राजा की आज्ञा पाकर उस समय सुमन्त्र ने इस प्रकार कहना आरम्भ किया - राजन् ! रोमपादके मन्त्रियोंने ऋष्यश्रृंग को वहाँ जिस प्रकार और जिस उपाय से बुलाया था, वह सब मैं बता रहा हूँ। आप मन्त्रियों सहित मेरी बात सुनिये। उस समय अमात्यों सहित पुरोहित ने राजा रोमपाद से कहा - महाराज ! हमलोगों ने एक उपाय सोचा है, जिसे काम में लाने से किसी भी विघ्न-बाधा के आने की सम्भावना नहीं है। ऋष्यश्रृंग मुनि सदा वन में ही रहकर तपस्या और स्वाध्याय में लगे रहते हैं। वे स्त्रियों को पहचानते तक नहीं हैं और विषयों के सुख से भी सर्वथा अनभिज्ञ हैं।
हम मनुष्यों के चित्त को मथ डालने वाले मनोवाञ्छित विषयों का प्रलोभन देकर उन्हें अपने नगर में ले आयेंगे; अतः इसके लिये शीघ्र प्रयत्न किया जाये। यदि सुन्दर आभूषणों से विभूषित मनोहर रूप वाली वेश्याएँ वहाँ जाये तो वे भाँति-भाँति के उपायों से उन्हें लुभाकर इस नगर में ले आयेंगी, अत: इन्हें सत्कार पूर्वक भेजना चाहिये।
यह सुनकर राजा ने पुरोहित को उत्तर दिया - बहुत अच्छा, आप लोग ऐसा ही करें। आज्ञा पाकर पुरोहित और मन्त्रियों ने उस समय वैसी ही व्यवस्था की। तब नगर की मुख्य-मुख्य वेश्याएँ राजा का आदेश सुनकर उस महान् वन में गयीं और मुनि के आश्रम से थोड़ी ही दूर पर ठहरकर उनके दर्शन का उद्योग करने लगीं।
मुनिकुमार ऋष्यश्रृंग बड़े ही धीर स्वभाव के थे। सदा आश्रम में ही रहा करते थे। उन्हें सर्वदा अपने पिता के पास रहने में ही अधिक सुख मिलता था। अतः वे कभी आश्रम के बाहर नहीं निकलते थे। उन तपस्वी ऋषिकुमार ने जन्म से लेकर उस समय तक पहले कभी न तो कोई स्त्री देखी थी और न पिता के सिवा दूसरे किसी पुरुष का ही दर्शन किया था। नगर या राष्ट्र के गाँवों में उत्पन्न हुए दूसरे - दूसरे प्राणियों को भी वे नहीं देख पाये थे।
तदनन्तर एक दिन विभाण्डक कुमार ऋष्यश्रृंग अकस्मात् घूमते-फिरते उस स्थान पर चले आये, जहाँ वे वेश्याएँ ठहरी हुई थीं। वहाँ उन्होंने उन सुन्दरी वनिताओं को देखा। उन प्रमदाओं का वेष बड़ा ही सुन्दर और अद्भुत था। वे मीठे स्वर में गा रही थीं। ऋषिकुमार को आया देख सभी उनके पास चली आयीं और इस प्रकार पूछने लगीं - ब्रह्मन् ! आप कौन हैं? क्या करते हैं? तथा इस निर्जन वन में आश्रम से इतनी दूर आकर अकेले क्यों विचर रहे हैं? यह हमें बताइये। हम लोग इस बात को जानना चाहती हैं।
ऋष्यश्रृंग ने वन में कभी स्त्रियों का रूप नहीं देखा था और वे स्त्रियाँ तो अत्यन्त कमनीय रूप से सुशोभित थीं; अत: उन्हें देखकर उनके मन में स्नेह उत्पन्न हो गया। इसलिये उन्होंने उनसे अपने पिता का परिचय देने का विचार किया।
वे बोले – मेरे पिता का नाम विभाण्डक मुनि है। मैं उनका औरस पुत्र हूँ। मेरा ऋष्यश्रृंग नाम और तपस्या आदि कर्म इस भूमण्डल में प्रसिद्ध है। यहाँ पास ही मेरा आश्रम है। आप लोग देखने में परम सुन्दर हैं। (अथवा आपका दर्शन मेरे लिये शुभकारक है।) आप मेरे आश्रम पर चलें। वहाँ मैं आप सब लोगों की विधिपूर्वक पूजा करूँगा।
ऋषिकुमार की यह बात सुनकर सब उनसे सहमत हो गयीं। फिर वे सब सुन्दरी स्त्रियाँ उनका आश्रम देखने के लिये वहाँ गयीं। वहाँ जाने पर ऋषिकुमार ने 'यह अर्घ्य है, यह पाद्य है तथा यह भोजन के लिये फल- मूल प्रस्तुत है' ऐसा कहते हुए उन सबका विधिवत् पूजन किया।
ऋषि की पूजा स्वीकार करके वे सभी वहाँ से चली जाने को उत्सुक हुईं। उन्हें विभाण्डक मुनि का भय लग रहा था, इसलिये उन्होंने शीघ्र ही वहाँ से चली जाने का विचार किया। वे बोलीं – ब्रह्मन्! हमारे पास भी ये उत्तम-उत्तम फल हैं। विप्रवर! इन्हें ग्रहण कीजिये। आपका कल्याण हो। इन फलों को शीघ्र ही खा लीजिये, विलम्ब न कीजिये।
ऐसा कहकर उन सबने हर्ष में भरकर ऋषि का आलिंगन किया और उन्हें खाने योग्य भाँति-भाँति उत्तम पदार्थ तथा बहुत सी मिठाइयाँ दीं। उनका रसास्वादन करके उन तेजस्वी ऋषि ने समझा कि ये भी फल हैं; क्योंकि उस दिन के पहले उन्होंने कभी वैसे पदार्थ नहीं खाये थे। भला, सदा वन में रहनेवालों के लिये वैसी वस्तुओं के स्वाद लेने का अवसर ही कहाँ है।
तत्पश्चात् उनके पिता विभाण्डक मुनि के डर से डरी हुई वे स्त्रियाँ व्रत और अनुष्ठान की बात बता उन ब्राह्मणकुमार से पूछकर उसी बहाने वहाँ से चली गयी। उन सबके चले जाने पर विभाण्डक कुमार ब्राह्मण ऋष्यश्रृंग मन-ही-मन व्याकुल हो उठे और बड़े दुःख से इधर- उधर टहलने लगे। तदनन्तर दूसरे दिन फिर मन से उन्हीं का बारम्बार चिन्तन करते हुए शक्तिशाली विभाण्डक कुमार श्रीमान् ऋष्यश्रृंग उसी स्थान पर गये, जहाँ पहले दिन उन्होंने वस्त्र और आभूषणों से सजी हुई उन मनोहर रूपवाली वेश्याओं को देखा था।
ब्राह्मण ऋष्यश्रृंग को आते देख तुरंत ही उन वेश्याओं का हृदय प्रसन्नता से खिल उठा। वे सब की सब उनके पास जाकर उनसे इस प्रकार कहने लगीं - 'सौम्य ! आओ, आज हमारे आश्रम पर चलो। यद्यपि यहाँ नाना प्रकार के फल- मूल बहुत मिलते हैं तथापि वहाँ भी निश्चय ही इन सबका विशेष रूप से प्रबन्ध हो सकता है।
उन सबके मनोहर वचन सुनकर ऋष्यश्रृंग उनके साथ जाने को तैयार हो गये और वे स्त्रियाँ उन्हें अंगदेश में ले गयीं। उन महात्मा ब्राह्मण के अंगदेश में आते ही इन्द्र ने सम्पूर्ण जगत को प्रसन्न करते हुए सहसा पानी बरसाना आरम्भ कर दिया। वर्षा से ही राजा को अनुमान हो गया कि वे तपस्वी ब्राह्मणकुमार आ गये। फिर बड़ी विनय के साथ राजा ने उनकी अगवानी की और पृथ्वी पर मस्तक टेककर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया।
फिर एकाग्रचित्त होकर उन्होंने ऋषि को अर्घ्य निवेदन किया तथा उन विप्रशिरोमणि से वरदान माँगा - भगवन्! आप और आपके पिताजी का कृपा प्रसाद मुझे प्राप्त हो। ऐसा उन्होंने इसलिये किया कि कहीं कपटपूर्वक यहाँ तक लाये जाने का रहस्य जान लेने पर विप्रवर ऋष्यश्रृंग अथवा विभाण्डक मुनि के मन में मेरे प्रति क्रोध न हो।
तत्पश्चात् ऋष्यश्रृंग को अन्तः पुर में ले जाकर उन्होंने शान्तचित्त से अपनी कन्या शान्ता का उनके साथ विधिपूर्वक विवाह कर दिया। ऐसा करके राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। इस प्रकार महातेजस्वी ऋष्यश्रृंग राजा से पूजित हो सम्पूर्ण मनोवाञ्छित भोग प्राप्त कर अपनी धर्मपत्नी शान्ता के साथ वहाँ रहने लगे।
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