सूतजी बोले - हे मुनिश्रेष्ठ ! भगवान शिव ने श्रीहरि विष्णु से सलाह करके सबसे पहले देवर्षि नारद को हिमालय के पास भेजा, वहां पहुंचकर नारदजी ने विश्वकर्मा के बनाए दिव्य और अनोखे मंडप को देखा तो बहुत आश्चर्यचकित रह गए। विश्वकर्मा द्वारा बनाई गई विष्णु, ब्रह्मा, समस्त देवताओं की मूर्तियों को देखकर यह कह पाना कठिन था कि ये असली हैं या नकली। वहां रत्नों से जड़े हुए लाखों कलश रखे थे। बड़े-बड़े केलों के खंभों से मण्डप सजा हुआ था।'
'देवर्षि को वहां आया देखकर शैलराज हिमालय ने उनसे पूछा कि देवर्षि क्या भगवान शिव बारात के साथ आ गए हैं? तब नारदजी को साथ लेकर हिमालय के पुत्र मैनाक आदि उनके साथ बारात की अगवानी के लिए आए। तब ब्रह्माजी और विष्णुजी ने भी नारद से वहां के समाचार के बारे में पूछा - शैलराज हिमालय अपनी पुत्री पार्वती का विवाह भगवान शिव से करने के इच्छुक हैं या नहीं? कहीं उन्होंने अपना मानस बदल तो नहीं दिया है। यह प्रश्न सुनकर नारदजी ब्रह्माजी, विष्णुजी और देवराज इंद्र को एकांत स्थान पर ले गए और वहां जाकर देवर्षि ने वहां के बारे में बताना शुरू किया।'
नारदजी ने कहा कि हे देवताओ! शैलराज हिमालय ने शिल्पी विश्वकर्मा से एक ऐसे मंडप की रचना करवाई है जिसमें आप सब देवताओं के जीते-जागते चित्र लगे हुए हैं। उन्हें देखकर मैं तो अपनी सुध-बुध ही खो बैठा था। इसे देखकर मुझे यह लगता है कि गिरिराज आप सब लोगों को मोहित करना चाहते हैं। यह सुनकर देवराज इंद्र भय के मारे कापने लगे और बोले- हे लक्ष्मीपति विष्णुजी ! मैंने त्वष्टा के पुत्र को मार दिया था। कहीं उसी का बदला लेने के लिए मुझ पर विपत्ति न आ जाए। मुझे संदेह हो रहा है कि कहीं मैं वहां जाकर मारा न जाऊं।
तब इंद्र के वचन सुनकर श्रीहरि विष्णु बोले कि - इंद्र! मुझे भी यही लगता है कि वह मूर्ख हिमालय हमसे बदला लेना चाहता है क्योंकि मेरी आज्ञा से ही तुमने पर्वतों के पंखों को काट दिया था। शायद यह बात आज तक उन्हें याद है और वे हम सब पर विजय पाना चाहते हैं, परंतु हमें भयभीत नहीं होना चाहिए। हमारे साथ तो स्वयं महादेव जी हैं, भला फिर हमें कैसा भय?
उन सब को इस प्रकार गुप-चुप बातें करते देखकर भगवान शिव ने लौकिक गति से उनसे बात की और पूछा- हे देवताओं! क्या बात है? मुझे स्पष्ट बता दो। शैलराज हिमालय मुझसे अपनी पुत्री पार्वती का विवाह करना चाहते हैं या नहीं? इस प्रकार यहां व्यर्थ बातें करते रहने से भला क्या लाभ?
भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर नारद बोले - हे देवाधिदेव! शिवजी। गिरिजानंदिनी पार्वती से आपका विवाह तो निश्चित है। उसमें भला कोई विघ्न-बाधा कैसे आ सकती है? तभी तो शैलराज हिमालय ने अपने पुत्रों मैनाक आदि को मेरे साथ बारात की अगवानी के लिए यहां भेजा है। मेरी चिंता का कारण दूसरा है।
'प्रभु! आपने मुझे हिमालय के यहां बारात के आगमन की सूचना देने के लिए भेजा था। जब मैं वहां पहुंचा तो मैंने विश्वकर्मा द्वारा बनाए गए मंडप को देखा। शैलराज हिमालय ने देवताओं को मोहित करने के लिए एक अद्भुत और दिव्य मंडप की रचना कराई है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वे सब इतने जीवंत हैं कि कोई भी उन्हें देखकर मोहित हुए बगैर नहीं रह सकता। उन चित्रों को देखकर ऐसा महसूस होता है कि वे अभी बोल पड़ेंगे। प्रभु ! उस मंडप में श्रीहरि, ब्रह्माजी, देवराज इंद्र सहित सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों सहित अनेक जानवरों और पशु-पक्षियों के सुंदर व लुभावने चित्र बनाए गए हैं। यही नहीं, मंडप में आपकी और मेरी भी प्रतिमूर्ति बनी है, जिन्हें देखकर मुझे यह लगा कि आप सब लोग यहां न होकर वहीं हिमालय नगरी में पहुंच गए हैं।
नारदजी की बातें सुनकर भगवान शिव मुस्कुराए और देवताओं से बोले - आप सभी को भय की कोई आवश्यकता नहीं है। शैलराज हिमालय अपनी प्रिय पुत्री पार्वती हमें समर्पित कर रहे हैं। इसलिए उनकी माया हमारा क्या बिगाड़ सकती है? आप अपने भय को त्यागकर हिमालय नगरी की ओर प्रस्थान कीजिए। भगवान शिव की आज्ञा पाकर सभी बाराती भयमुक्त होकर उत्साह और प्रसन्नता के साथ पुनः नाचते-गाते शिव बारात में चल दिए। शैलराज हिमालय के पुत्र मैनाक आगे-आगे चल रहे थे और बाकी सभी उनका अनुसरण कर उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। इस प्रकार बारात हिमालयपुरी जा पहुंची।
'शिव अपनी विशाल बारात के साथ हिमालय पुत्रों के पीछे चलकर हिमालय नगरी पहुंच गए। जब गिरिराज हिमालय ने उनके आगमन का समाचार सुना तो वे प्रसन्नतापूर्वक, भक्ति से ओत-प्रोत होकर भगवान शिव के दर्शनों के लिए स्वयं आए । हिमालय का हृदय प्रेम की अधिकता के कारण द्रवित हो उठा था और वे अपने भाग्य को सराह रहे थे। हिमालय अपने साथी पर्वतों को साथ लेकर बारात की अगवानी के लिए पहुंचे। भगवान शंकर की बारात देखकर शैलराज हिमालय आश्चर्यचकित रह गए। तत्पश्चात देवता और पर्वत प्रसन्नतापूर्वक इस प्रकार एक-दूसरे के गले लगे मानो पूर्व और पश्चिम के समुद्रों का मिलन हो रहा हो। सभी अपने को धन्य मान रहे थे। इसके बाद शैलराज महादेव जी के पास पहुंचे और दोनों हाथ जोड़कर उनको प्रणाम करके स्तुति करने लगे। सभी पर्वतों और ब्राह्मणों ने भी शिवजी की वंदना की। शिवजी अपने वाहन बैल पर बैठे थे।'
'भगवान शिव आभूषणों से विभूषित थे तथा दिव्य प्रकाश से आलोकित थे। उनके लावण्य से सारी दिशाएं प्रकाशित हो रही थीं। भगवान शिव के मस्तक पर रत्नों से जड़ा हुआ मुकुट शोभा पा रहा था। उनके गले और अन्य अंगों पर लिपटे सर्प उनके स्वरूप को अद्भुत और शोभनीय बना रहे थे। उनकी अंगकांति दिव्य और अलौकिक थी। अनेक शिवगण हाथ में चंवर लेकर उनकी सेवा कर रहे थे। उनके बाएं भाग में भगवान श्रीहरि विष्णु और दाएं भाग में ब्रह्माजी थे। समस्त देवता भगवान शिव की स्तुति कर रहे थे।'
'भगवान शिव परमब्रह्म परमात्मा हैं। वे ही सबके ईश्वर हैं। वे इस जगत का कल्याण करते हैं और अपने भक्तों की सभी इच्छाओं को पूरा कर उन्हें मनवांछित फल प्रदान करते हैं। वे सदा ही अपने भक्तों के अधीन रहते हैं। वे सच्चिदानंद स्वरूप हैं और सर्वेश्वर हैं। उनके बाएं भाग में श्रीहरि विष्णु गरुड़ पर बैठे थे तो दाएं भाग में ब्रह्माजी स्थित थे। उन तीनों के स्वरूप का एक साथ दर्शन कर गिरिराज आनंदमग्न हो गए।'
'तत्पश्चात शैलराज ने शिवजी के पीछे तथा उनके आस-पास खड़े सभी देवताओं के सामने अपना मस्तक झुकाया और सभी को बारंबार प्रणाम किया। फिर भगवान शिव की आज्ञा लेकर, शैलराज हिमालय अपने निवास की ओर चल दिए और वहां जाकर उन्होंने सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों एवं अन्य बारातियों के ठहरने की उत्तम व्यवस्था की।'
'हिमालय ने प्रसन्नतापूर्वक अपने पुत्रों को बुलाकर कहा कि तुम सभी भगवान शिव के पास जाकर उनसे प्रार्थना करो कि वे स्वयं अतिशीघ्र यहां पधारें। मैं उन्हें अपने भाई-बंधुओं से मिलवाना चाहता हूं। तुम वहां जाकर कहो कि मैं उनकी यहां प्रतीक्षा कर रहा हूं। अपने पिता गिरिराज हिमालय की आज्ञा पाकर उनके पुत्र उस ओर चल दिए जहां बारात के ठहरने की व्यवस्था की गई थी।'
वहां वे भगवान शिव के पास पहुंचे। प्रणाम करके उन्होंने अपने पिता द्वारा कही हुई सभी बातों से शिवजी को अवगत करा दिया। तब भगवान शंकर ने कहा कि तुम जाकर अपने पिता से कहो कि हम शीघ्र ही वहां पहुंच रहे हैं। शिवजी से आज्ञा लेकर हिमालय के पुत्र वापस चले गए। तत्पश्चात देवताओं ने तैयार होकर गिरिराज हिमालय के घर की ओर प्रस्थान किया। महादेव जी के साथ भगवान विष्णु और ब्रह्माजी शीघ्रतापूर्वक चलने लगे।'
'तभी देवी पार्वती की माता देवी मैना के मन में त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को देखने की इच्छा हुई। इसलिए देवी मैना ने नारदजी को संदेशा भेजकर अपने पास बुलवा लिया। भगवान शिव से प्रेरित होकर देवी मैना की हार्दिक इच्छा को पूरा करने के लिए देवर्षि वहां गए।'
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