अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन ! ऐसा विचारकर शीघ्र चलने वाले विप्रवर नारदजी रावण के आक्रमण का समाचार बताने के लिये यमलोक में गये। वहाँ जाकर उन्होंने देखा, यमदेवता अग्नि को साक्षी के रूप में सामने रखकर बैठे हैं और जिस प्राणी का जैसा कर्म है, उसी के अनुसार फल देने की व्यवस्था कर रहे हैं।
महर्षि नारद को वहाँ आया देख यमराज ने आतिथ्य - धर्म के अनुसार उनके लिये अर्घ्य आदि निवेदन करके कहा - देवताओं और गन्धर्वों से सेवित देवर्षि! कुशल तो है न ? धर्म का नाश तो नहीं हो रहा है? आज यहाँ आपके शुभागमन का क्या उद्देश्य है?
तब भगवान् नारद मुनि बोले - पितृराज ! सुनिये - मैं एक आवश्यक बात बता रहा हूँ, आप सुनकर उसके प्रतीकार का भी कोई उपाय कर लें। यद्यपि आपको जीतना अत्यन्त कठिन है, तथापि यह दशग्रीव नामक निशाचर अपने पराक्रमों द्वारा आपको वश में करने के लिये यहाँ आ रहा है। प्रभो! इसी कारण से मैं तुरंत यहाँ आया हूँ कि आपको इस संकट की सूचना दे दूँ, परंतु आप तो कालदण्डरूपी आयुध को धारण करनेवाले हैं, आपकी उस राक्षस के आक्रमण से क्या हानि होगी ?
'इस प्रकार की बातें हो ही रही थीं कि उस राक्षस का उदित हुए सूर्य के समान तेजस्वी विमान दूर से आता दिखायी दिया। महाबली रावण पुष्पक की प्रभा से उस समस्त प्रदेश को अन्धकार शून्य करके अत्यन्त निकट आ गया। महाबाहु दशग्रीव ने यमलोक में आकर देखा कि यहाँ बहुत से प्राणी अपने-अपने पुण्य तथा पाप का फल भोग रहे हैं।'
'उसने यमराज के सेवकों के साथ उनके सैनिकों को भी देखा। उसकी दृष्टि में यमयातना का दृश्य भी आया। घोर रूपधारी उग्र प्रकृति वाले भयानक यमदूत कितने ही प्राणियों को मारते और क्लेश पहुँचाते थे, जिससे वे बड़े जोर- जोर से चीखते और चिल्लाते थे। किन्हीं को कीड़े खा रहे थे और कितनों को भयंकर कुत्ते नोच रहे थे। वे सब के सब दुःखी हो - होकर कानों को पीड़ा देनेवाला भयानक चीत्कार करते थे। किन्हीं को बारम्बार रक्त से भरी हुई वैतरणी नदी पार करने के लिये विवश किया जाता था और कितनों को तपायी हुई बालुकाओं पर बार-बार चलाकर संतप्त किया जाता था।'
'कुछ पापी असिपत्र-वन में, जिसके पत्ते तलवार की धार के समान तीखे थे, विदीर्ण किये जा रहे थे। किन्हीं को रौरव नरक में डाला जाता था। कितनों को खारे जलसे भरी हुई नदियों में डुबाया जाता था और बहुतों को छुरों की धारों पर दौड़ाया जाता था। कई प्राणी भूख और प्यास से तड़प रहे थे और थोड़े से जल की याचना कर रहे थे। कोई शव के समान कंकाल, दीन, दुर्बल, उदास और खुले बालों से युक्त दिखायी देते थे। कितने ही प्राणी अपने अंगो में मैल और कीचड़ लगाये दयनीय तथा रूखे शरीर से चारों ओर भाग रहे थे। इस तरह के सैकड़ों और हजारों जीवों को रावण ने मार्ग में यातना भोगते देखा।'
'दूसरी ओर रावण ने देखा कुछ पुण्यात्मा जीव अपने पुण्यकर्मो के प्रभाव से अच्छे-अच्छे घरों में रहकर संगीत और वाद्यों की मनोहर ध्वनि से आनन्दित हो रहे हैं। गोदान करनेवाले गोरस को, अन्न देनेवाले अन्न को और गृह प्रदान करनेवाले लोग गृह को पाकर अपने सत्कर्मों का फल भोग रहे हैं।'
'दूसरे धर्मात्मा पुरुष वहाँ सुवर्ण, मणि और मुक्ताओं से अलंकृत हो यौवन के मद से मत्त रहने वाली सुन्दरी स्त्रियों के साथ अपनी अंगकांती से प्रकाशित हो रहे हैं। महाबाहु राक्षसराज रावण ने इन सबको देखा। देखकर बलवान् राक्षस दशग्रीव ने अपने पाप कर्मों के कारण यातना भोगने वाले प्राणियों को पराक्रम द्वारा बलपूर्वक मुक्त कर दिया।'
'इससे थोड़ी देर तक उन पापियों को बड़ा सुख मिला, उसके मिलने की न तो उन्हें सम्भावना थी और न उसके विषय में वे कुछ सोच ही सके थे। उस महान् राक्षस के द्वारा जब सभी प्रेत यातना से मुक्त कर दिये गये, तब उन प्रेतों की रक्षा करनेवाले यमदूत अत्यन्त कुपित हो राक्षसराज पर टूट पड़े।'
'फिर तो सम्पूर्ण दिशाओं की ओर से धावा करनेवाले धर्मराज के शूरवीर योद्धाओं का महान् कोलाहल प्रकट हुआ। जैसे फूल पर झुंड-के-झुंड भौरे जुट जाते हैं, उसी प्रकार पुष्पक विमान पर सैकड़ों-हजारों शूरवीर यमदूत चढ़ आये और प्रासों, परिघों, शूलों, मूसलों, शक्तियों तथा तोमरों द्वारा उसे तहस-नहस करने लगे। उन्होंने पुष्पक विमान के आसन, प्रासाद, वेदी और फाटक शीघ्र ही तोड़ डाले।'
'देवताओं का अधिष्ठानभूत वह पुष्पक विमान उस युद्ध में तोड़ा जाने पर भी ब्रह्माजी के प्रभाव से ज्यों-कात्यों हो जाता था; क्योंकि वह नष्ट होने वाला नहीं था। महामना यम की विशाल सेना असंख्य थी। उसमें सैकड़ों-हजारों शूरवीर आगे बढ़कर युद्ध करनेवाले थे। यमदूतों के आक्रमण करने पर रावण के वे महावीर मन्त्री तथा स्वयं राजा दशग्रीव भी वृक्षों, पर्वत शिखरों तथा यमलोक के सैकड़ों प्रासादों को उखाड़कर उनके द्वारा पूरी शक्ति लगाकर इच्छानुसार युद्ध करने लगे। राक्षसराज के मन्त्रियों के सारे अंग रक्त से नहा उठे थे। सम्पूर्ण शस्त्रों के आघात से वे घायल हो चुके थे। फिर भी उन्होंने बड़ा भारी युद्ध किया।'
'महाबाहु श्रीराम ! यमराज तथा रावण के वे महाभाग मन्त्री एक-दूसरेपर नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों द्वारा बड़े जोर से आघात-प्रत्याघात करने लगे। तत्पश्चात् यमराज के महाबली योद्धाओं ने रावण के मन्त्रियों को छोड़कर उस दशग्रीव के ही ऊपर शूलों की वर्षा करते हुए धावा किया। रावण का सारा शरीर शस्त्रों की मार से जर्जर हो गया। वह खून से लथपथ हो गया और पुष्पक विमान के ऊपर फूले हुए अशोक वृक्ष के समान प्रतीत होने लगा।'
'तब बलवान् रावण ने अपने अस्त्र-बल से यमराज के सैनिकों पर शूल, गदा, प्रास, शक्ति, तोमर, बाण, मूसल, पत्थर और वृक्षों की वर्षा आरम्भ की। वृक्षों, शिलाखण्डों और शस्त्रों की वह अत्यन्त भयंकर वृष्टि भूतल पर खड़े हुए यमराज के सैनिकों पर पड़ने लगी। वे सैनिक भी सैकड़ों-हजारों की संख्या में एकत्र हो उसके सारे आयुधों को छिन्न-भिन्न करके उसके द्वारा छोड़े हुए दिव्यास्त्र का भी निवारण कर एकमात्र उस भयंकर राक्षस को ही मारने लगे।'
'जैसे बादलों के समूह पर्वत पर सब ओर से जल की धाराएँ गिराते हैं, उसी प्रकार यमराज के समस्त सैनिकों ने रावण को चारों ओर से घेरकर उसे भिन्दिपालों और शूलों से छेदना आरम्भ कर दिया। उसको दम लेने की भी फुरसत नहीं दी। रावण का कवच कटकर गिर पड़ा। उसके शरीर से रक्त की धारा बहने लगी। वह उस रक्त से नहा उठा और कुपित हो पुष्पक विमान छोड़कर पृथ्वी पर खड़ा हो गया।'
'वहाँ दो घड़ी के बाद उसने अपने आपको सँभाला। फिर तो वह धनुष और बाण हाथ में ले बढ़े हुए उत्साह से सम्पन्न हो समरांगण में कुपित हुए यमराज के समान खड़ा हुआ। उसने अपने धनुष पर पाशुपत नामक दिव्य अस्त्र का संधान किया और उन सैनिकों से 'ठहरो - ठहरो' कहते हुए उस धनुष को खींचा।'
'जैसे भगवान् शंकर ने त्रिपुरासुर पर पाशुपतास्त्र का प्रयोग किया था, उसी प्रकार उस इन्द्रद्रोही रावण ने अपने धनुष को कानतक खींचकर वह बाण छोड़ दिया। उस समय उसके बाण का रूप धूम और ज्वालाओं के मण्डल से युक्त हो ग्रीष्म ऋतु में जंगल को जलाने के लिये चारों ओर फैलते हुए दावानल के समान प्रतीत होने लगा।'
'रणभूमि में ज्वाला मालाओं से घिरा हुआ वह बाण धनुष से छूटते ही वृक्षों और झाड़ियों को जलाता हुआ तीव्र गति से आगे बढ़ा और उसके पीछे-पीछे मांसाहारी जीव-जन्तु चलने लगे। उस युद्धस्थल में यमराज के वे सारे सैनिक पाशुपतास्त्र के तेज से दग्ध हो इन्द्रध्वज के समान नीचे गिर पड़े। तदनन्तर अपने मन्त्रियों के साथ वह भयानक पराक्रमी राक्षस पृथ्वी को कम्पित करता हुआ-सा बड़े जोर-जोर से सिंहनाद करने लगा।'
इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-४२(42) समाप्त !
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