भाग-३९(39) रावण द्वारा मरुत्त की पराजय तथा इन्द्र आदि देवताओं का मयूर आदि पक्षियों को वरदान देना

 


अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन ! वेदवती के अग्नि में प्रवेश कर जाने पर रावण पुष्पकविमान पर आरूढ़ हो पृथ्वी पर सब ओर भ्रमण करने लगा। उसी यात्रा में उशीरबीज नामक देश में पहुँचकर रावण ने देखा, राजा मरुत्त देवताओं के साथ बैठकर यज्ञ कर रहे हैं। उस समय साक्षात् बृहस्पति के भाई तथा धर्म के मर्म को जानने वाले ब्रह्मर्षि संवर्त सम्पूर्ण देवताओं से घिरे रहकर वह यज्ञ करा रहे थे। 
ब्रह्माजी के वरदान से जिसको जीतना कठिन हो गया था, उस राक्षस रावण को वहाँ देखकर उसके आक्रमण से भयभीत हो देवता लोग तिर्यक योनि में प्रवेश कर गये। इन्द्र मोर, धर्मराज कौआ, कुबेर गिरगिट और वरुण हंस हो गये। 

'शत्रुसूदन श्रीराम ! इसी तरह दूसरे दूसरे देवता भी जब विभिन्न रूपों में स्थित हो गये, तब रावण ने उस यज्ञमण्डप में प्रवेश किया, मानो कोई अपवित्र कुत्ता वहाँ आ गया हो।' 
राजा मरुत्त के पास पहुँचकर राक्षसराज रावण ने कहा - मुझसे युद्ध करो या अपने मुँह से यह कह दो कि मैं पराजित हो गया। 

तब राजा मरुत्त ने पूछा - आप कौन हैं? 

उनका प्रश्न सुनकर रावण हँस पड़ा और बोला – भूपाल ! मैं कुबेर का छोटा भाई रावण हूँ। फिर भी तुम मुझे नहीं जानते और मुझे देखकर भी तुम्हारे मन में न तो कौतूहल हुआ, न भय ही; इससे मैं तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हूँ। तीनों लोकों में तुम्हारे सिवा दूसरा कौन ऐसा राजा होगा, जो मेरे बल को न जानता हो। मैं वह रावण हूँ, जिसने अपने भाई कुबेर को जीतकर यह विमान छीन लिया है। 

तब राजा मरुत्त ने रावण से कहा – तुम धन्य हो, जिसने अपने बड़े भाई को रणभूमि में पराजित कर दिया। तुम्हारे जैसा स्पृहणीय पुरुष तीनों लोकों में दूसरा कोई नहीं है। तुमने पूर्वकाल में किस शुद्ध धर्म का आचरण करके वर प्राप्त किया है। तुम स्वयं जो कुछ कह रहे हो, ऐसी बात मैंने पहले कभी नहीं सुनी है। दुर्बुद्धे ! इस समय खड़े तो रहो। मेरे हाथ से जीवित बचकर नहीं जा सकोगे। आज अपने पैने बाणों से मारकर तुम्हें यमलोक पहुँचाये देता हूँ।
 
तदनन्तर राजा मरुत्त धनुष-बाण लेकर बड़े रोष के साथ युद्ध के लिये निकले, परंतु महर्षि संवर्त ने उनका रास्ता रोक लिया। उन महर्षि ने महाराज मरुत्त से स्नेहपूर्वक कहा – राजन् ! यदि मेरी बात सुनना और उस पर ध्यान देना उचित समझो तो सुनो। तुम्हारे लिये युद्ध करना उचित नहीं है। यह माहेश्वर यज्ञ आरम्भ किया गया है। यदि पूरा न हुआ तो तुम्हारे समस्त कुल को दग्ध (जला) कर डालेगा। जो यज्ञ की दीक्षा ले चुका है, उसके लिये युद्ध का अवसर ही कहाँ है? यज्ञदीक्षित पुरुष में क्रोध के लिये स्थान ही कहाँ है ? युद्ध में किसकी विजय होगी, इस प्रश्न को लेकर सदा संशय ही बना रहता है। उधर वह राक्षस अत्यन्त दुर्जय है। 

'अपने आचार्य के इस कथन से पृथ्वीपति मरुत्त युद्ध से निवृत्त हो गये। उन्होंने धनुष-बाण त्याग दिया और स्वस्थभाव से वे यज्ञ के लिये उन्मुख हो गये। तब उन्हें पराजित हुआ मानकर शुक ने यह घोषणा कर दी कि महाराज रावण की विजय हुई और वह बड़े हर्ष साथ उच्चस्वर से सिंहनाद करने लगा।' 

उस यज्ञ में आकर बैठे हुए महर्षियों को खाकर उनके रक्त से पूर्णत: तृप्त हो रावण फिर पृथ्वी पर विचरने लगा। रावण के चले जाने पर इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता पुन: अपने स्वरूप में प्रकट हो उन-उन प्राणियों को (जिनके रूप में वे स्वयं प्रकट हुए थे) वरदान देते हुए बोले - सबसे पहले इन्द्र ने हर्षपूर्वक नीले पंखवाले मोर से कहा - धर्मज्ञ ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हें सर्प से भय नहीं होगा। मेरे जो ये सहस्र नेत्र हैं, इनके समान चिह्न तुम्हारी पाँख में प्रकट होंगे। जब मैं मेघरूप होकर वर्षा करूँगा, उस समय तुम्हें बड़ी प्रसन्नता प्राप्त होगी। वह प्रसन्नता मेरी प्राप्ति को लक्षित कराने वाली होगी। इस प्रकार देवराज इन्द्र ने मोर को वरदान दिया। नरेश्वर श्रीराम! इस वरदान के पहले मोरों के पंख केवल नीले रंग के ही होते थे। देवराज से उक्त वर पाकर सब मयूर वहाँ से चले गये। 

श्रीराम! तदनन्तर धर्मराज ने प्राग्वंश (यज्ञशाला के पूर्व भाग में यजमान और उसकी पत्नी आदि के ठहरने के लिये बने हुए गृह को प्राग्वंश कहते हैं। यह घर हविर्गृह के पूर्व ओर होता है।) 
 की छत पर बैठे हुए कौए से कहा - पक्षी ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। प्रसन्न होकर जो कुछ कहता हूँ, मेरे इस वचन को सुनो। जैसे दूसरे प्राणियों को मैं नाना प्रकार के रोगों द्वारा पीड़ित करता हूँ, वे रोग मेरी प्रसन्नता के कारण तुम पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकेंगे; इसमें संशय नहीं है। विहङ्गम! मेरे वरदान से तुम्हें मृत्यु का भय नहीं होगा। जब तक मनुष्य आदि प्राणी तुम्हारा वध नहीं करेंगे, तब तक तुम जीवित रहोगे। मेरे राज्य – यमलोक में स्थित रहकर जो मानव भूख से पीड़ित हैं, उनके पुत्र आदि इस भूतल पर जब तुम्हें भोजन करावेंगे, तब वे बन्धु बान्धवों सहित परम तृप्त होंगे। 

तत्पश्चात् वरुण ने गङ्गाजी के जल में विचरने वाले हंस को सम्बोधित करके कहा – पक्षिराज ! मेरा प्रेमपूर्ण वचन सुनो। तुम्हारे शरीर का रंग चन्द्रमण्डल तथा शुद्ध फेन के समान परम उज्ज्वल, सौम्य एवं मनोरम होगा। मेरे अङ्गभूत जल का आश्रय लेकर तुम सदा कान्तिमान् बने रहोगे और तुम्हें अनुपम प्रसन्नता प्राप्त होगी। यही मेरे प्रेम का परिचायक चिह्न होगा। श्रीराम ! पूर्वकाल में हंसों का रंग पूर्णत: श्वेत नहीं था। उनकी पाँखों का अग्रभाग नीला और दोनों भुजाओं के बीच का भाग नूतन दूर्वादल के अग्रभाग-सा कोमल एवं श्याम वर्ण से युक्त होता था। 

तदनन्तर विश्रवा के पुत्र कुबेर ने पर्वत शिखर पर बैठे हुए कृकलास (गिरगिट) से कहा - मैं प्रसन्न होकर तुम्हें सुवर्ण के समान सुन्दर रंग प्रदान करता हूँ। तुम्हारा सिर सदा ही सुवर्ण के समान रंग का एवं अक्षय होगा। मेरी प्रसन्नता से तुम्हारा यह काला रंग सुनहरे रंग में परिवर्तित हो जायेगा। 
'इस प्रकार उन्हें उत्तम वर देकर वे सब देवता वह यज्ञोत्सव समाप्त होने पर राजा मरुत्त के साथ पुन: अपने भवन – स्वर्गलोक को चले गये।' 

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-३९(39) समाप्त !

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