सूतजी कहते हैं - ऋषियों ! दशरथ ने अपने हाथों निरपराध मुनि कुमार की हत्या करने का प्रायश्चित करने का निर्णय लिया। उन्होंने गुरु वशिष्ठ के निर्देशानुसार कई प्रकार के दान पुण्य किये। अपने हाथों से निर्धन तथा ब्राह्मणों को भोजन करवाया। किन्तु शाप की करनी भला कैसे टलती। फिर भी समय के साथ धीरे-धीरे राजकार्य सँभालने से वह सहज हो गये। युवराज दशरथ अब इस घटना को स्मरण नहीं करते थे।
उनके पिता अज ने दशरथ का विवाह कौशल देश ((वर्तमान में छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश) की राजकुमारी कौशल्या से कर दिया। वे देव माता अदिति का अवतार थी। दशरथ और कौशल्या अपने पूर्व जन्म में पृथ्वी के प्रथम पुरुष और स्त्री 'स्वायंभुव मनु तथा देवी शतरूपा' थे। जिसका वर्णन (वंश चरित्र अध्याय -२ का भाग-९(9) मनु-शतरूपा तप एवं वरदान प्राप्ति) मैं पहले कर चूका हूँ। देवी कौशल्या के पिता महाराज सुकौशल थे। जो बड़े ही वीर और पराक्रमी थे। दोनों के विवाह उपरांत राजा अज ने अपने पुत्र को अयोध्या का राजा बना दिया। फिर कुछ समय पश्चात अज की मृत्यु हो जाती है। उनकी मृत्यु का कारण अपनी पत्नी इंदुमती के असामयिक निधन के शौकवश होना थी।
राजा बनने के उपरांत दशरथ का विवाह केकेय देश (प्राचीन पंजाब के उत्तर-पश्चिम भाग में, गांधार राज्य और विपाशा नदी के बीच में तथा आधुनिक पाकिस्तान के झेलम, शाहपुर और गुजरात के क्षेत्रों में फैला हुआ था) के राजा अश्वपति और शुभलक्षणा की कन्या कैकेई से हुआ। ये दशरथ की अत्यंत प्रिय रानी थी। महाराज दशरथ का तीसरा विवाह काशी नरेश की पुत्री सुमित्रा से हुआ।
सूतजी बोले - ऋषियों! दक्षिण दिशा में स्थित दंडकारण्य के भीतर वैजयंत नाम का एक नगर बसता है। उस नगर पर शम्बर नाम के एक महाप्रतापी असुर का अधिकार था। उसने अपने तप से ब्रह्माजी को प्रसन्न कर कई शक्तियां प्राप्त कर ली थी। सभी देवता रावण की भांति उससे भयभीत रहते थे। दंडकारण्य के समीप उसका भयंकर आतंक व्याप्त था। वह कई ऋषि-मुनियों का भक्षण कर चूका था। जहाँ भी यज्ञादि सत्कर्म होते वह दुष्ट उसमे विघ्न डालता। इस कारण देवता बलहीन और तेजहीन हो रहे थे।
'देवताओं को अपने अधीन करने के लिए उसने स्वर्गलोक पर आक्रमण करने का निश्च्य किया। जब इसकी सुचना इंद्रा को मिली तो वह देवगणों सहित जगतपालक श्रीहरी की शरण में गये। शम्बरासुर से रक्षा के लिए भगवान ने देवताओं को महा प्रतापी, तेजस्वी तथा सूर्यवंश के शिरमौर महाराजा दशरथ से सहायता मांगने का कहा। श्रीनारायण के कहने पर सभी देवता अयोध्या नरेश के दरबार में पहुंचे। वहां देवताओं का भव्य स्वागत किया गया। सभी देवता राजा दशरथ की विनयशीलता को देखकर प्रसन्न हुए। तब कौशल नरेश ने उनसे आगमन का कारण पूछा।'
देवता बोले - नरश्रेष्ठ! हमे भगवान विष्णु ने यहाँ भेजा है। इस समय हम बड़े संकट में हैं। दंडकारण्य में निवास करने वाला दुष्ट असुर शम्बर स्वर्गलोक पर आक्रमण करने की योजना बना रहा है। वह किसी भी समय अपनी सेना लेकर आ सकता है। हे परमप्रतापी महाराज दशरथ इस समय सम्पूर्ण आर्यव्रत पर आपका अधिकार है। अतः आपके क्षेत्र में होने वाले ऋषि-मुनियों पर अत्याचार का प्रतिकार करना भी आपका धर्म है। आप हम देवताओं के साथ मिलकर अपनी चतुरंगिणी सेना सहित रणभूमि में उस पापी असुर को मारकर हमारी सहायता करें।
देवताओं की बात सुनकर राजा दशरथ तुरंत ही युद्ध के लिए तत्पर हुए। जब उनकी रानी कैकई को इसका पता चला तो वे भी महाराज दशरथ के साथ रणभूमि में जाने का हठ करने लगी। रानी कैकई ने कहा - हे स्वामी ! मैं एक क्षत्रिय कन्या हूँ। विवाह पूर्व मैंने अपने पूज्य पिता के साथ बहुत से युद्ध में भाग लिया है। उनकी कृपा और आशीर्वाद से मैं युद्ध के सभी कौशल और दाव-पेच भली-भांति जानती हूँ। मैं आपकी कुशल सारथी बनकर रणप्रांगण में शत्रुओं के विनाश में आपकी सहायता करुँगी।
एक बार तो राजा दशरथ नहीं माने और बोले - प्रिये ! मुझे तुम्हारी वीरता पर कोई संदेह नहीं किन्तु हमारे कुल में स्त्री का स्थान आदरणीय है। उसी की मर्यादा रखते हुए मैं तुम्हे रणभूमि में नहीं ले जा सकता। जब हमारी सेना को यह पता चलेगा तो वे यही सोचेंगे की उनके महाराज को हमसे अधिक अपनी स्त्री पर विश्वास है। इससे शूरवीरों की सभा में हमारा उपहास होगा। किन्तु रानी के बार-बार हठ करने से उन्हें मानना ही पड़ा।
राजा दशरथ देवताओं सहित अपने संपूर्ण दल को लेकर रणभूमि में आ पहुंचे। जब शम्बर ने दशरथ के रथ का सारथी बने एक स्त्री को देखा तो उसने उपहास उड़ाया - अरे! इन नपुंसक देवताओं की सहायता के लिए स्त्री के आँचल में छिपकर एक भीरु हमसे युद्ध करने आया है। इसके बाद दोनों और से भयंकर संग्राम हुआ। महाराज दशरथ ने अपने तीक्ष्ण बाणों से राक्षस सेना का संहार करना प्रारम्भ किया। दशरथ के अतुलनीय बल को देखकर पूरी राक्षस सेना घबरा गयी। यह देखकर शम्बर तथा उसके साथ आये अन्य असुर योद्धाओं ने दशरथ पर एक साथ आक्रमण किया। इससे दशरथ के शरीर पर बाणों के प्रहार से घाव हो गये। अचानक हुए प्रहारों से दशरथ का संतुलन बिगड़ गया।
'इसका लाभ उठाकर शम्बर ने दशरथ पर शक्ति बाण चलाया। किन्तु सारथी बनी महारानी कैकई ने बड़ी कुशलता से उस बाण से महाराज दशरथ की रक्षा की। इस बार दशरथ ने अपने प्रलयंकारी बाण शत्रु सेना पर छोड़े जिससे राक्षसों के कई योद्धा मारे गये। तदुपरांत दसरथ ने शम्बर के साथ घौर युद्ध किया। दोनों ने एक दूसरे पर तीखे बाणों से प्रहार किया।'
'दशरथ ने शम्बर के प्रभाव को समाप्त करने हेतु उस पर अपना अमोघ बाण छोड़ा और इस तरह देवताओं के परम शत्रु का शीश धड़ से अलग हो गया। शम्बर का अंत देखकर सभी देवता झूम उठे। किन्तु इस युद्ध में राजा दशरथ बहुत घायल हो गये। इससे उन्हें मूर्छा आ गयी। यह देखकर सारथी बनी महारानी कैकई ने बड़ी ही फुर्ती से महाराज को असुरों की सेना से बचाते हुए उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले आयी। उधर शम्बरासुर की मृत्यु से राक्षस सेना कमजोर पड़ गयी। इसका लाभ उठाकर देवता उन पर इस प्रकार टूट पड़े जैसे मृग को देखकर सिंह टूट पड़ता है। बहुत असुर मारे गये और शेष किसी प्रकार अपने प्राण बचाकर वहां से पलायन कर गये।'
देवताओं ने अपनी विजय का उत्सव मनाया। उधर मूर्छित राजा को सुरक्षित स्थान पर लाकर रानी ने उनका उपचार किया। जब महाराज दशरथ की मूर्छा टूटी तो वह जानकर बहुत प्रसन्न थे की रानी कैकई ने अद्भुत कौशल से रघुवंश की वीरता की लाज रखी। राजा दशरथ बोले - प्रिये! आज तुम्हारे कारण मैं रणभूमि से जीवित लौट सका हूँ। तुमने अपने अद्भुत पराक्रम से शत्रु सेना को अचंभित कर दिया। इसी बहाने हमे भी तुम्हारी वीरता के दर्शनों का लाभ हुआ। रघुवंशी अपने वचन का पालन अपने प्राण देकर भी करते हैं। तुमने हमारे उन्ही प्राणों की रक्षा की इसलिए मैं तुम्हे दो वरदान देने का प्रण लेता हूँ। तुम जो चाहो इसी क्षण हमसे मांग लो।
रानी कैकई ने कहा - हे रघुकुल शिरोमणि! इस समय आपसे बहुमूल्य मेरे लिए कुछ भी नहीं। आपकी रानी बनकर मुझे किसी भी इच्छा की कामना नहीं रह गयी है।
राजा ने कहा - किन्तु देवी हम तुम्हे वचन दे चुके हैं। अतः हमारे वचन का मान रखने के लिए तुम्हे कुछ तो मांगना ही होगा। धन, ऐश्वर्य, राज्य अथवा राजकोष जो भी चाहो वह मांग लो।
कैकई ने विनम्रता से कहा - स्वामी! यदि आपकी यही इच्छा है तो मैं अपने ये दोनों वरदान अपनी धरोहर के रूप में आपके पास सुरक्षित रखती हूँ। समय आने पर अवश्य मांग लुंगी।
'इसके बाद महाराज दशरथ अपने राज्य पहुँचते हैं जहाँ उनकी विजय का भव्य उत्सव मनाया जाता है। चारों और हर्षोल्लाष का वातावरण था। सभी प्रजाजन बहुत प्रसन्न थे।
इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-४२(42) समाप्त !
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