अगस्त्यजी कहते हैं - राजन् ! तत्पश्चात् महाबाहु रावण भूतल पर विचरता हुआ हिमालय के वन में आकर वहाँ सब ओर चक्कर लगाने लगा।
वहाँ उसने एक तपस्विनी कन्या को देखा, जो अपने अङ्गों में काले रंग का मृगचर्म तथा सिर पर जटा धारण किये हुए थी। वह ऋषिप्रोक्त विधि से तपस्या में संलग्न हो देवाङ्गना के समान उद्दीप्त हो रही थी।
उत्तम एवं महान् व्रत का पालन करनेवाली तथा रूप-सौन्दर्य से सुशोभित उस कन्या को देखकर रावण का चित्त कामजनित मोह के वशीभूत हो गया। उसने अट्टहास करते हुए उससे पूछा - भद्रे! तुम अपनी इस युवावस्था के विपरीत यह कैसा बर्ताव कर रही हो? तुम्हारे इस दिव्य रूप के लिये ऐसा आचरण कदापि उचित नहीं है। भीरु! तुम्हारे इस रूप की कहीं तुलना नहीं है। यह पुरुषों के हृदय में कामजनित उन्माद पैदा करने वाला है। अत: तुम्हारा तप में संलग्न होना उचित नहीं है। तुम्हारे लिये हमारे हृदय से यही निर्णय प्रकट हुआ है।
‘भद्रे! तुम किसकी पुत्री हो? यह कौन सा व्रत कर रही हो? सुमुखि ! तुम्हारा पति कौन है? भीरु ! जिसके साथ तुम्हारा सम्बन्ध है, वह मनुष्य इस भूलोक में महान् पुण्यात्मा है। मैं जो कुछ पूछता हूँ, वह सब मुझे बताओ । किस फल के लिये यह परिश्रम किया जा रहा है?'
रावण के इस प्रकार पूछने पर वह यशस्विनी तपोधना कन्या उसका विधिवत् आतिथ्य सत्कार करके बोली - अमिततेजस्वी ब्रह्मर्षि श्रीमान् कुशध्वज मेरे पिता थे, जो बृहस्पति के पुत्र थे और बुद्धि में भी उन्हीं के समान माने जाते थे। प्रतिदिन वेदाभ्यास करनेवाले उन महात्मा पिता से वाङ्मयी कन्या के रूप में मेरा प्रादुर्भाव हुआ था। मेरा नाम वेदवती है।
'जब मैं बड़ी हुई, तब देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग भी पिताजी के पास जा जाकर उनसे मुझे माँगने लगे। महाबाहु राक्षसेश्वर! पिताजी ने उनके हाथ में मुझे नहीं सौंपा। इसका क्या कारण था, मैं बता रही हूँ, सुनिये।'
'पिताजी की इच्छा थी कि तीनों लोकों के स्वामी देवेश्वर भगवान् विष्णु मेरे दामाद हों। इसीलिये वे दूसरे किसी के हाथ में मुझे नहीं देना चाहते थे। उनके इस अभिप्राय को सुनकर बलाभिमानी दैत्यराज शम्भु उन पर कुपित हो उठा और उस पापी ने रात में सोते समय मेरे पिताजी की हत्या कर डाली। इससे मेरी महाभागा माता को बड़ा दुःख हुआ और वे पिताजी के शव को हृदय से लगाकर चिता की आग में प्रविष्ट हो गयीं। तब से मैंने प्रतिज्ञा कर ली है कि भगवान् नारायण के प्रति पिताजी का जो मनोरथ था, उसे मैं सफल करूँगी। इसलिये मैं उन्हीं को अपने हृदय मन्दिर में धारण करती हूँ।'
‘यही प्रतिज्ञा करके मैं यह महान् तप कर रही हूँ। राक्षसराज ! आपके प्रश्न के अनुसार यह सब बात मैंने आपको बता दी। नारायण ही मेरे पति हैं। उन पुरुषोत्तम के सिवा दूसरा कोई मेरा पति नहीं हो सकता। उन नारायणदेव को प्राप्त करने के लिये ही मैंने इस कठोर व्रत का आश्रय लिया है।
‘राजन्! पौलस्त्यनन्दन! मैंने आपको पहचान लिया है। आप जाइये। त्रिलोकी में जो कोई भी वस्तु विद्यमान है, वह सब मैं तपस्या द्वारा जानती हूँ।'
यह सुनकर रावण कामबाण से पीड़ित हो विमान से उतर गया और उस उत्तम एवं महान् व्रत का पालन करने वाली कन्या से फिर बोला - सुश्रोणि! तुम गर्वीली जान पड़ती हो, तभी तो तुम्हारी बुद्धि ऐसी हो गयी है। मृगशावकलोचने! इस तरह पुण्य का संग्रह बूढ़ी स्त्रियों को ही शोभा देता है, तुम जैसी युवती को नहीं। तुम तो सर्वगुणसम्पन्न एवं त्रिलोकी की अद्वितीय सुन्दरी हो। तुम्हें ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। भीरु ! तुम्हारी जवानी बीती जा रही है।
'भद्रे! मैं लङ्का का राजा हूँ। मेरा नाम दशग्रीव है। तुम मेरी भार्या हो जाओ और सुखपूर्वक उत्तम भोग भोगो। पहले यह तो बताओ, तुम जिसे विष्णु कहती हो, वह कौन है? अङ्गने ! भद्रे ! तुम जिसे चाहती हो, वह बल, पराक्रम, तप और भोग-वैभव के द्वारा मेरी समानता नहीं कर सकता।
उसके ऐसा कहने पर कुमारी वेदवती उस निशाचर से बोली - नहीं, नहीं, ऐसा न कहो। राक्षसराज! भगवान् विष्णु तीनों लोकों के अधिपति हैं। सारा संसार उनके चरणों में मस्तक झुकाता है। तुम्हारे सिवा दूसरा कौन पुरुष है, जो बुद्धिमान् होकर भी उनकी अवहेलना करेगा।
'वेदवती के ऐसा कहने पर उस राक्षस ने अपने हाथ से उस कन्या के केश पकड़ लिये। इससे वेदवती को बड़ा क्रोध हुआ। उसने अपने हाथ से उन केशों को काट दिया। उसके हाथ ने तलवार बनकर तत्काल उसके केशों को मस्तक से अलग कर दिया।'
वेदवती रोष से प्रज्वलित सी हो उठी। वह जल मरने के लिये उतावली हो अग्नि की स्थापना करके उस निशाचर को दग्ध करती हुई सी बोली - नीच राक्षस! तूने मेरा तिरस्कार किया है; अत: अब इस जीवन को सुरक्षित रखना मुझे अभीष्ट नहीं है। इसलिये तेरे देखते-देखते मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगी।
'तुझ पापात्मा ने इस वन में मेरा अपमान किया है। इसलिये मैं तेरे वध के लिये फिर उत्पन्न होऊँगी। स्त्री अपनी शारीरिक शक्ति से किसी पापाचारी पुरुष का वध नहीं कर सकती। यदि मैं तुझे शाप दूँ तो मेरी तपस्या क्षीण हो जायेगी। यदि मैंने कुछ भी सत्कर्म, दान और होम किये हों तो अगले जन्म में मैं सती - साध्वी अयोनिजा (बिना गर्भ से उत्पन्न) कन्या के रूप में प्रकट होऊँ तथा किसी धर्मात्मा पिता की पुत्री बनूँ।'
'ऐसा कहकर वह प्रज्वलित अग्नि में समा गयी। उस समय उसके चारों ओर आकाश से दिव्य पुष्पों की वर्षा होने लगी। तदनन्तर दूसरे जन्म में वह कन्या पुनः एक कमल से प्रकट हुई। उस समय उसकी कान्ति कमल के समान ही सुन्दर थी। उस राक्षस ने पहले की ही भाँति फिर वहाँ से भी उस कन्या को प्राप्त कर लिया।'
कमल के भीतरी भाग के समान सुन्दर कान्तिवाली उस कन्या को लेकर रावण अपने घर गया। वहाँ उसने मन्त्री को वह कन्या दिखायी। मन्त्री बालक-बालिकाओं के लक्षणों को जाननेवाला था। उसने उसे अच्छी तरह देखकर रावण से कहा - राजन् ! यह सुन्दरी कन्या यदि घर में रही तो आपके वध का ही कारण होगी, ऐसा लक्षण देखा जाता है।
'श्रीराम! यह सुनकर रावण ने उसे समुद्र में फेंक दिया। तत्पश्चात् वह भूमि को प्राप्त होकर राजा जनक के यज्ञमण्डप के मध्यवर्ती भूभाग में जा पहुँची। वहाँ राजा के हल के मुखभाग से उस भूभाग के जोते जाने पर वह सती साध्वी कन्या फिर प्रकट हो गयी। प्रभो! वही यह वेदवती महाराज जनक की पुत्री के रूप में प्रादुर्भूत हो आपकी पत्नी हुई है। महाबाहो ! आप ही सनातन विष्णु हैं।'
'उस वेदवती ने पहले ही अपने रोषजनित शाप के द्वारा आपके उस पर्वताकार शत्रु को मार डाला था, जिसे अब आपने आक्रमण करके मौत के घाट उतारा है। प्रभो! आपका पराक्रम अलौकिक है। इस प्रकार यह महाभागा देवी विभिन्न कल्पों में पुन: रावण वध के उद्देश्य से मत्र्यलोक में अवतीर्ण होती रहेगी। यज्ञवेदी पर अग्निशिखा के समान हल से जोते गये क्षेत्र में इसका आविर्भाव हुआ है।'
यह वेदवती पहले सत्ययुग में प्रकट हुई थी। फिर त्रेतायुग आने पर उस राक्षस रावण के वध के लिये मिथिलावर्ती राजा जनक के कुल में सीता रूप से अवतीर्ण हुई। सीता (हल जोतने से भूमि पर बनी हुई रेखा) - से उत्पन्न होने के कारण मनुष्य इस देवी को सीता कहते हैं। जो आपकी ही प्राणवल्लभा देवी लक्ष्मी का अवतार हैं।
इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-३८(38) समाप्त !
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