सूतजी कहते हैं - हे ऋषियों! ध्रुव के तपोवन की ओर चले जाने पर नारद जी महाराज उत्तानपाद के महल में पहुँचे। राजा ने उनकी यथायोग्य उपचारों से पूजा की; तब उन्होंने आराम से आसन पर बैठकर राजा से पूछा।
श्रीनारद जी ने कहा - राजन्! आपका मुख सूखा हुआ है, आप बड़ी देर से किस सोच-विचार में पड़े हो? आपके धर्म, अर्थ और काम में से किसी में कोई कमी तो नहीं आ गयी?
राजा ने कहा - ब्रह्मन्! मैं बड़ा ही स्त्रैण (स्त्री के वशीभूत) और निर्दयी हूँ। हाय, मैंने अपने पाँच वर्ष के नन्हे-से बच्चे को उसकी माता के साथ घर से निकाल दिया। मुनिवर! वह बड़ा ही बुद्धिमान् था। उसका कमल-सा मुख भूख से कुम्हला गया होगा, वह थककर कहीं रास्ते में पड़ गया होगा। ब्रह्मन्! उस असहाय बच्चे को वन में कहीं भेड़िये न खा जायें। अहो! मैं कैसा स्त्री का दास हूँ! मेरी कुटिलता तो देखिये- वह बालक प्रेमवश मेरी गोद में चढ़ना चाहता था, किन्तु मुझ दुष्ट ने उसका तनिक भी आदर नहीं किया।
श्रीनारद जी ने कहा - राजन्! आप अपने बालक की चिन्ता मत करो। उसके रक्षक भगवान् हैं। आपको उसके प्रभाव का पता नहीं है, उसका यश सारे जगत् में फैल रहा है। वह बालक बड़ा समर्थ है। जिस काम को बड़े-बड़े लोकपाल भी नहीं कर सके, उसे पूरा करके वह शीघ्र ही आपके पास लौट आयेगा। उसके कारण आपका यश भी बहुत बढ़ेगा।
सूतजी कहते हैं - देवर्षि नारद जी की बात सुनकर महाराज उत्तानपाद राजपाट की ओर से उदासीन होकर निरन्तर पुत्र की ही चिन्ता में रहने लगे। इधर ध्रुव ने मधुवन में पहुँचकर यमुना जी में स्नान किया और उस रात पवित्रतापूर्वक उपवास करके श्रीनारद जी के उपदेशानुसार एकाग्रचित्त से परमपुरुष श्रीनारायण की उपासना आरम्भ कर दी। उन्होंने तीन-तीन रात्रि के अन्तर से शरीर निर्वाह के लिये केवल कैथ और बेर के फल खाकर श्रीहरि की उपासना करते हुए एक मास व्यतीत किया। दूसरे महीने में उन्होंने छः-छः दिन के पीछे सूखे घास और पत्ते खाकर भगवान् का भजन किया।
'तीसरा महीना नौ-नौ दिन पर केवल जल पीकर समाधियोग के द्वारा श्रीहरि की आराधना करते हुए बिताया। चौथे महींने में उन्होंने श्वास को जीतकर बारह-बारह दिन के बाद केवल वायु पीकर ध्यानयोग द्वारा भगवान् आराधना की। पाँचवाँ मास लगने पर राजकुमार ध्रुव श्वास को जीतकर परब्रह्म का चिन्तन करते हुए एक पैर से खंभे के समान निश्चल भाव से खड़े हो गये। उस समय उन्होंने शब्दादि विषय और इन्द्रियों के नियामक अपने मन को सब ओर से खींच लिया तथा हृदयस्थित हरि के स्वरूप का चिन्तन करते हुए चित्त को किसी दूसरी ओर न जाने दिया। जिस समय उन्होंने महदादि सम्पूर्ण तत्त्वों के आधार तथा प्रकृति और पुरुष के भी अधीश्वर परब्रह्म की धारणा की, उस समय (उनके तेज को न सह सकने के कारण) तीनों लोक काँप उठे।'
'जब राजकुमार ध्रुव एक पैर से खड़े हुए, तब उनके अँगूठे से दबकर आधी पृथ्वी इस प्रकार झुक गयी, जैसे किसी गजराज के चढ़ जाने पर नाव झुक गयी, जैसे किसी गजराज के चढ़ जाने पर पद-पद पर दायीं-बायीं ओर डगमगाने लगती है। ध्रुव जी अपने इन्द्रियद्वार तथा प्राणों को रोककर अनन्य बुद्धि से विश्वात्मा श्रीहरि का ध्यान करने लगे। इस प्रकार उनकी समष्टि प्राण से अभिन्नता हो जाने के कारण सभी जीवों का श्वास-प्रश्वास रुक गया।
'हे महामुने! उससमय नदी, नद और समुद्र आदि सभी अत्यंत क्षुब्ध हो गये और उनके क्षोम से देवताओं में भी बड़ी हलचल मची। तब याम नामक देवताओं ने अत्यंत व्याकुल हो इंद्र के साथ परामर्श कर उसके ध्यान को भंग करने का आयोजन किया। इंद्र के साथ अति आतुर कुष्मांड नामक उपदेवताओं ने नानारूप धारणकर उसकी तपस्या भंग करना आरम्भ किया।'
उस समय देवताओं की माया से रची हुई उसकी माता सुनीति नेत्रों में आँसू भरे उसके सामने प्रकट हुई और ‘हे पुत्र ! हे पुत्र ! ‘ ऐसा कहकर करुणायुक्त वचन बोलने लगी – पुत्र! तू शरीर को घुलानेवाले इस भयंकर तपका आग्रह छोड़ दे। मैंने बड़ी-बड़ी कामनाओं द्वारा तुझे प्राप्त किया है।
'अरे ! मुझ अकेली, अनाथा, दुखिया को सौत के कटु वाक्यों से छोड़ देना उचित नही है। पुत्र! मुझ आश्रयहीना का तो एकमात्र तू ही सहारा है। कहाँ तो पाँच वर्ष का तू और कहाँ तेरा यह अति उग्र तप? अरे ! इस निष्फल क्लेशकारी आग्रह से अपना मन मोड़ ले। अभी तो तेरे खेलने – कूदने का समय है, फिर अध्ययन का समय आयेगा, तदनन्तर समस्त भोगों के भोगने का और फिर अंत में तपस्या करना भी ठीक होगा।'
'पुत्र ! तुझ सुकुमार बालक का ‘जो खेल-कूद का समय है उसी में तू तपस्या करना चाहता है। तू इस प्रकार क्यों अपने सर्वनाश में तत्पर हुआ है ? तेरा परम धर्म तो मुझ को प्रसन्न रखना ही है, अत: तू अपनी आयु और अवस्था के अनुकूल कर्मों में ही लग, मोह का अनुवर्तन न कर और इस तपरूपी अधर्म से निवृत्त हो। पुत्र ! यदि आज तू इस तपस्या को न छोड़ेगा तो देख तेरे सामने ही मैं अपने प्राण छोड़ दूँगी।'
सुतजी बोले - हे मुनिवरों ! भगवान विष्णु में चित्त स्थिर रहने के कारण ध्रुव ने उसे आँखों में आँसू भरकर इस प्रकार विलाप करती देखकर भी नहीं देखा। तब ‘अरे पूत्र ! यहाँ से भाग-भाग! देख, इस महाभयंकर वन में ये कैसे घोर राक्षस अस्त्र-शस्त्र उठाये आ रहे हैं।' ऐसा कहती हुई वह चली गयी और वहाँ जिनके मुखसे अग्नि की लपटे निकल रही थी ऐसे अनेकों राक्षसगण अस्त्र-शस्त्र सँभाले प्रकट हो गये।
'उन राक्षसों ने अपने अति चमकीले शस्त्रों को घुमाते हुए उस राजपुत्र के सामने बड़ा भयंकर कोलाहल किया। उस नित्य-योगयुक्त बालक को भयभीत करने के लिये अपने मुख से अग्नि की लपटे निकालती हुई सैकड़ो राक्षसियाँ घोर नाद करने लगी। वे राक्षसगण भी ‘इसको मारो-मारो, काटो-काटो, खाओ - खाओ’ इस प्रकार चिल्लाने लगे। फिर सिंह, ऊँट और मकर आदि के से मुखवाले वे राक्षस राजपुत्र को त्राण देने के लिये नाना प्रकार से गरजने लगे।'
'किन्तु उस भगवदासक्तचित्त बालक को वे राक्षस, उनके शब्द, स्यारियाँ और अस्त्र-शस्रादी कुछ भी दिखायी नहीं दिये। वह राजपुत्र एकाग्रचित्त से निरंतर अपने आश्रयभूत विष्णुभगवान् को ही देखता रहा और उसने किसी की ओर किसी भी प्रकार दृष्टिपात नहीं किया। तब सम्पूर्ण माया के लीन हो जाने पर उससे हार जाने की आशंका से देवताओं को बड़ा भय हुआ। अत: उसके तपसे संतप्त हो वे सब आपस में मिलकर जगत के आदि-कारण, शरणागतवत्सल, अनादि और अनंत श्रीहरि की शरण में गये।
देवता बोले – हे देवाधिदेव, जगन्नाथ, परमेश्वर, पुरुषोत्तम ! हम सब ध्रुव की तपस्या से संतप्त होकर आपकी शरण में आये है। हे देव ! जिस प्रकार चन्द्रमा अपनी कलाओं से प्रतिदिन बढ़ता है उसी प्रकार यह भी तपस्या के कारण रात-दिन उन्नत हो रहा है। हे जनार्दन ! इस उत्तानपाद के पुत्र की तपस्या से भयभीत होकर हम आपकी शरण में आये है, आप उसे तपसे निवृत्त कीजिये। हम नहीं जानते, वह इन्द्रत्व चाहता है या सूर्यत्व अथवा उसे कुबेर, वरुण या चन्द्रमा के पद की अभिलाषा है। अत: हे ईश ! आप हमपर प्रसन्न होइये और इस उत्तानपाद के पुत्र को तपसे निवृत्त करके हमारे ह्रदय का काँटा निकालिये।
श्रीभगवान बोले – हे सुरगण ! उसे इंद्र, सूर्य, वरुण अथवा कुबेर आदि किसी के पद की अभिलाषा नहीं हैं, उसकी जो कुछ इच्छा है वह मैं सब पूर्ण करूँगा। हे देवगण ! तुम निश्चिन्त होकर इच्छानुसार अपने-अपने स्थानों को जाओ। मैं तपस्या में लगे हुए उस बालक को निवृत्त करता हूँ।
इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय -२ का भाग-३(3) समाप्त !
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