पति का वरण कर लिया? अपने इस पाप के कारण मेरे क्रोध से कलुषित हो तू कुछ काल तक मनुष्य लोक में जाकर निवास करेगी। दुर्बुद्धे! बुधके पुत्र राजर्षि पुरूरवा, जो काशिदेशके राजा हैं, उनके पास चली जा, वे ही तेरे पति होंगे। 

तब वह शाप-दोष से दूषित हो प्रतिष्ठानपुर (प्रयाग - झूसी) में बुध के औरस पुत्र पुरूरवा के पास गयी। पुरूरवा के उर्वशी के गर्भ से श्रीमान् आयु नामक महाबली पुत्र हुआ, जिसके पुत्र इन्द्रतुल्य तेजस्वी महाराज नहुष थे। वृत्रासुर पर वज्र का प्रहार करके जब देवराज इन्द्र ब्रह्महत्या के भय से दुःखी हो छिप गये थे, तब नहुष ने ही एक लाख वर्षों तक ‘इन्द्र' पद पर प्रतिष्ठित हो त्रिलोकी के राज्य का शासन किया था। मनोहर दाँत और सुन्दर नेत्रवाली उर्वशी मित्र के दिये हुए उस शाप से भूतल पर चली गयी । वहाँ वह सुन्दरी बहुत वर्षों तक रही। फिर शाप का क्षय होने पर इन्द्रसभा में चली गयी। 

इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-४३(43) समाप्त !

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