अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन ! राजा मरुत्त को जीतने के पश्चात् राक्षसराज दशग्रीव क्रमश: अन्य नरेशों के नगरों में भी युद्ध की इच्छा से गया। महेन्द्र और वरुण के समान पराक्रमी उन महाराजों के पास जाकर वह राक्षसराज उनसे कहता - राजाओ! तुम मेरे साथ युद्ध करो अथवा यह कह दो कि 'हम हार गये।' यही मेरा अच्छी तरह किया हुआ निश्चय है। इसके विपरीत करने से तुम्हें छुटकारा नहीं मिलेगा।
तब निर्भय, बुद्धिमान् तथा धर्मपूर्ण विचार रखने वाले बहुत से महाबली राजा परस्पर सलाह करके शत्रु की प्रबलता को समझकर बोले - राक्षसराज ! हम तुमसे हार मान लेते हैं। दुष्यन्त, सुरथ, गाधि, गय, राजा पुरूरवा - इन सभी भूपालों ने अपने-अपने राजत्वकाल में रावण के सामने अपनी पराजय स्वीकार कर ली।
इसके बाद राक्षसों का राजा रावण इन्द्र द्वारा सुरक्षित अमरावती की भाँति महाराज अनरण्य द्वारा पालित अयोध्यापुरी में आया। वहाँ पुरन्दर (इन्द्र) के समान पराक्रमी पुरुषसिंह राजा अनरण्य से मिलकर बोला - राजन् ! तुम मुझसे युद्ध करने का वचन दो अथवा कह दो कि 'मैं हार गया।' यही मेरा आदेश है।'
उस पापात्मा की वह बात सुनकर अयोध्या नरेश अनरण्य को बड़ा क्रोध हुआ और वे उस राक्षसराज से बोले - निशाचरपते! मैं तुम्हें द्वन्द्वयुद्ध का अवसर देता हूँ। ठहरो, शीघ्र युद्ध के लिये तैयार हो जाओ। मैं भी तैयार हो रहा हूँ।
'राजा ने रावण की दिग्विजय की बात पहले से ही सुन रखी थी, इसलिये उन्होंने बहुत बड़ी सेना इकट्ठी कर ली थी। नरेश की वह सारी सेना उस समय राक्षस के वध के लिये उत्साहित हो नगर से बाहर निकली। नरश्रेष्ठ श्रीराम ! दस हजार हाथी सवार, एक लाख घुड़सवार, कई हजार रथी और पैदल सैनिक पृथ्वी को आच्छादित करके युद्ध के लिये आगे बढ़े। रथों और पैदलों सहित सारी सेना रणक्षेत्र में जा पहुँची।'
'युद्धविशारद रघुवीर! फिर तो राजा अनरण्य और निशाचर रावण में बड़ा अद्भुत संग्राम होने लगा। उस समय राजा की सारी सेना रावण की सेना के साथ टक्कर लेकर उसी तरह नष्ट होने लगी, जैसे अग्नि में दी हुई आहुति पूर्णत: भस्म हो जाती है। उस सेना ने बहुत देर तक युद्ध किया, बड़ा पराक्रम दिखाया; परंतु तेजस्वी रावण का सामना करके वह बहुत थोड़ी संख्या में शेष रह गयी और अन्ततोगत्वा जैसे पतिङ्गे आग में जलकर भस्म हो जाते हैं, उसी प्रकार काल के गाल में चली गयी।'
'राजा ने देखा, मेरी विशाल सेना उसी प्रकार नष्ट होती चली जा रही है, जैसे जल से भरी हुई सैकड़ों नदियाँ महासागर के पास पहुँचकर उसी में विलीन हो जाती हैं। तब महाराज अनरण्य क्रोध से मूर्च्छित हो अपने इन्द्रधनुष के समान महान् शरासन को टंकारते हुए रावण का सामना करने के लिये आये।'
'फिर तो जैसे सिंह को देखकर मृग भाग जाते हैं, उसी प्रकार मारीच, शुक, सारण तथा प्रहस्त – ये चारों राक्षस मन्त्री राजा अनरण्य से परास्त होकर भाग खड़े हुए। तत्पश्चात् इक्ष्वाकुवंश को आनन्दित करनेवाले राजा अनरण्य ने राक्षसराज रावण के मस्तक पर आठ सौ बाण मारे। परंतु जैसे बादलों से पर्वत शिखर पर गिरती हुई जलधाराएँ उसे क्षति नहीं पहुँचातीं, उसी प्रकार वे बरसते हुए बाण उस निशाचर के शरीर पर कहीं घाव न कर सके।'
'इसके बाद राक्षसराज ने कुपित होकर राजा के मस्तक पर एक तमाचा मारा। इससे आहत होकर राजा रथ से नीचे गिर पड़े। जैसे वन में वज्रपात से दग्ध हुआ साखू का वृक्ष धराशायी हो जाता है, उसी प्रकार राजा अनरण्य व्याकुल हो भूमि पर गिरे और थर-थर काँपने लगे।'
यह देख रावण जोर-जोर से हँस पड़ा और उन इक्ष्वाकुवंशी नरेश से बोला - इस समय मेरे साथ युद्ध करके तुमने क्या फल प्राप्त किया है? नरेश्वर! तीनों लोकों में कोई ऐसा वीर नहीं है, जो मुझे द्वन्द्वयुद्ध दे सके। जान पड़ता है तुमने भोगों में अधिक आसक्त रहने के कारण मेरे बल पराक्रम को नहीं सुना था।
राजा की प्राण शक्ति क्षीण हो रही थी। उन्होंने इस प्रकार बातें करनेवाले रावण का वचन सुनकर कहा - राक्षसराज ! अब यहाँ क्या किया जा सकता है? क्योंकि काल का उल्लङ्घन करना अत्यन्त दुष्कर है। राक्षस! तू अपने मुँह से अपनी प्रशंसा कर रहा है; किंतु तूने जो आज मुझे पराजित किया है, इसमें काल ही कारण है। वास्तव में काल ने ही मुझे मारा है। तू तो मेरी मृत्यु में निमित्त मात्र बन गया है।
'मेरे प्राण जा रहे हैं, अत: इस समय मैं क्या कर सकता हूँ? निशाचर! मुझे संतोष है कि मैंने युद्ध से मुँह नहीं मोड़ा। युद्ध करता हुआ ही मैं तेरे हाथ से मारा गया हूँ। परंतु राक्षस! तूने अपने व्यङ्ग्यपूर्ण वचन से इक्ष्वाकु कुल का अपमान किया है, इसलिये मैं तुझे शाप दूंगा – तेरे लिये अमङ्गलजनक बात कहूँगा। यदि मैंने दान, पुण्य, होम और तप किये हों, यदि मेरे द्वारा धर्म के अनुसार प्रजाजनों का ठीक-ठीक पालन हुआ हो तो मेरी बात सत्य होकर रहे।'
‘महात्मा इक्ष्वाकुवंशी नरेशों के इस वंश में ही दशरथनन्दन श्रीराम प्रकट होंगे, जो तेरे प्राणों का अपहरण करेंगे। राजा के इस प्रकार शाप देते ही मेघ के समान गम्भीर स्वर में देवताओं की दुन्दुभि बज उठी और आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। राजाधिराज श्रीराम ! तदनन्तर राजा अनरण्य स्वर्गलोक को सिधारे। उनके स्वर्गगामी हो जाने पर राक्षस रावण वहाँ से अन्यत्र चला गया।
इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-४०(40) समाप्त !
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