भाग-४१(41) दशरथ के हाथों श्रवण कुमार की हत्या तथा विलाप करते हुए माता-पिता का दशरथ को शाप देना

 


सूतजी कहते हैं - हे ऋषियों ! श्रवण कुमार ने कांवर बनाई और उसमें दोनों (माता-पिता) को बैठाकर कंधे पर उठाए हुए यात्रा करने लगा। वह अपनी पत्नी सहित एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ घूमता रहा। तीर्थ के पवित्र जल से वे दोनों स्नान करते तथा माता-पिता को भी करवाते। यात्रा के दौरान श्रवण कुमार के पैरों में छाले पड़ गए फिर भी मार्ग के सभी कष्ट सहते हुए भी वह अपने प्रण पर अडिग रहा। वे जिस तीर्थ पर जाते वहीँ उन्हें देखने के लिए लोगों की भारी भीड़ एकत्रित हो जाता। यह जानकर की श्रवण अपने माता पिता के लिए सब कर रहा है बड़े उसे हृदय से आशीर्वाद देते। 

'एक बार मार्ग में चलते हुए भीषण वायु प्रपात हुआ। उस समय घोर वर्षा हुई जिससे बाढ़ जैसी स्थिति बन गयी। मार्ग में एक पग रखना बड़ा ही कठिन था। श्रवण कुमार ने भीषण जल और वायु प्रपात को देखते हुए आश्रय ढूंढना प्रारम्भ किया। किन्तु उसे कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था। किसी प्रकार श्रवण कुमार को एक मंदिर दिखा और वहीँ जाकर उसने शरण ली। अपने माता पिता की रक्षा में ध्यान लगाने से उसे यह पता ही नहीं चल पाया की उसकी पत्नी उस जल भंवर में फँस गयी है।'

'अपनी पत्नी को संकट में देख वह उसे बचाने दौड़ा किन्तु बहुत प्रयास करने पर भी अपनी सहधर्मिणी को नहीं बचा पाया। अपनी पुत्र-वधु की मृत्यु का समाचार सुनकर श्रवण कुमार के माता-पिता ने भारी विलाप किया। किन्तु फिर उन्होंने किसी तरह कलेजे पर पत्थर रख अपने पुत्र को ढांढस बंधाया। काल की गति बड़ी तीव्र होती है कब किस पर चल जाये पता नहीं चलता। अपनी पत्नी के सभी श्राद्ध कर्म करने के बाद श्रवण कुमार पुनः तीर्थ यात्रा को तत्पर हुआ।'

'सभी तीर्थों की यात्रा करते हुए अब वह अयोध्या के निकट आ पहुंचे थे। राह चलते हुए एक दिन श्रवण माता-पिता के साथ अयोध्या के समीप वन में विश्राम कर रहा था। उसकी माता को प्यास लगने पर वो पास ही बहती नदी से अपना कमंडल लेकर सरयू तट पर गया। उस समय अयोध्या के राजा अज के पुत्र युवराज दशरथ आखेट खेलने के लिए उसी वन में विचरण कर रहे थे वे शब्दभेदी बाण चलाने में निपुण थे। सायंकाल का समय था वे धनुष-बाण लेकर सरयू के किनारे गये। उसी समय वहां पर श्रवण अपने, माता - पिता के लिए जल भरने आया था।'

'अचानक पानी की कुछ आवाज सुनकर उन्हें लगा कि कोई वन्य पशु पानी पीने आया है जबकि श्रवण ने जल भरने के लिए कमंडल को पानी में डुबोया था। बर्तन में पानी भरने की आवाज सुनकर दशरथ ने आधार पर तीर मारा जो श्रवण के सीने में जा लगा। श्रवण के मुंह से ‘आह’ निकल गई। इसे सुनकर युवराज दशरथ उस स्थान की और भागे। वहां जाकर उन्होंने देखा कि उनके बाण से आहत एक मनुष्य तड़प रहा है। दशरथ ने उसे अपने गोद में सुलाया और बाण को श्रवण के सीने से निकाला। 

दशरथ बोले - हे महादेव! मैंने यह क्या अनर्थ कर डाला। हे मुनिकुमार! मैंने तुम पर भूल वश बाण चला दिया मुझे क्षमा करो! मैं तुम्हे शीघ्र ही अपने राजमहल लिए चलता हूँ। वहां वैद्यराज से तुम्हारा उपचार करवाता हूँ। मैं अयोध्या के महाराज अज का पुत्र दशरथ हूँ। तुम चिंता नहीं करो। 

दशरथ के वचन सुन श्रवण कुमार ने पीड़ा से तड़पते हुए कहा - हे युवराज ! अब बहुत देर हो चुकी है। मैं अब नहीं बचूंगा मेरे प्राण निकलने ही वाले हैं। मुझे तो इस बात का दुःख है की मैं अपने अंधे माता-पिता के प्रति अपना कर्तव्य पूर्ण नहीं कर सका। वे बेचारे मेरी राह देख रहे होंगे। उनकी प्यास बुझाने के लिए मैं यहाँ जल लेने आया था। किन्तु मुझे क्या पता था कि मेरा काल तुम्हारे रूप में मेरी प्रतीक्षा कर रहा है। 

'युवराज! तुमने आज अपने इस बाण से एक नहीं अपितु तीन-तीन हत्याएं कर डाली। मेरे माता पिता मेरे वियोग में अवश्य ही प्राण त्याग देंगे। यदि तुम्हे क्षमा मांगनी है अथवा उनके भयंकर शाप से बचना है तो मेरी अंतिम प्रार्थना स्वीकार करो। उन्हें जल पीला दो उसके पश्चात उन्हें सत्य बताना। मैं नहीं चाहता की वे प्यासे ही अपना दम तोड़ दे। अब वहीँ तुम्हे दंड देंगे अथवा क्षमा करेंगे।'  

'इस प्रकार कहते हुए अंततः उस माता-पिता के लाल ने दशरथ की गोद में प्राण त्याग दिए। श्रवण कुमार की मृत्यु से दशरथ का शरीर काँप गया। उसकी अंतिम इच्छा को पूर्ण करने हेतु युवराज ने नदी से कमंडल में जल भरा और उस स्थान की और चल पड़े जहाँ श्रवण के अंधे माता-पिता अपने पुत्र की प्रतीक्षा कर रहे थे। 

जब दशरथ जल लेकर उनके पास पहुंचे तो कदमों की आहट सुनकर उन्होंने अनुमान लगाया की उनका पुत्र जल ले आया है। तब शांतनु बोले - पुत्र तुमने आने में बड़ा विलम्ब किया क्या सरयू यहाँ से दूर थी। किन्तु भय और घबराहट के मारे दशरथ से उत्तर देते नहीं बना। तब शांतनु ने फिर कहा - अरे ! तू कुछ कहता क्यों नहीं। लगता है तू संकोच कर रहा है। देवी तुम ही अपने लाडले को समझाओ। 

देवी ज्ञानवती बोली - पुत्र तुमने हमारे लिए जो भी किया है उसका अंश मात्र भी कोई नहीं कर सकता। ला अब संकोच त्याग दे बहुत प्यास लगी है जल पीला दे। 

दशरथ ने कांपते हाथों से शांतनु को कमंडल दिया। कमंडल लेते समय जैसे ही दशरथ के हाथों का स्पर्श शांतनु ने किया वे जोर से चिल्ला उठे - कौन हो तुम? तुम मेरे पुत्र नहीं। सत्य कहो कहाँ है हमारा पुत्र?

दशरथ ने कांपते अधरों से कहा - हे मुने! मैं अयोध्या के राजा अज का पुत्र दशरथ हूँ। मुझे आपके पुत्र ने ही जल लेकर यहाँ भेजा है। उसी ने मुझे यह कहा है की पहले आपको जल पिलाऊँ उसके पश्चात मैं आपके प्रश्नों का उत्तर दूंगा। 

यह सुनकर शांतनु बोले - तुम्हारे अधर और हाथ दोनों काँप रहे हैं। अवश्य ही कोई बात है। अब तो यह जल हम तभी पियेंगे जब हमारा श्रवण  यहाँ आएगा। हमारे धैर्य की परीक्षा नहीं लो। सब कुछ सत्य कहो। 

दशरथ बोले - हे पूज्यवर! मैं आपका अपराधी हूँ। मुझे क्षमा करिये। मैंने एक पशु के धोखे से आपके निरपराध पुत्र पर अपना शब्दभेदी बाण चला दिया। वह बाण लगने से परमधाम को सिधार गया। 

इतना सुनते हुए दोनों घौर विलाप करने लगे। तब शांतनु ने दशरथ से कहा -  राजन्! यदि यह अपना पापकर्म तुम स्वयं यहाँ आकर न बताते तो शीघ्र ही तुम्हारे मस्तक के सैकड़ों-हजारों टुकड़े हो जाते। नरेश्वर! यदि क्षत्रिय जान-बूझकर विशेषत: किसी वानप्रस्थी का वध कर डाले तो वह बज्रधारी इन्द्र ही क्यों न हो, वह उसे अपने स्थान से भ्रष्ट कर देता है। तपस्या में लगे हुए वैसे ब्रह्मवादी मुनि पर जान-बूझकर शस्त्र का प्रहार करनेवाले पुरुष के मस्तक के सात टुकड़े हो जाते हैं। 

'तुमने अनजान में यह पाप किया है, इसीलिये अभी तक जीवित हो। यदि जान-बूझकर किया होता तो समस्त रघुवंशियों का कुल ही नष्ट हो जाता, अकेले तुम्हारी तो बात ही क्या है? नरेश्वर ! तुम हम दोनों को उस स्थान पर ले चलो, जहाँ हमारा पुत्र मरा पड़ा है। इस समय हम उसे देखना चाहते हैं। यह हमारे लिये उसका अन्तिम दर्शन होगा। 

'तब युवराज दशरथ अत्यन्त दुःख में पड़े हुए उन दम्पत्ति को उस स्थान पर ले गये, जहाँ उनका पुत्र काल के अधीन होकर पृथ्वी पर अचेत पड़ा था। उसके सारे अंग खून से लथपथ हो रहे थे, मृग चर्म और वस्त्र बिखरे पड़े थे। दशरथ ने पत्नी सहित मुनि को उनके पुत्र के शरीर का स्पर्श कराया।' 

दोनों अपने उस पुत्र का स्पर्श करके उसके अत्यन्त निकट जाकर उसके शरीर पर गिर पड़े। फिर पिता ने पुत्र को सम्बोधित करके उससे कहा - बेटा! आज तुम मुझे न तो प्रणाम करते हो और न मुझसे बोलते ही हो। तुम धरती पर क्यों सो रहे हो? क्या तुम हमसे रूठ गये हो? बेटा! यदि मैं तुम्हारा प्रिय नहीं हूँ तो तुम अपनी इस धर्मात्मा माता की ओर तो देखो। तुम इसके हृदय से क्यों नहीं लग जाते हो? वत्स! कुछ तो बोलो।

'अब पिछली रात में मधुर स्वर से शास्त्र या पुराण आदि अन्य किसी ग्रन्थ का विशेष रूप से स्वाध्याय करते हुए किसके मुँह से मैं मनोरम शास्त्रचर्चा सुनूंगा? अब कौन स्नान, संध्योपासना तथा अग्रिहोत्र करके मेरे पास बैठकर पुत्रशोक के भय से पीड़ित हुए मुझ बूढ़े को सान्त्वना देता हुआ मेरी सेवा करेगा? अब कौन ऐसा है, जो कन्द, मूल और फल लाकर मुझ अकर्मण्य, अन्नसंग्रह से रहित और अनाथ को प्रिय अतिथि की भाँति भोजन करायेगा।'

'बेटा! तुम्हारी यह तपस्विनी माता अन्धी, बूढी, दीन तथा पुत्र के लिये उत्कण्ठित रहने वाली है मैं स्वयं अन्धा होकर इसका भरण-पोषण कैसे करूँगा? पुत्र! ठहरो, आज यमराज के घर न जाओ। कल मेरे और अपनी माता के साथ चलना। हम दोनों शोक से आर्त, अनाथ और दीन हैं। तुम्हारे न रहने पर हम शीघ्र ही यमलोक की राह लेंगे। तदनन्तर सूर्यपुत्र यमराज का दर्शन करके मैं उनसे यह बात कहूंगा - हे धर्मराज! मेरे अपराध को क्षमा करें और मेरे पुत्रको छोड़ दें, जिससे यह अपने माता-पिताका भरण-पोषण कर सके। ये धर्मात्मा हैं, महायशस्वी लोकपाल हैं। मुझ जैसे अनाथ को वह एक बार अभय दान दे सकते हैं। बेटा! तुम निष्पाप हो, किंतु एक पापकर्मा क्षत्रिय ने तुम्हारा वध किया है, इस कारण मेरे सत्य के प्रभावसे तुम शीघ्र ही उन लोकों में जाओ, जो अस्त्रयोधी शूरवीरों को प्राप्त होते हैं। बेटा! युद्ध में पीठ न दिखाने वाले शूरवीर सम्मुख युद्ध में मारे जानेपर जिस गति को प्राप्त होते हैं, उसी उत्तम गति को तुम भी जाओ।' 

‘वत्स! राजा सगर, शिबि, दिलीप, जनमेजय, नहुष और धुन्धुमार जिस गति को प्राप्त हुए हैं, वही तुम्हें भी मिले। स्वाध्याय और तपस्यासे समस्त प्राणियों के आश्रय भूत जिस परब्रह्म की प्राप्ति होती है, वही तुम्हें भी प्राप्त हो । वत्स! भूमि दाता, अग्निहोत्री, एक पत्नीव्रती, एक हजार गौओं का दान करनेवाले, गुरु की सेवा करनेवाले तथा महाप्रस्थान आदि के द्वारा देहत्याग करनेवाले पुरुषों को जो गति मिलती है, वही तुम्हें भी प्राप्त हो।' 

'हम-जैसे तपस्वियों के इस कुल में पैदा हुआ कोई पुरुष बुरी गति को नहीं प्राप्त हो सकता। बुरी गति तो उसकी होगी, जिसने मेरे बान्धवरूप तुम्हें अकारण मारा है ?'

'इस प्रकार वे दीनभाव से बारम्बार विलाप करने लगे। तत्पश्चात् अपनी पत्नी के साथ वे पुत्र को जलाञ्जलि देने के कार्य में प्रवृत्त हुए। इसी समय वह धर्मज्ञ श्रवण कुमार अपने पुण्य कर्मों के प्रभाव से दिव्य रूप धारण करके शीघ्र ही इन्द्र के साथ स्वर्ग को जाने लगा।' 

इन्द्र सहित उस तपस्वी ने अपने दोनों बूढ़े पिता-माता को एक मुहूर्त तक आश्वासन देते हुए उनसे बातचीत की; फिर वह अपने पिता से बोला - मैं आप दोनों की सेवा से महान् स्थान को प्राप्त हुआ हूँ, अब आप लोग भी शीघ्र ही मेरे पास आ जाइयेगा। यह कहकर वह जितेन्द्रिय मुनिकुमार उस सुन्दर आकार वाले दिव्य विमान से शीघ्र ही देवलोक को चला गया। 

तदनन्तर पत्नी सहित उन महातेजस्वी तपस्वी मुनि ने तुरंत ही पुत्र को जलाञ्जलि देकर हाथ जोड़े खड़े हुए दशरथ से कहा - राजन्! तुम आज ही मुझे भी मार डालो; अब मरने में मुझे कष्ट नहीं होगा। मेरे एक ही पुत्र था, जिसे तुमने अपने बाण का निशाना बनाकर मुझे पुत्रहीन कर दिया। तुमने अज्ञानवश जो मेरे बालक की हत्या की है, उसके कारण मैं तुम्हें भी अत्यन्त भयंकर एवं भलीभाँति दुःख देने वाला शाप दूंगा। राजन्! इस समय पुत्र के वियोग से मुझे जैसा कष्ट हो रहा है, ऐसा ही तुम्हें भी होगा। तुम भी पुत्र शोक से ही काल के गाल में जाओगे। 

नरेश्वर! क्षत्रिय होकर अनजान में तुमने वैश्य जातीय मुनि का वध किया है, इसलिये शीघ्र ही तुम्हें ब्रह्म हत्या का पाप तो नहीं लगेगा तथापि जल्दी ही तुम्हें भी ऐसी ही भयानक और प्राण लेने वाली अवस्था प्राप्त होगी। ठीक उसी तरह, जैसे दक्षिणा देनेवाले दाता को उसके अनुरूप फल प्राप्त होता है। 

इस प्रकार दशरथ को शाप देकर वे बहुत देर तक करुणा जनक विलाप करते रहे; फिर वे दोनों पति-पत्नी अपने शरीरों को जलती हुई चिता में डालकर स्वर्ग को चले गये।    

इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-४१(41) समाप्त !

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