भाग-३९(39) राजा दशरथ तथा श्रवण कुमार के जन्म की कथा

 


सूतजी कहते हैं - ऋषियों ! खट्वांग के पुत्र दीर्घबाहु और दीर्घबाहु के परम यशस्वी पुत्र रघु हुए। रघु ने दिग्विजय यात्रा प्रारम्भ की। चारों दिशाओं में घूमता हुआ हिमालय पर पहुंचा। वहां विजयध्वज लहराकर अयोध्या लौटा। विश्वजीत नामक यज्ञ किया। रघु के अज नामक पुत्र हुआ। बड़े होने पर अज विवाह के लिए विदर्भ के राजा भोज द्वारा आयोजित स्वयंवर में गए। स्वयंवर में राजा भोज की बहिन इंदुमती ने सबको छोड़कर अज के गले में वरमाला डाली। राजा भोज ने प्रसन्नता पूर्वक अपनी बहिन का विवाह अज से कर दिया। 

'अज इंदुमती को लेकर राजधानी पहुंचे। रघु ने अज का राज्याभिषेक किया और सारा भार उसे सौंपकर वन में चले गए। अज और इंदुमती के पुत्र महाराज दशरथ हुए। दुर्घटना में इंदुमती की मृत्यु हो गयी। अपनी पत्नी के वियोग में राजा अज ने बहुत विलाप किया। वे पत्नी वियोग के दुःख को ठीक उसी प्रकार नहीं सह सके जिस प्रकार भगवान राम के वन जाते समय महाराज दशरथ। दशरथ का राज्याभिषेक कर अज ने भी प्राण त्याग दिए।'

सूतजी बोले - ऋषिगणों ! राजा दशरथ के जीवन का वर्णन करने से पूर्व मैं तुम्हे श्रवण कुमार का प्रसंग सुनाता हूँ। जो इतिहास प्रसिद्ध है। आप सभी उसे मन से सुने। यह उस समय की बात है जब अयोध्या के राजा अज हुआ करते थे और उनके पुत्र दशरथ राजकुमार। उस समय उनका (दशरथ) विवाह भी नहीं हुआ था। 

'कौशल राज्य की सीमा से लगा एक अवध का छोटा सा नगर था। साधुराम नामक ब्राह्मण उसका प्रधान था। नगर के सभी राज कार्य महाराज अज ने उसे ही सौंप रखे थे। उसी नगर में एक निर्धन ब्राह्मण दम्पति ऋषि शांतनु और ज्ञानवती रहते थे। शांतनु बड़े ज्ञानी पंडित और ज्योतिष विद्या में प्रवीण थे। नगर में सभी उनकी विद्या की प्रशंसा किया करते। उनके जीवन में उन्हें सिर्फ एक ही गहरा दुःख संतान हीन होने का था। उनकी भार्या ज्ञानवती इसी पीड़ा से बहुत दुखी रहती थी। ऋषि शांतनु उसे समझाया करते कि विधाता ने उनके भाग्य में संतान का सुख नहीं लिखा। अतः जो भाग्य में नहीं उसका दुःख नहीं करना चाहिए क्योंकि प्रत्येक मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार ही फल मिलता है।'

एक समय कि बात है नगर के प्रधान साधुराम को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। इस उपलक्ष में उसने सम्पूर्ण नगर के जनों को भोज के लिए आमंत्रित किया। केवल शांतनु के घर को छोड़ दिया। इससे उनकी पत्नी ज्ञानवती को बहुत ठेस लगी। पंडित ने अपनी पत्नी को यह कहते हुए ढांढस बंधाया - हो सकता है अत्यंत व्यस्त होने से वे हमे निमंत्रण देना भूल गए हों, वैसे भी वे हैं तो मेरे परिवार के ही भला क्या कोई अपनों को भी न्योता देता है भला। वैसे भी साधुराम उम्र में मुझसे बड़ा है यदि निमंत्रण नहीं आया तो क्या, हम स्वयं वहां चलते हैं। तुम नवजात बच्चे की मुंह दिखाई के लिए भेंट ले चलो। 

साधुराम के घर में उत्सव था। सभी लोग बधाइयाँ दे रहे थे और ख़ुशी-ख़ुशी स्वादिष्ट भोजन का भी आनंद ले रहे थे। जब शांतनु और ज्ञानवती उसके घर बधाई लेकर पहुंचे तो साधुराम और उसकी पत्नी उन्हें देखकर तिलमिला उठे। शांतनु ने विनम्रता से कहा - भैया ! क्षमा करना हमे आने में थोड़ा विलम्ब हुआ। अब शीघ्रता से अपने लाल का मुख दिखाओ उसे देखने की बड़ी लालसा लिए हम दोनों यहाँ आये हैं। साथ में छोटी से भेंट भी लाये हैं इसे स्वीकार करना।

साधुराम ने तमतमाकर कहा - बंधू ! तुम्हे यहाँ बुलाया ही किसने था जो लाज हीन मनुष्यों कि भांति यहाँ चले आये। मेरे साथ भाई का रिश्ता जोड़कर मुझे अपने भावना के जाल में फसाने आये हो। साधुराम की पत्नी भी कहाँ चुप बैठने वाली थी उसने भी अपने पति का साथ देते हुए उन दोनों को बहुत अपमानित करते हुए कहा - अरे ! भगवान कैसे बेशर्म लोग हैं जो इतना अपमान होने पर भी यहीं चिपके खड़े हैं। भगवान जाने इस भेंट में कौनसा जादू टोना करके लाये हों, क्योंकि स्वयं तो एक बाँझ ठहरी अब किसी और की गोद भी उजाड़ना चाहती है। 

'वहां उपस्थित सभी लोगों के सामने अपना घोर अपमान देखकर दोनों बहुत दुखी अवस्था में वहां से निकल कर अपने घर आ गए। किन्तु अपमान का यह गहरा घाव उनसे सहन नहीं हो पा रहा था। रात्रि के अन्धकार का लाभ उठाकर दोनों अपने घर से निकल पड़े। चलते-चलते दिन निकल आया। दोनों ने अपने मन को बहुत समझाना चाहा पर उनके हृदय की टिस वैसे ही बनी रही। बहुत ज्ञानी होने पर भी शांतनु का ज्ञान मानो रात्रि के अन्धकार में ही कहीं लुप्त हो गया। दोनों ने अंत में आत्म-दाह का प्रयास करना चाहा।'

उसी समय आकाश मार्ग से विचरण करते हुए देवर्षि नारद ने उन्हें देखा और बिना विलम्ब किये वहां पहुंचे तथा उन्हें आत्म-दाह से रोकते हुए कहा - हे महात्मन! आप दोनों कौन हैं और शास्त्रों में भी जिसे घोर निंदनीय कर्म कहा गया है उसी आत्म-दाह के लिए सलग्न क्यों हो रहे हो? देवर्षि नारद को अपने समीप देखकर तथा उनके प्रश्न सुनकर दोनों फफक-फफक कर रो पड़े। रोते-रोते उन्होंने सबकुछ कह दिया। 

उनकी दशा को जानकर नारदजी को बहुत दया लगी और उन्होंने कहा - हे ऋषि शांतनु एवं देवी ज्ञानवती ! संसार में सभी जीव अपने-अपने कर्मों के अनुसार ही फल भोगते हैं। किसी प्राणी को सुख मिलता है और किसी को दुःख। हर प्राणी अपने सुखों का भोग इस प्रकार करता है जैसे उसे कभी दुःख व्यापेगा ही नहीं। किन्तु यह सर्वथा असत्य है। जब भी दुःख आये तो मनुष्य को उसे अवश्य भोगना चाहिए। क्योंकि उससे वह जितना दूर भागने का प्रयास करता है वह उसे उतना ही कष्ट देता है। जिस प्रकार हर रात्रि के बाद दिन और दिन के बाद रात्रि होती है वहीँ रिश्ता सुख और दुःख का भी है। अतः अपने मन से आत्म-दाह का चिंतन निकाल कर फ़ेंक दो। 

नारदजी कि बातों को सुनकर देवी ज्ञानवती बोली - हे पूज्यवर! आपका कथन सर्वथा सत्य है। किन्तु अपमान की जो जलन हमारे मन में है उसे किस प्रकार मिटाया जाये ? यदि पुनः नगर लौट जाते हैं तो फिर वही घाव सहने पड़ेंगे। 

नारदजी बोले - देवी! तप ही एक ऐसा मार्ग है जो हमारे अंदर उठे मोह का समूल नाश कर देता है। तप कि शक्ति से ही ब्रह्माजी सृष्टि का सञ्चालन करते हैं, तप से ही महादेव संहार और उसी तप के बल से श्रीभगवान पालन करते हैं। स्वयं मैं भी तप ही के बल से हूँ, समस्त संसार भी उसी तप से है। भगवान का घौर तप बड़े से बड़े पर्वत को भी पिघला सकता है। राजा भगीरथ ने तप के बल से गंगा को धरती पर उतारा। विश्वामित्र मुनि ने भी वह पाया जो उन्होंने सोचा था। हे देवी ! जरा विचार तो करो यदि अल्पायु मार्कंडेय को अमरता का वरदान मिल सकता है तो तुम्हे क्यों नहीं। सच्चे हृदय से और भगवान पर अटूट विश्वास दिखाते हुए उस परमपिता कि तपस्या करो जिन्होंने तुम्हारे भाग्य को निष्ठुर बनाया है। तुम्हारे भाग्य में संतान का मुख देखना नहीं है किन्तु संतान तो हो सकती है इसी आशा के साथ तप करो। 

'देवर्षि नारद के अनमोल वचन से दोनों का आत्म-बल एकदम से जागृत हो गया और उन्होंने उसी क्षण तप करने का निश्चय किया। ऋषि शांतनु और देवी ज्ञानवती ने कई वर्षों तक अत्यंत कठोर तप किया। उनके तप को देखते हुए अंततः परमपिता विधाता को आना ही पड़ा। अपने सम्मुख विधाता को देखकर दोनों ने अपना शीश झुकाकर उनको प्रणाम किया।'

ब्रह्माजी बोले - मैं तुम दोनों कि तपस्या से बहुत प्रसन्न हूँ। अपना वर मांगो। उन्होंने कहा - भगवन! हमे कोई संतान नहीं है हमें संतान सुख का आशीर्वाद प्रदान करें। 

तब ब्रह्माजी सोच में पड़ते हुए बोले - किन्तु तुम दोनों के भाग्य में संतान नहीं है फिर किस प्रकार यह संभव है? शांतनु बोले - देव! आप के लिए कुछ भी असंभव नहीं, आप विधाता हैं आपकी इच्छा से ही हम अपना तप पूर्ण कर पाने में सफल हुए हैं। यदि आपकी इच्छा नहीं होती तो नारदजी हमे उपदेश कैसे देने आते। हे परमपिता परमेश्वर ! हम दिन दुखियों पर कृपा करें। संतान सुख के अतिरिक्त हमे किसी भी फल की कामना नहीं है। यदि यह संभव नहीं तो भले ही हमे मृत्यु दीजिये। 

ऋषि शांतनु के वचनों को सुनने के बाद अंततः ब्रह्माजी बोले - ऋषि शांतनु एवं देवी ज्ञानवती ! हम तुम्हे निराश नहीं करेंगे। हम तुम्हे तुम्हारा इच्छित वर अवश्य प्रदान करेंगे किन्तु तुम दोनों को हमारी एक शर्त माननी होगी। हमारे वरदान के फलस्वरूप तुम्हे निश्चित समय पर पुत्र होगा। लेकिन इस बात का स्मरण रहे यदि तुम दोनों ने अपने पुत्र का मुख देखने का प्रयास किया तो अंधे हो जाओगे।    

ब्रह्माजी की बात से दोनों को अपने अंधे होने से ज्यादा इस बात की प्रसन्नता थी कि उन्हें पुत्र कि प्राप्ति होगी। यह जानकर दोनों ने अपनी सहमति प्रदान की तभी परमपिता बोले - तथास्तु! अब हमारे आशीर्वाद से तुम्हे एक ऐसा पुत्र होगा जो मातृ-पितृ भक्त कहलायेगा। जिसका यश तीनो लोकों में सदा-सदा के लिए अमर होगा। इस प्रकार दोनों को उनका मनोवांछित वर प्रदान कर ब्रह्माजी अंतर्ध्यान हो जाते हैं। 

'नौ माह पश्चात शांतनु और ज्ञानवती के पुत्र का जन्म होता है। पुरे नगर में समाचार फैल जाता है। उनके पुत्र का मुख देखने के लिए भारी भीड़ लग जाती है। शांतनु और ज्ञानवती का मोह जाग उठा उन दोनों को ब्रह्माजी के वरदान का स्मरण नहीं रहा और वे अपने पुत्र का मुख जैसे ही देखने के लिए आगे बढ़ते हैं उसी क्षण दोनों के नेत्रों की ज्योति चली जाती है।'

ज्ञानवती अपने भाग्य को कोसती हुई विलाप करती हैं तभी शांतनु उसे समझाते हैं - देवी व्यर्थ में अपने आंसू नहीं बहाओ। हमे इस बात की प्रसन्नता होनी चाहिए की ब्रह्माजी ने हमे उस संतान का सुख प्रदान किया जो हमारे भाग्य में ही नहीं था। अब यही बालक हमारी दो आखें बनेगा। इसकी मधुर आवाज़ ही हमारे नेत्र होंगे अतः हम आज से इसे श्रवण (श्रवण का अर्थ सुनना होता है) कह कर पुकारेंगे।    

इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-३९(39) समाप्त !

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