भाग-४०(40) मुनि वशिष्ठ ने बताया श्रवण कुमार को उसके माता पिता के अंधे होने का कारण

 


सूतजी कहते हैं - ऋषिगणों ! अंधे माता पिता का एकमात्र सहारा बना श्रवण कुमार बाल्यकाल में अपने पिता से उचित शिक्षा प्राप्त करता है। अपने पिता की भांति श्रवण कुमार भी वेद-शास्त्रों का ज्ञाता होता है। अब श्रवण कुमार बालक से युवा हो चूका था। एक दिन हरिद्वार में देश-विदेश के पंडितों और ज्ञानियों की सभा का आयोजन किया जाता है जिसमे श्रवण कुमार के पिता ऋषि शांतनु को भी आमंत्रित किया जाता है। किन्तु स्वास्थ्य ठीक नहीं होने के कारण वे अपने पुत्र को उस सभा में भेज देते हैं। 

सभा में आये हुए सभी पंडित इस बात पर गहरी आपत्ति प्रकट करते हैं कि श्रवण कुमार अभी बालक है। उसके पिता ने जानबूझकर सभा के सभी पंडितों को अपमानित करने के लिए ही इस बालक को भेजा है। तब श्रवण कुमार उन सभी से विनती करता हैं और कहता है - हे सभासदों ! मेरे पिता का स्वास्थ्य ठीक नहीं था और वे सभा में आने का वचन दे चुके थे इसलिए उन्होंने मुझे यहाँ भेज दिया। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मेरे यहाँ उपस्थित होने से सभा का किसी प्रकार कोई अपमान नहीं होगा। 

श्रवण कुमार की बात सुनकर एक पंडित ने कहा - मुर्ख बालक ! हम जैसे ज्ञानी पंडितों कि सभा में आकर तू हमारा लगातार अपमान कर रहा है। क्या तू और तेरा पिता यह प्रमाणित करना चाहते हैं कि तुम हम सभी के समान विद्वान् और ज्ञानी हो। यदि ऐसा है तो मैं सभा में आये सभी विद्वानों से निवेदन करता हूँ कि हमारी सभा में किसी भी वाद-विवाद या परामर्श में भागीदार बनाने से पहले इसकी परीक्षा लेनी चाहिए। यदि यह सफल हो तभी यह सब के मध्य बैठने योग्य होगा और यदि यह असफल हो तो इसे और इसके पिता को पंडित समाज से बहिष्कृत कर देना चाहिये। 

उस पंडित के द्वारा दिए गए अनुमोदन को सभा स्वीकार कर लेती है। तब वे श्रवण कुमार की परीक्षा लेने के उद्देश्य से उससे एक प्रश्न करते हैं - यदि तुम अपने आप को हमारे सामने बैठने योग्य मानते हो तो यह बताओ कि तुम्हे ऐसा कौन-सा गुप्त मंत्र आता है जो चमत्कारी हो तथा उसे प्रमाणित भी करो।

श्रवण कुमार कहता है - मुझे तो केवल एक ही चमत्कारी मंत्र आता है, जो मेरी दृष्टि में सर्वश्रेष्ठ है और वह मंत्र है 'मातृदेवो भवः पितृदेवो भवः।'

श्रवण कुमार के इस मंत्र को सुनकर सम्पूर्ण सभा उसका उपहास उड़ाती है। एक पंडित ने उपहास में कहा - अरे बालक ! क्या तू हमे अपने समान जड़बुद्धि समझता है जो हुमारे सामने एक ऐसे मनगढंत मंत्र को सुना रहा है जिसका वेदों में कहीं अस्तित्व नहीं है। जरा बता तो सही यह मंत्र कौनसे शास्त्र में पढ़ा है तूने। जरा इसका चमत्कार तो दिखा तभी हम सब इस मंत्र की सार्थकता को स्वीकार करेंगे। 

दूसरे पंडित ने कहा - यदि तेरे इस मंत्र में बहुत शक्ति है तो इस घाट पर बंधी गौ के मुख से यह मंत्र बुलवाकर दिखाओ अन्यथा अपने पिता और स्वयं की पराजय स्वीकार करो। 

श्रवण कुमार मन ही मन श्रीभगवान का स्मरण करता है - हे! जगतपालक प्रभु! हे सर्वेश्वर! हे दीनदुखियों के रक्षक! इस संसार में जब से मैंने होश संभाला है तब से आज तक मैंने अपने माता-पिता में आपका वास देखा है। उनकी सेवा करना ही मेरा परम धर्म है। हे दयानिधान ! यदि मैंने सच्चे हृदय से अपने माता पिता की सेवा की हो, यदि मेरी सेवा में कभी कोई खोट नहीं रहा तो आप मेरी और माता-पिता की लाज रखिये। 

'इसके बाद श्रवण कुमार अपने दिव्य मंत्र 'मातृदेवो भवः पितृदेवो भवः' का उच्चारण करता है। कुछ समय पश्चात वह चमत्कार होता है जिसे देखकर सभी हतप्रभ हो जाते हैं। मंत्र की शक्ति से गौ के मुख से 'मातृदेवो भवः पितृदेवो भवः' का उच्चारण होने लगता है। श्रवण कुमार के द्वारा किये इस अद्भुत चमत्कार को देखकर सभा में आये सभी पंडित उसकी जयकार करते हैं तथा अपने द्वारा किये अपमान की श्रवण कुमार से क्षमा माँगते हैं। 

इस पर सरल और सहज हृदय वाला श्रवण कुमार कहता है - आप सभी विद्वान् मेरे पिता तुल्य हैं। मुझसे क्षमा याचना कर मुझे पाप का भागी नहीं बनाएं। यह सब प्रभु की कृपा है इसमें मेरा कोई बल नहीं। जो भी प्राणी सच्चे हृदय से उस परमात्मा रूपी माता-पिता की सेवा करता है उसके लिए सभी मार्ग सुलभ हो जाते हैं। 

अब तो श्रवण कुमार की प्रशंसा पुरे नगर में होने लगी। नगर के वैद्य नर्मदा शंकर अपनी पुत्री विद्या का विवाह श्रवण कुमार से करवा देते हैं। विवाह के कुछ माह बीते थे। श्रवण कुमार के माता पिता अपनी पुत्र वधु के सेवा भाव से बेहद प्रसन्न थे। एक दिन बातों ही बातों में विद्या ने अपने पति से पूछा - स्वामी ! मेरी धृष्टता क्षमा करें। मैं आपसे अपनी शंका का समाधान चाहती हूँ, कृपा कर इसे मेरी ढिठाई न समझें। हे प्राणनाथ! हमारे विवाह को छः माह बीत गए किन्तु आपने कभी मुझे यह नहीं बताया कि पूजनीय पिताजी एवं माताजी के अंधे होने का क्या कारण रहा। क्या वे आपके जन्म से पूर्व अंधे थे अथवा जन्म के बाद? 

श्रवण कुमार ने जैसे ही यह प्रश्न सुना तो अचंभित मुद्रा में कुछ देर के लिए मौन रह गया। सामान्य होने पर उसने सोचा की मैंने आज तक इस विषय में कभी क्यों नहीं सोचा। इसका उत्तर वह अपने माता-पिता से पूछने में संकोच कर रहा था क्योंकि उसे यह लगता कि कहीं इससे उन्हें दुःख न पहुंचे। पर अब उसका मन बेचैन हो गया। कारण जानने के लिए वह अयोध्या के कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में अपनी पत्नी सहित पहुँच कर उनसे यही प्रश्न किया। 

तब मुनि वशिष्ठ श्रवण कुमार के बार-बार आग्रह करने पर बोले - हे वत्स! सुनो तुम्हारे माता पिता के अंधे होने का कारण तुम्हारे जन्म से है। फिर मुनि वशिष्ठ ने सारा वृतांत कह डाला। श्रवण कुमार का हृदय जल उठा उसके मन में इस बात की बड़ी भारी पीड़ा उत्पन्न हुई की वहीँ अपने पिता और माता के रंगीन संसार को कालिमा बनाने वाला है। श्रवण कुमार ने मुनि के पैर पकड़े और कहा - गुरुदेव! यदि आपने मुझे शीघ्र ही ऐसा उपाय नहीं बताया जिससे मेरे माता-पिता के नेत्रों की ज्योति किसी भी प्रकार पुनः लौटे तो मैं इस दुःख से कदाचित कभी पार नहीं पाऊँगा। इसकी टीस मुझे बनी रहेगी। 

श्रवण की पीड़ा को समझकर मुनि वशिष्ठ बोले - पुत्र! तुम संसार के लिए एक उदाहरण बनोगे। तुम्हारा हृदय अपने माता पिता के लिए सहज और सरल तथा निःस्वार्थ सेवा का है। किन्तु तुम जो उपाय पूछ रहे हो कदाचित वह किसी भी साधारण मनुष्य के लिए दुष्कर है। विधाता की करनी मिटाना संभव नहीं। जो कुछ भाग्य में लिखा हो उसे भोगना ही पड़ता है। फिर भी तुम्हारे सेवा भाव और मेरा तुम पर अधिक विश्वास होने से मैं तुम्हे उपाय बताता हूँ। या तो तुम उसमे सफल होओगे अथवा आगे विधाता की इच्छा। 

'हे पुत्र ! सुनो तुम्हे अपने माता-पिता को बहँगी में बैठाकर अपने कंधे पर ६८(68) तीर्थों की यात्रा करवानी होगी तथा उन तीर्थों का पवित्र जल एकत्रित करते हुए पुनः अयोध्या में लौट कर भगवान शंकर के मंदिर में उस जल को चढ़ाओ। तत्पश्चात उसी जल को अपने माता-पिता के नेत्रों से स्पर्श करा दो तो संभव है की उनकी नेत्र ज्योति लौट आये।'

'मुनि वशिष्ठ से उपाय जानकर श्रवण कुमार अत्यंत प्रसन्न हुआ, उसका उत्साह कहा नहीं जाता फिर भी यदि कहूं तो वह ऐसा था जैसे उसने सफलता प्राप्त कर ली हो। मुनि से आशीर्वाद लेकर श्रवण कुमार अपने माता पिता को तीर्थ करने की तैयारी में लग गया। उसने किसी प्रकार अपनी पत्नी को साथ लेकर माता-पिता को तीर्थ यात्रा के लिए मना लिया।'     

इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-४०(40) समाप्त !

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