भाग-३(3) पुंजिकस्थला और राजा केसरी को मिला वानर बनने का शाप

 


श्रीराम ने अगस्त्य मुनि से कहा - मुनिश्रेष्ठ ! आपने जैसा कहा कि पुंजिकस्थला को वानरी होने का शाप मिला तथा पवन देव को देवताओं के राजा इंद्र ने स्वर्ग से निष्कासित कर दिया। इसके उपरांत आगे क्या हुआ? पवन देव कहाँ गए? पुंजिकस्थला ने शिवजी की उपासना किस प्रकार की? 

श्रीराम के प्रश्न करने पर मुनि मन ही मन प्रभु को प्रणाम कर मुस्काते हुए मानो यह कह रहे हो की रघुनन्दन! आप सर्वज्ञाता हैं। परन्तु आप यह सब इसलिये पूछ रहे हैं जिससे इस सभा में उपस्थित सभी लोगों को आप अपने परम भक्त वीर हनुमान की लीला सुना सकें। ऐसा सोचते हुए मुनि अगस्त्य बोले - श्रीराम ! जब पवन देव को स्वर्ग से निकाल दिया गया तब वे भटकते हुए आत्मग्लानि से भरे हुए कैलाश पर पहुंचे। वहां उन्होंने अपने आराध्य भगवान् शंकर के दर्शन किये और उनके चरणों लगकर विनती की। 

पवन देव बोले - हे नीलकंठ महादेव ! हे त्रिपुरारी ! हे भोलेनाथ ! मैं आज स्वयं को बहुत लज्जित मानता हूँ। मुझे आपने देव होने की उपाधि दी। आप ही के प्रताप से मैं समस्त जीवों के अंदर उनकी प्राण वायु बनकर बसता हूँ। किन्तु कदाचित मुझे इसी का अहंकार हो गया और पुंजिकस्थला को शाप मिलने का कारण बना। देवराज ने मुझे स्वर्ग से निष्कासित कर उचित ही किया। फिर भी मुझे मिला यह दंड मेरे द्वारा किये गए पाप को देखते हुए बेहद कम हैं। प्रभु ! या तो आप मुझे इस आत्मग्लानि से निकलने का उपाय बताएं अथवा मेरा विनाश करें। मैं अब आपकी शरण हूँ। मुझ पापी के साथ आप जो करें वह आपकी इच्छा पर है। 

तब देवादिदेव ने वायु देव को ऊपर उठाते हुए कहा - हे वायु देव किसी भी पाप का प्रतिकार पश्चाताप द्वारा ही संभव है। आपने प्रायश्चित करने जो निर्णय लिया है वहीं सबसे उत्तम मार्ग है। संसार में जो भी घटित होता है अथवा होने वाला है सब विधि के विधान और हमारे ही कर्मों का परिणाम होता है जो कभी न कभी हमे भोगना ही पड़ता है। आप मेरी शरण हैं अतः किसी प्रकार की चिंता को त्याग कर यहीं कैलाश लोक पर अदृश्य रूप में निवास करें तथा जब तक मैं आपको कोई अन्य आदेश नहीं देता हूँ तप के द्वारा प्रायश्चित पूर्ण करें। पुंजिकस्थला को भी उचित समय पर अवश्य ही मुक्ति प्राप्त होगी। 

'रघुनन्दन ! भगवान शिव के आश्वासन से संतुष्ट होकर पवन देव ने उनकी आज्ञा का पालन किया। वहां दूसरी ओर घने वन में शिवलिंग के पास बैठी पुंजिकस्थला अपने द्वारा किये अपराध का प्रायश्चित करने हेतु वानरी रूप में एकाग्रचित होकर भगवान शंकर की उपासना करती है।' 

'उसी वन में केसरी नाम का एक राजा आखेट की इच्छा से धनुष पर बाण चढ़ाये एक मृग के पीछे अपने अश्व पर सवार हो दौड़ रहा था। मृग ने जब अपने प्राणों को संकट में देखा तो वह किसी तरह बचता हुआ महर्षि नाद के आश्रम में जाकर छिप गया। राजा ने उसे देख लिया था अतः वह भी अपने धनुष बाण लिए आश्रम में प्रवेश कर गया।'

एक शस्त्र धारी राजा को आश्रम में देखकर मुनि नाद ने उसे वहीं रोक लिया और वहां आने का कारण पूछा तब केसरी ने कहा - मैं एक राजा हूँ यह क्षेत्र मेरे ही अधिकार में आता है। इस नाते मैं कही भी आ जा सकता हूँ। मैं यहाँ एक मृग का पीछा करता हुआ आया हूँ। आप एक ब्राह्मण हैं तथा पूजनीय भी हैं। इसलिये मेरा आपसे अनुरोध है की उस मृग को ढूंढकर आप मुझे सौंप दें। 

राजा की दंभ भरी बाते सुनकर महर्षि नाद ने उन्हें कहा - राजन ! जीवों की बेवजह हत्या करना अपराध है और फिर वह तो इस आश्रम में शरण ले चूका है। हमारे यहाँ प्राण लिए नहीं दिए जाते हैं। 

होनहारवश राजा की बुद्धि भ्रमित हो गयी और उसने इसे अपना अपमान समझकर मुनि नाद को घौर अपमानजनक वचन कह डाले। जिससे क्रुद्ध होकर नाद मुनि ने राजा केसरी को शाप दिया - राजा आप एक पशु की पीड़ा नहीं समझ पा रहे हैं। केवल अपने मनोरंजन के लिए उसका प्राण हरण करना चाहते हैं। आपने मेरा भी अपमान किया अतः मैं आपको वानर होने का शाप देता हूँ। 

शाप सुनकर राजा को अपनी भूल का भान हुआ और मुनि से चरण पकड़ कर क्षमा याचना करने लगा। तब मुनि ने कहा - आपने एक ब्राह्मण को अपमानजनक वचन कहे जो ब्रह्म हत्या के समान है। अब जाकर इसी वानर रूप में कहीं किसी शिवलिंग के पास बैठकर तप करो। शिवजी ही तुम्हें इससे मुक्ति दिलाएंगे। 

तदनन्तर वानर रूप धारण कर राजा केसरी भी उसी शिवलिंग के पास पहुंचा जहाँ पुंजिकस्थला वानरी बनकर तप में लीन थी। वानरी को तप करते देख वानर बने राजा ने भी उसी शिवलिंग के समीप बैठकर अपना तप प्रारम्भ कर दिया। दोनों ने मिलकर कई वर्षों तक शिव उपासना की। एक दिन भगवान शिव ने प्रकट होकर दोनों को वर देते हुए कहा - आप दोनों के तप से मैं अत्यंत प्रश्न हूँ किन्तु किसी भी तप का पुण्य तभी मिलता है जब पूर्ण पशु योनि से मानव योनि में जन्म लिया जाये। अतः मैं तुम दोनों को यह वर देता हूँ कि अगले जन्म में तुम्हारा जन्म वानरकुल में ही होगा जहाँ तुम अपनी इच्छा अनुसार मनुष्य रूप भी धारण कर सकोगे। उस जन्म में तुम दोनों पति पत्नी बनोगे तथा मैं स्वयं अपने ग्यारहवें रुद्रावतार रूप में तुम्हारा पुत्र बनकर जन्म लूँगा। 

'तदनन्तर राजा केसरी और पुंजिकस्थला ने भगवान् शिव के आशीर्वाद से बिना कष्ट के अपनी देह को त्याग दिया और अगले जन्म से पहले स्वर्ग में निवास करने लगे। कुछ काल बीत जाने पर राजा केसरी ने वानर कुल में जन्म लिया। उस जन्म में भी उनका नाम केसरी ही था। उनके पिता का नाम वसु था। पुंजिकस्थला ने भी एक अन्य वानर कुल में जन्म लिया। उस जन्म में उनका नाम अंजना था। उनके पिता का नाम  कुंजल था।'

इति श्रीमद् राम कथा श्रीहनुमान चरित्र अध्याय-४ का भाग-३(3) समाप्त !

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