भाग-३(3) इंद्र को जीवनदान व बृहस्पति को 'जीव' नाम देना तथा जलंधर की उत्पत्ति

 


सूतजी बोले - हे महामुने! अब प्रभु के अवतार का तीसरा कारण सुनो एक बार की बात है देवगुरु बृहस्पति और देवराज इंद्र भगवान शिव के दर्शन करने के लिए कैलाश पर्वत पर गए। तब भगवान शिव ने अपने भक्तों की परीक्षा लेने के विषय में सोचा। उन्होंने मार्ग में उन्हें रोक लिया। कैलाश पर्वत के रास्ते में ही वे अपना रूप बदलकर तपस्वी का वेश धारण करके बैठ गए। 

जैसे ही देवराज इंद्र वहां से निकले, उन्होंने तपस्वी से पूछा - भगवान शिव अपने स्थान पर ही हैं या कहीं और गए हैं? यह पूछकर उन्होंने तपस्वी से उनके नाम आदि के विषय में भी जानना चाहा परंतु तपस्वी रूप में शिवजी चुप रहे और कुछ न बोले। उन तपस्वी को इस प्रकार अपने प्रश्न के उत्तर में चुप देखकर देवराज इंद्र बहुत क्रोधित हुए। । 

वे बोले – अरे, मैं तुमसे पूछ रहा हूं और तू है कि उत्तर ही नहीं दे रहा है। जब तपस्वी ने पलटकर पुनः उत्तर नहीं दिया तब इंद्र ने हाथ में बज्र लेकर तपस्वी रूप धारण किए भगवान शिव पर आक्रमण कर दिया परंतु शिवजी ने तुरंत पलटवार करते हुए इंद्र के हाथ को पीछे धकेल दिया। तब क्रोध के कारण शिवजी का रूप प्रज्वलित हो उठा और उस तेज को देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि यह तेज सबकुछ जलाकर भस्म कर देगा। इंद्र की भुजा को झटकने से इंद्र का क्रोध भी बढ़ गया परंतु गुरु बृहस्पति उस तेज से भगवान शिव को पहचान गए।

देवगुरु बृहस्पति ने तुरंत हाथ जोड़कर देवाधिदेव भगवान शिव को प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे। बृहस्पति जी ने देवराज इंद्र को भी शिव चरणों में झुका दिया और क्षमा याचना करने लगे। वे बोले - हे प्रभु! अज्ञानतावश हम आपको पहचान नहीं पाए। भूलवश आपकी अवहेलना करने का अपराध देवराज इंद्र से हो गया है। हे भगवन्! आप तो करुणानिधान हैं। भक्तवत्सल होने के कारण आप सदा अपने भक्तों के ही वश में रहते हैं । प्रभु! कृपा करके इंद्रदेव को क्षमा कर दीजिए ।

बृहस्पति जी के ऐसे वचन सुनकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव बोले - मैं अपने नेत्रों की ज्वाला नहीं रोक सकता। तब बृहस्पति जी बोले - प्रभु आप इंद्र देव पर दया कीजिए और अपने क्रोध की अग्नि को कहीं और स्थापित कर देवराज का अपराध क्षमा कीजिए। तब भगवान शिव बोले- हे बृहस्पति! मैं तुम्हारे चातुर्य से प्रसन्न हूं। आज तुमने इंद्र को जीवनदान दिलाया है इसलिए तुम्हें 'जीव' नाम से प्रसिद्धि मिलेगी। यह कहकर उन्होंने अपने क्रोध की ज्वाला को समुद्र में फेंक दिया। तब इंद्र देव और देवगुरु बृहस्पति ने भगवान शिव को धन्यवाद दिया और उन्हें प्रणाम करके स्वर्ग लोक चले गए।

शौनकजी ने पूछा – सूतजी ! जब भगवान शिव ने अपने क्रोध की ज्वाला समुद्र में प्रवाहित कर दी, तब क्या हुआ ? 

सूतजी बोले – हे मुने! जब भगवान शिव ने अपना क्रोध समुद्र में डाल दिया तो क्रोध की वह ज्वाला बालक का रूप लेकर जोर-जोर से रोने लगी। उस बालक के रोने की आवाज से सारा संसार भयभीत हो गया। पूरा संसार उसकी आवाज से व्याकुल था। तब सभी चिंतित होकर ब्रह्माजी की शरण में गए। तब सब देवताओं ने सादर ब्रह्माजी को प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे। 

तत्पश्चात बोले - हे ब्रह्माजी ! इस समय हम सभी पर बड़ा भारी संकट आन पड़ा है। प्रभु! आप तो सब कुछ जानते ही हैं। उस बालक ने, जो समुद्र से उत्पन्न हुआ है, अपने भयंकर रुदन द्वारा पूरे संसार को आहत किया है। सभी भय से आतुर हैं। हे महायोगिन्! आप उस बालक का संहार करके हमें भयमुक्त कराएं।

देवताओं की इस प्रकार की प्रार्थना सुनकर ब्रह्माजी अपने लोक से पृथ्वी लोक पर उतरकर उस समुद्र पर पहुंचे जहां वह बालक विद्यमान था। ब्रह्माजी को अपने पास आता देखकर समुद्र ने भक्ति पूर्वक उन्हें प्रणाम किया और उस बालक को ब्रह्माजी को सौंप दिया। 

तब ब्रह्माजी ने आश्चर्यचकित होकर समुद्र देव से प्रश्न किया - यह बालक किसका है? ब्रह्माजी के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए समुद्र देव बोले - हे भगवन्! यह बालक गंगा सागर की उत्पत्ति स्थल पर प्रकट हुआ है परंतु मैं इस बालक के विषय में और कुछ नहीं जानता।

इस प्रकार जब ब्रह्माजी समुद्र से बातें कर रहे थे, तब उस समय उस बालक ने ब्रह्माजी के गले में हाथ डाल दिया और उनका गला जोर से दबा दिया। जिसकी पीड़ा स्वरूप उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। तब ब्रह्माजी ने यत्नपूर्वक उस बालक की पकड़ से अपने को मुक्त कराया और समुद्र से बोले - तुम्हारे इस जातक पुत्र ने मेरे नेत्रों से जल निकाला है। अतः यह बालक 'जलंधर' नाम से प्रसिद्ध होगा। उत्पन्न होते ही युवा हो जाने के कारण यह बालक महापराक्रमी, महाधीर युवा, महायोद्धा और रण- दुर्मद होगा। यह बालक युद्ध में सदैव विजयी होगा। यहां तक कि यह भगवान श्रीहरि विष्णु को भी जीत लेगा। यह बालक दैत्यों का अधिपति होगा। कोई भी मनुष्य या देवता इसका चाहकर भी कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे। इसका संहार केवल त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के द्वारा ही संभव है। 

यह कहकर ब्रह्माजी ने असुरों के गुरु शुक्राचार्य को बुलाया और उनके हाथों से उस बालक को दैत्यों का राजा स्वीकार करते हुए उसका राज्याभिषेक कराया। तत्पश्चात ब्रह्माजी स्वयं वहां से अंतर्धान हो गए। अपने जातक पुत्र के विषय में जानकर समुद्र देव बहुत प्रसन्न हुए और वे उसे अपने निवास स्थान पर ले गए। कुछ समय पश्चात उन्होंने जलंधर का विवाह कालनेमि नामक असुर की परम सुंदर पुत्री वृंदा से संपन्न करा दिया। जलंधर आनंदपूर्वक अपनी पत्नी के साथ निवास करने लगा और असुरों के राज्य को बड़ी चतुराई और कर्तव्यपरायणता के साथ चलाने लगा। उसकी पत्नी वृंदा महान पतिव्रता नारी थी।

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-३(3) समाप्त !

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