भाग-४(4) ध्रुव की तपस्या से प्रसन्न हुए भगवान का आविर्भाव और उसे ध्रुवपद – दान

 


सूतजी बोले - भगवान के कहने पर इंद्र आदि समस्त देवगण उन्हें प्रणाम कर अपने-अपने स्थानों को गये। सर्वात्मा भगवान हरि ने भी ध्रुव की तन्म्यता से प्रसन्न हो उसके निकट चतुर्भुज रूप में प्रकट हो इस प्रकार कहा। 

श्रीभगवान बोले – हे उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ! तेरा कल्याण हो। मैं तेरी तपस्या से प्रसन्न होकर तुझे वर देने के लिये प्रकट हुआ हूँ, हे सुव्रत ! तू वर माँग। तूने सम्पूर्ण बाह्य विषयों से उपर होकर अपने चित्त को मुझ में ही लगा दिया। अत: मैं तुझसे अति संतुष्ट हूँ। अब तू अपनी इच्छानुसार श्रेष्ठ वर माँग। 

सूतजी बोले – श्रीभगवान के ऐसे वचन सुनकर बालक ध्रुव ने आँखे खोली और अपनी ध्यानावस्था में देखे हुए भगवान हरि को साक्षात अपने सम्मुख खड़े देखा। श्रीअच्युत को किरीट तथा शंख, चक्र, गदा, शारंग धनुष और खड्ग धारण किये देख उसने पृथ्वीपर सिर रखकर प्रणाम किया और सहसा रोमांचित तथा परम भयभीत होकर उसने भगवान की स्तुति करने की इच्छा की। किन्तु इनकी स्तुति के लिये मैं क्या कहूँ? क्या कहने से वह चिंता से व्याकुल हो गया और अंत में उसने उन भगवान की ही शरण ली। 

ध्रुव ने कहा – भगवन ! आप यदि मेरी तपस्या से संतुष्ट है तो मैं आपकी स्तुति करना चाहता हूँ, आप मुझे यही वर दीजिये। 

सूतजी बोले – हे ऋषियों! तब जगत्पति श्रीगोविंद ने अपने सामने हाथ जोड़े खड़े हुए उस उत्तानपाद के पुत्र को अपने (वेदमय) शब्द के अंत (वेदान्तमय) भाग से छू दिया। तब तो एक क्षण में ही वह राजकुमार प्रसन्न-मुख से अति विनीत हो सर्वभूताधिष्ठान श्रीअच्युत की स्तुति करने लगा। 

स्तुति 

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । भूतादिरादिप्रकृतिर्यस्य रूपं नतोऽस्मि तम् ॥ १ 

शुद्धः सूक्ष्मोऽखिलव्यापी प्रधानात्परतः पुमान्। यस्य रूपं नमस्तस्मै पुरुषाय गुणाशिने ॥ २ 

भूरादीनां समस्तानां गन्धादीनां च शाश्वतः । बुद्ध्यादीनां प्रधानस्य पुरुषस्य च यः परः ॥ ३ 

तं ब्रह्मभूतमात्मानमशेषजगतः पतिम् । प्रपद्ये शरणं शुद्धं त्वद्रूपं परमेश्वर ॥ ४ 

बृहत्त्वाद्बृंहणत्वाच्च यद्रूपं ब्रह्मसंज्ञितम् । तस्मै नमस्ते सर्वात्मन्योगिचिन्त्याविकारिणे ॥ ५ 

सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। सर्वव्यापी भुवः स्पर्शादत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्॥ ६

यद्भूतं यच्च वै भव्यं पुरुषोत्तम तद्भवान्। त्वत्तो विराट् स्वराट् सम्राट् त्वत्तश्चाप्यधिपूरुषः ॥ ७ 

अत्यरिच्यत सोऽधश्च तिर्यगूर्ध्वं च वै भुवः । त्वत्तो विश्वमिदं जातं त्वत्तो भूतभविष्यती ॥ ८ 

त्वद्रूपधारिणश्चान्तर्भूतं सर्वमिदं जगत् । त्वत्तो यज्ञः सर्वहुतः पृषदाज्यं पशुर्द्विधा ॥ ९ 

त्वत्तः ऋचोऽथ सामानि त्वत्तश्छन्दांसि जज्ञिरे । त्वत्तो यजूंष्यजायन्त त्वत्तोऽश्वाश्चैकतो दतः ॥ १० 

गावस्त्वत्तः समुद्भूतास्त्वत्तोऽजा अवयो मृगाः । त्वन्मुखाद्ब्राह्मणास्त्वत्तो बाहोः क्षत्रमजायत ॥ ११ 

वैश्यास्तवोरुजाः शूद्रास्तव पद्भ्यां समुद्गताः । अक्ष्णोः सूर्योऽनिलः प्राणाच्चन्द्रमा मनसस्तव ॥ १२  

प्राणोऽन्तः सुषिराज्जातो मुखादग्निरजायत । नाभितो गगनं द्यौश्च शिरसः समवर्तत ॥ १३  

दिशः श्रोत्रात्क्षितिः पद्भ्यां त्वत्तः सर्वमभूदिदम् ॥ १४ 

न्यग्रोधः सुमहानल्पे यथा बीजे व्यवस्थितः । विश्वमखिलं बीजभूते तथा त्वयि ॥ १५ 

बीजादङ्कुरसम्भूतो न्यग्रोधस्तु समुत्थितः । विस्तारं च यथा याति त्वत्तः सृष्टौ तथा जगत् ॥ १६  

यथा हि कदली नान्या त्वक्पत्रादपि दृश्यते । एवं विश्वस्य नान्यस्त्वं त्वत्स्थायीश्वर दृश्यते ॥ १७  

ह्लादिनी सन्धिनी संवित्त्वय्येका सर्वसंस्थितौ । ह्लादतापकरी मिश्रा त्वयि नो गुणवर्जिते ॥ १८ 

पृथग्भूतैकभूताय भूतभूताय ते नमः । प्रभूतभूतभूताय तुभ्यं भूतात्मने नमः ॥ १९  

व्यक्तं प्रधानपुरुषौ विराट् सम्राट् स्वराट् तथा । विभाव्यतेऽन्तःकरणे पुरुषेष्वक्षयो भवान् ॥ २० 

सर्वस्मिन्सर्वभूतस्त्वं सर्वः सर्वस्वरूपधृक् ।सर्वं त्वत्तस्ततश्च त्वं नमः सर्वात्मनेऽस्तु ते ॥ २१

सर्वात्मकोऽसि सर्वेश सर्वभूतस्थितो यतः । कथयामि ततः किं ते सर्वं वेत्सि हृदि स्थितम् ॥ २२ 

सर्वात्मन्सर्वभूतेश सर्वसत्त्वसमुद्भव ।सर्वभूतो भवान्वेत्ति सर्वसत्त्वमनोरथम् ॥ २३ 

यो मे मनोरथो नाथ सफलः स त्वया कृतः । तपश्च तप्तं सफलं यद्दृष्टोऽसि जगत्पते ॥ २४

अर्थात 

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार और मूल प्रकृति – ये सब जिनके रूप हैं उन भगवान्‌ को मैं नमस्कार करता हूँ। १   

जो अति शुद्ध, सूक्ष्म, सर्वव्यापक और प्रधान से भी परे हैं, वह पुरुष जिनका रूप है उन गुण-भोक्ता परमपुरुष को मैं नमस्कार करता हूँ। २  

हे परमेश्वर ! पृथ्वी -आदि समस्त भूत, गन्धादि उनके गुण, बुद्धि आदि अन्तःकरण-चतुष्टय तथा प्रधान और पुरुष (जीव ) - से भी परे जो सनातन पुरुष हैं, उन आप निखिल ब्रह्माण्ड नायक के ब्रह्म भूत शुद्ध स्वरूप आत्मा की मैं शरण हूँ।  ३-४  

हे सर्वात्मन्! हे योगियों के चिन्तनीय ! व्यापक और वर्धनशील होने के कारण आपका जो ब्रह्म नामक स्वरूप है, उस विकार रहित रूप को मैं नमस्कार करता हूँ। ५  

हे प्रभो! आप हजारों मस्तकों वाले, हजारों नेत्रों वाले और हजारों चरणों वाले परमपुरुष हैं, आप सर्वत्र व्याप्त हैं और [पृथ्वी आदि आवरणों के सहित] सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को व्याप्त कर दस गुण महाप्रमाण से स्थित हैं। ६  

हे पुरुषोत्तम ! भूत और भविष्यत् जो कुछ पदार्थ हैं वे सब आप ही हैं तथा विराट्, स्वराट्, सम्राट् और अधिपुरुष (ब्रह्मा) आदि भी सब आप ही से उत्पन्न हुए हैं। ७  

वे ही आप इस पृथ्वी के नीचे-ऊपर और इधर-उधर सब ओर बढ़े हुए हैं। यह सम्पूर्ण जगत् आप ही से उत्पन्न हुआ है तथा आपही से भूत और भविष्यत् हुए हैं। ८  

यह सम्पूर्ण जगत् आपके स्वरूप भूत ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत हैं [ फिर आपके अन्तर्गत होने की तो बात ही क्या है ] जिसमें सभी पुरोडाश का हवन होता है वह यज्ञ, पृषदाज्य (दधि और घृत) तथा [ ग्राम्य और वन्य] दो प्रकार के पशु आप ही से उत्पन्न हुए हैं। ९  

आप ही से ऋक्, साम और गायत्री आदि छन्द प्रकट हुए हैं, आप ही से यजुर्वेद का प्रादुर्भाव हुआ है और आप ही से अश्व तथा एक ओर दाँत वाले महिष आदि जीव उत्पन्न हुए हैं। १०  

आप ही से गौओं, बकरियों, भेड़ों और मृगों की उत्पत्ति हुई है; आप ही के मुख से ब्राह्मण, बाहुओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य और चरणों से शूद्र प्रकट हुए हैं तथा आप ही के नेत्रों से सूर्य, प्राण से वायु, मन से चन्द्रमा, भीतरी छिद्र (नासारन्ध्र) - से प्राण, मुख से अग्नि, नाभि से आकाश, सिर से स्वर्ग, श्रोत्र से दिशाएँ और चरणों से पृथ्वी आदि उत्पन्न हुए हैं; इस प्रकार हे प्रभो ! यह सम्पूर्ण जगत् आप ही से प्रकट हुआ है। ११-१४  

जिस प्रकार नन्हें से बीज में बड़ा भारी वट-वृक्ष रहता है उसी प्रकार प्रलय-कालमें यह सम्पूर्ण जगत् बीज-स्वरूप आप ही में लीन रहता है।  १५

जिस प्रकार बीज से अंकुररूपमें प्रकट हुआ वट-वृक्ष बढ़कर अत्यन्त विस्तार वाला हो जाता है उसी प्रकार सृष्टि काल में यह जगत् आप ही से प्रकट होकर फैल जाता है। १६  

हे ईश्वर ! जिस प्रकार केले का पौधा छिलके और पत्तों से अलग दिखायी नहीं देता उसी प्रकार जगत से आप पृथक् नहीं हैं, वह आप ही में स्थित देखा जाता है। १७  

सबके आधारभूत आपमें ह्लादिनी ( निरन्तर आह्लादित करनेवाली) और सन्धिनी (विच्छेदरहित ) संवित् (विद्याशक्ति) अभिन्नरूप से रहती हैं। आपमें (विषयजन्य ) आह्लाद या ताप देनेवाली (सात्त्विकी या तामसी) अथवा उभयमिश्रा (राजसी) कोई भी संवित् नहीं है, क्योंकि आप निर्गुण हैं। १८  

आप [ कार्यदृष्टिसे ] पृथक् रूप और [कारणदृष्टिसे ] एकरूप हैं। आप ही भूत सूक्ष्म हैं और आप ही नाना जीव रूप हैं। हे भूतान्तरात्मन्! ऐसे आपको मैं नमस्कार करता हूँ। १९  

[योगियोंके द्वारा] अन्तःकरण में आप ही महत्तत्त्व, प्रधान, पुरुष, विराट्, सम्राट् और स्वराट् आदि रूपों से भावना किये जाते हैं और [क्षयशील] पुरुषोंमें आप नित्य अक्षय हैं। २०  

आकाशादि सर्वभूतों में सार अर्थात् उनके गुण रूप आप ही हैं; समस्त रूपों को धारण करनेवाले होने से सब कुछ आप ही हैं; सब कुछ आप ही से हुआ है; अतएव सबके द्वारा आप ही हो रहे हैं इसलिये आप सर्वात्मा को नमस्कार है २१  

हे सर्वेश्वर ! आप सर्वात्मक हैं; क्योंकि सम्पूर्ण भूतों में व्याप्त हैं; अतः मैं आपसे क्या कहूँ? आप स्वयं ही सब हृदयस्थित बातों को जानते हैं। २२ 

हे सर्वात्मन्! हे सर्वभूतेश्वर ! हे सब भूतों के आदि स्थान ! आप सर्वभूतरूप से सभी प्राणियों के मनोरथों को जानते हैं। २३  

हे नाथ! मेरा जो कुछ मनोरथ था वह तो आपने सफल कर दिया और हे जगत पते! मेरी तपस्या भी सफल हो गयी, क्योंकि मुझे आपका साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ। २४ 

श्रीभगवान बोले – हे ध्रुव ! तुमको मेरा साक्षात दर्शन प्राप्त हुआ, इससे अवश्य ही तेरी तपस्या तो सफल हो गयी, परन्तु हे राजकुमार ! मेरा दर्शन भी तो कभी निष्फल नहीं होता। इसलिये तुझको जिस वर की इच्छा हो वह माँग ले। मेरा दर्शन हो जाने पर पुरुष को सभी कुछ प्राप्त हो सकता है। 

ध्रुव बोले – हे भूतभव्येश्वर भगवन ! आप सभी के अंत:करणों में विराजमान है। हे ब्रह्मन ! मेरे मन की जो कुछ अभिलाषा है वह क्या आपसे छिपी हुई है? तो भी, हे देवेश्वर! मैं दुर्विनीत जिस अति दुर्लभ वस्तु की ह्रदय से इच्छा करता हूँ उसे आपकी आज्ञानुसार आपके प्रति निवेदन करूँगा। हे समस्त संसार को रचने वाले परमेश्वर ! आपके प्रसन्न होने पर (संसार में ) क्या दुर्लभ है? इंद्र भी आपके कृपाकटाक्ष के फलरूप से ही त्रिलोकी को भोगते हैं।  

'प्रभो ! मेरी सौतेली माता ने गर्व से अति बढ़-बढकर मुझसे यह कहा था कि ‘जो मेरे उदर से उत्पन्न नही है उसके योग्य यह राजासन नहीं है।' अत: हे प्रभो ! आपके प्रसाद से मैं उस सर्वोत्तम एवं अव्यय स्थान को प्राप्त करना चाहता हूँ जो सम्पूर्ण विश्व का आधारभूत हो। 

श्रीभगवान बोले – अरे बालक! तूने अपने पूर्वजन्म में भी मुझे संतुष्ट किया था, इसलिये तू जिस स्थान की इच्छा करता है उसे अवश्य प्राप्त करेगा। पूर्व-जन्म में तू एक ब्राह्मण था और मुझमें निरंतर एकाग्रचित्त रहनेवाला, माता-पिता का सेवक तथा स्वधर्म का पालन करनेवाला था। कालान्तर में एक राजपुत्र तेरा मित्र हो गया। वह अपनी युवावस्था में सम्पूर्ण भोगों से सम्पन्न और अति दर्शनीय रूपलावण्ययुक्त था। उसके संग से उसके दुर्लभ वैभव को देखकर तेरी ऐसी इच्छा हुई कि ‘मैं भी राजपुत्र होऊँ’।  

'अत: हे ध्रुव ! तुझको अपनी मनोवांछित राजपुत्रता प्राप्त हुई और जिन स्वायम्भुव मनु के कुल में और किसी को स्थान मिलना अति दुर्लभ है, उन्हीं के घर में तूने उत्तानपाद के यहाँ जन्म लिया। अरे बालक ! जिसने तुझे संतुष्ट किया है उसके लिये तो यह अत्यंत तुच्छ है। मेरी आराधना करने से तो मोक्षपद भी तत्काल प्राप्त हो सकता है, फिर जिसका चित्त निरंतर मुझमें ही लगा हुआ है उसके लिये स्वर्गादि लोकों का तो कहना ही क्या है ?'  

'हे ध्रुव ! मेरी कृपासे तू निस्संदेह उस स्थान में, जो त्रिलोकी में सबसे उत्कृष्ट है, सम्पूर्ण ग्रह और तारामंडल का आश्रय बनेगा। हे ध्रुव ! मैं तुझे वह धुव (निश्चल) स्थान देता हूँ जो सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि आदि ग्रहों, सभी नक्षत्रों, सप्तर्षियों और सम्पूर्ण विमानचारी देवगणों से ऊपर है। देवताओं में से कोई तो केवल चार युगतक और कोई एक मन्वन्तर तक ही रहते है; किन्तु तुझे मैं एक कल्पतक की स्थिति देता हूँ। तेरी माता सुनीति भी अति स्वच्छ तारा रूप से उतने ही समय तक तेरे पास एक विमान पर निवास करेगी और जो लोग समाहित चित्त से सायंकाल और प्रात:काल के समय तेरा गुण-कीर्तन करेंगे उनको महान पुण्य प्राप्त होगा। 

सूतजी बोले – हे महामते ! इसप्रकार पूर्वकाल में जगत पति देवाधिदेव भगवान जनार्दन से वर पाकर ध्रुव उस अत्युत्तम स्थान में स्थित हुए। हे मुने ! अपने माता-पिता की धर्मपूर्वक सेवा करने से तथा द्वादशाक्षर मन्त्र के माहात्म्य और तप के प्रभाव से उनके मान, वैभव एवं प्रभाव की वृद्धि देखकर देव और असुरों के आचार्य शुक्रदेव ने ये श्लोक कहे हैं -

श्लोक 

अहोऽस्य तपसो वीर्यमहोऽस्य तपसः फलम्। यदेनं पुरतः कृत्वा ध्रुवं सप्तर्षयः स्थिताः ॥ १  

ध्रुवस्य जननी चेयं सुनीतिर्नाम सूनृता । अस्याश्च महिमानं कः शक्तो वर्णयितुं भुवि ॥ २ 

त्रैलोक्याश्रयतां प्राप्तं परं स्थानं स्थिरायति ।स्थानं प्राप्ता परं धृत्वा या कुक्षिविवरे ध्रुवम् ॥ ३  

यश्चैतत्कीर्त्तयेन्नित्यं ध्रुवस्यारोहणं दिवि । सर्वपापविनिर्मुक्तः स्वर्गलोके महीयते ॥ ४  

स्थानभ्रंशं न चाप्नोति दिवि वा यदि वा भुवि । सर्वकल्याणसंयुक्तो दीर्घकालं स जीवति ॥ ५ 

अर्थात 

‘अहो ! इस ध्रुव के तप का कैसा प्रभाव है ? अहो ! इसकी तपस्याका कैसा अद्भूत फल है जो इस ध्रुव को ही आगे रखकर सप्तर्षिगण स्थित हो रहे है। १  

इसकी यह सुनीति नाम वाली माता भी अवश्य ही सत्य और हितकर वचन बोलने वाली है। संसार में ऐसा कौन है जो इसकी महिमा का वर्णन कर सके? जिसने अपनी कोख में उस ध्रुव को धारण करके त्रिलोकी का आश्रयभूत अति उत्तम स्थान प्राप्त कर लिया, जो भविष्यमें भी स्थिर रहनेवाला है। २-३ 

जो व्यक्ति ध्रुव के इस दिव्यलोक प्राप्ति के प्रसंग का कीर्तन करता है वह सब पापों से मुक्त होकर स्वर्गलोक में पूजित होता है। ४  

वह स्वर्ग में रहे अथवा पृथ्वी में, कभी अपने स्थान से च्युत नही होता तथा समस्त मंगलों से भरपूर रहकर बहुत काल तक जीवित रहता है।' ५ 

(सुनीति ने ध्रुव को पुण्योपार्जन का उपदेश दिया था, जिसके आचरण से उन्हें उत्तम लोक प्राप्त हुआ। अतएव 'सुनीति' सूनृता (अर्थात सत्य या प्रिय भाषण) कही गयी हैं।)

इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-४(4) समाप्त 

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