भाग-४१(41) नारदजी का रावण को समझाना, उनके कहने से रावण का युद्ध के लिये यमलोक को जाना

 


अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन ! इसके बाद राक्षसराज रावण मनुष्यों को भयभीत करता हुआ पृथ्वी पर विचरने लगा। एक दिन पुष्पक विमान से यात्रा करते समय उसे बादलों के बीच में मुनिश्रेष्ठ देवर्षि नारदजी मिले। निशाचर दशग्रीव ने उनका अभिवादन करके कुशल-समाचार की जिज्ञासा की और उनके आगमन का कारण पूछा। 

तब बादलों की पीठ पर खड़े हुए अमित कान्तिमान् महातेजस्वी देवर्षि नारद ने पुष्पक विमान पर बैठे हुए रावण से कहा - विक्रम से बहुत त्तम कुल में उत्पन्न विश्रवणकुमार राक्षसराज रावण! सौम्य ! ठहरो, मैं तुम्हारे बढ़े हुए बल से प्रसन्न हूँ। दैत्यों का विनाश करने वाले अनेक संग्राम करके भगवान् विष्णु ने तथा गन्धर्वों और नागों को पददलित करने वाले युद्धों द्वारा तुमने मुझे समान रूप से संतुष्ट किया है। इस समय यदि तुम सुनोगे तो मैं तुमसे कुछ सुनने योग्य बात कहूँगा। 

'तात! मेरे मुँह से निकली हुई उस बात को सुनने के लिये तुम अपने चित्त को एकाग्र करो। तात! तुम देवताओं के लिये भी अवध्य होकर इस भूलोक के निवासियों का वध क्यों कर रहे हो? यहाँ के प्राणी तो मृत्यु के अधीन होने के कारण स्वयं ही मरे हुए हैं; फिर तुम भी इन मरे हुओं को क्यों मार रहे हो?'

‘देवता, दानव, दैत्य, यक्ष, गन्धर्व और राक्षस भी जिसे नहीं मार सकते, ऐसे विख्यात वीर होकर भी तुम इस मनुष्य लोक को क्लेश पहुँचाओ, यह कदापि तुम्हारे योग्य नहीं है। जो सदा अपने कल्याण- साधन में मूढ़ हैं, बड़ी-बड़ी विपत्तियों से घिरे हुए हैं और बुढ़ापा तथा सैकड़ों रोगों से युक्त हैं, ऐसे लोगों को कोई भी वीर पुरुष कैसे मार सकता है?'

‘जो नाना प्रकार के अनिष्टों की प्राप्ति से जहाँ कहीं भी पीड़ित है, उस मनुष्य लोक में आकर कौन बुद्धिमान् वीर पुरुष युद्ध के द्वारा मनुष्यों के वध में अनुरक्त होगा? यह लोक तो यों ही भूख प्यास और जरा आदि से क्षीण हो रहा है तथा विषाद और शोक में डूबकर अपनी विवेक शक्ति खो बैठा है। दैव के मारे हुए इस मृत्युलोक का तुम विनाश न करो।' 

‘महाबाहु राक्षसराज! देखो तो सही, यह मनुष्य लोक ज्ञानशून्य होने के कारण मूढ़ होने पर भी किस तरह नाना प्रकार के क्षुद्र पुरुषार्थों में आसक्त है? इसे इस बात का भी पता नहीं है कि कब दु:ख और सुख आदि भोगने का अवसर आयेगा? यहाँ कहीं कुछ मनुष्य तो आनन्दमग्न होकर गाजे-बाजे और नाच आदि का सेवन करते हैं - उनके द्वारा मन बहलाते हैं तथा कहीं कितने ही लोग दुःख से पीड़ित हो नेत्रों से आँसू बहाते हुए रोते रहते हैं।' 

‘माता, पिता तथा पुत्र के स्नेह से और पत्नी तथा भाई के सम्बन्ध में नाना प्रकार के मनसूबे बाँधने के कारण यह मनुष्य लोक मोहग्रस्त हो परमार्थ से भ्रष्ट हो रहा है। इसे अपने बन्धनजनित क्लेश का अनुभव ही नहीं होता है। इस प्रकार जो मोह (अज्ञान) - के कारण परम पुरुषार्थ से वञ्चित हो गया है, ऐसे मनुष्य-लोक को क्लेश पहुँचाकर तुम्हें क्या मिलेगा? सौम्य ! तुमने मनुष्य-लोक को तो जीत ही लिया है, इसमें कोई भी संशय नहीं है। 

'शत्रुनगरीपर विजय पानेवाले पुलस्त्यनन्दन ! इन सब मनुष्यों को यमलोक में अवश्य जाना पड़ता है। अत: यदि शक्ति हो तो तुम यमराज को अपने काबू में करो। उन्हें जीत लेने पर तुम सबको जीत सकते हो; इसमें संशय नहीं है।' 

नारदजी के ऐसा कहने पर लङ्कापति रावण अपने तेज से उद्दीप्त होनेवाले उन देवर्षि को प्रणाम करके हँसता हुआ बोला - महर्षि! आप देवताओं और गन्धर्वों के लोक में विहार करनेवाले हैं। युद्ध के दृश्य देखना आपको बहुत ही प्रिय है। मैं इस समय दिग्विजय के लिये रसातल में जाने को उद्यत हूँ। फिर तीनों लोकों को जीतकर नागों और देवताओं को अपने वश में करके अमृत की प्राप्ति के लिये रसनिधि समुद्र का मन्थन करूँगा।' 

यह सुनकर देवर्षि भगवान् नारद ने कहा - 'शत्रुसूदन ! यदि तुम रसातल को जाना चाहते हो तो इस समय उसका मार्ग छोड़कर दूसरे रास्ते से कहाँ जा रहे हो? दुर्धर्ष वीर! रसातल का यह मार्ग अत्यन्त दुर्गम है और यमराज की पुरी से होकर ही जाता है। 

नारदजी के ऐसा कहने पर दशमुख रावण शरद् ऋतु के बादल की भाँति अपना उज्ज्वल हास बिखेरता हुआ बोला - देवर्षि! मैंने आपकी बात स्वीकार कर ली। इसके बाद उसने यों कहा – ब्रह्मन्! अब यमराज का वध करने के लिये उद्यत होकर मैं उस दक्षिण दिशा को जाता हूँ, जहाँ सूर्यपुत्र राजा यम निवास करते हैं। प्रभो! भगवन्! मैंने युद्ध की इच्छा से क्रोधपूर्वक प्रतिज्ञा की है कि चारों लोकपालों को परास्त करूँगा। अत: मैं यहाँ से यमपुरी को प्रस्थान कर रहा हूँ। संसार के प्राणियों को मौत का कष्ट देनेवाले सूर्यपुत्र यम को स्वयं ही मृत्यु से संयुक्त कर दूँगा। 

ऐसा कहकर दशग्रीव ने मुनि को प्रणाम किया और मन्त्रियों के साथ वह दक्षिण दिशा की ओर चल दिया। उसके चले जाने पर धूमरहित अग्नि के समान महातेजस्वी विप्रवर नारदजी दो घड़ी तक ध्यानमग्न हो इस प्रकार विचार करने लगे – आयु क्षीण होने पर जिनके द्वारा धर्मपूर्वक इन्द्र सहित तीनों लोकों के चराचर प्राणी क्लेश में डाले जाते – दण्डित होते हैं, वे कालस्वरूप यमराज इस रावण के द्वारा कैसे जीते जायँगे ? 

'जो जीवों के दान और कर्म के साक्षी हैं, जिनका तेज द्वितीय अग्नि के समान है, जिन महात्मा से चेतना पाकर सम्पूर्ण जीव नाना प्रकार की चेष्टाएँ करते हैं, जिनके भय से पीड़ित हो तीनों लोकों के प्राणी उनसे दूर भागते हैं, उन्हीं के पास यह राक्षसराज स्वयं ही कैसे जायेगा ?' 

‘जो त्रिलोकी को धारण-पोषण करनेवाले तथा पुण्य और पाप के फल देनेवाले हैं और जिन्होंने तीनों लोकों पर विजय पायी है, उन्हीं कालदेव को यह राक्षस कैसे जीतेगा? काल ही सबका साधन है। यह राक्षस काल के अतिरिक्त दूसरे किस साधन का सम्पादन करके उस काल पर विजय प्राप्त करेगा? अब तो मेरे मन में बड़ा कौतूहल उत्पन्न हो गया है, अत: इन यमराज और राक्षसराज का युद्ध देखने के लिये मैं स्वयं भी यमलोक को जाऊँगा।' 

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-४१(41) समाप्त !

No comments:

Post a Comment

रामायण: एक परिचय

रामायण संस्कृत के रामायणम् का हिंदी रूपांतरण है जिसका शाब्दिक अर्थ है राम की जीवन यात्रा। रामायण और महाभारत दोनों सनातन संस्कृति के सबसे प्र...