भाग-३७(37) ब्रह्माजी की आज्ञा से भगीरथ का गंगाजल से अपने पितरों का तर्पण करना

 


सूतजी बोले - ऋषिगणों ! इस प्रकार गंगाजी को साथ लिये राजा भगीरथ ने समुद्र तक जाकर रसातल में, जहाँ उनके पूर्वज भस्म हुए थे, प्रवेश किया। वह भस्मराशि जब गंगाजी के जल से आप्लावित हो गयी, तब सम्पूर्ण लोकों के स्वामी भगवान् ब्रह्मा ने वहाँ पधारकर राजा से इस प्रकार कहा - नरश्रेष्ठ! महात्मा राजा सगर के साठ हजार पुत्रों का तुमने उद्धार कर दिया। अब वे देवताओं की भाँति स्वर्गलोक में जा पहुँचे। भूपाल ! इस संसार में जब तक सागर का जल मौजूद रहेगा; तब तक सगर के सभी पुत्र देवताओं की भाँति स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित रहेंगे। ये गंगा तुम्हारी भी ज्येष्ठ पुत्री होकर रहेंगी और तुम्हारे नाम पर रखे हुए भागीरथी नाम से इस जगत में विख्यात होंगी। 

'त्रिपथगा, दिव्या और भागीरथी - इन तीनों नामों से गंगा की प्रसिद्धि होगी। ये आकाश, पृथ्वी और पाताल तीनों पथों को पवित्र करती हुई गमन करती हैं, इसलिये त्रिपथगामिनी मानी गयी हैं। नरेश्वर! महाराज! अब तुम गंगाजी के जल से यहाँ अपने सभी पितामहों का तर्पण करो और इस प्रकार अपनी तथा अपने पूर्वजों द्वारा की हुई प्रतिज्ञा को पूर्ण कर लो।' 

‘राजन्! तुम्हारे पूर्वज धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महायशस्वी राजा सगर भी गंगा को यहाँ लाना चाहते थे; किंतु उनका यह मनोरथ पूर्ण नहीं हुआ। वत्स! इसी प्रकार लोक में अप्रतिम प्रभावशाली, उत्तम गुणविशिष्ट, महर्षितुल्य तेजस्वी, मेरे समान तपस्वी तथा क्षत्रिय-धर्मपरायण राजर्षि अंशुमान ने भी गंगा को यहाँ लाने की इच्छा की; परंतु वे इस पृथ्वी पर उन्हें लाने की प्रतिज्ञा पूरी न कर सके। निष्पाप महाभाग! तुम्हारे अत्यन्त तेजस्वी पिता दिलीप भी गंगा को यहाँ लाने की इच्छा करके भी इस कार्य में सफल न हो सके।' 

‘पुरुषप्रवर! तुमने गंगा को भूतल पर लाने की वह प्रतिज्ञा पूर्ण कर ली। इससे संसार में तुम्हें परम उत्तम एवं महान् यश की प्राप्ति हुई है। शत्रुदमन! तुमने जो गंगाजी को पृथ्वी पर उतारने का कार्य पूरा किया है, इससे उस महान् ब्रह्मलोक पर अधिकार प्राप्त कर लिया है, जो धर्मका आश्रय है। नरश्रेष्ठ! पुरुषप्रवर! गंगाजी का जल सदा ही स्नान के योग्य है। तुम स्वयं भी इसमें स्नान करो और पवित्र होकर पुण्य का फल प्राप्त करो। नरेश्वर ! तुम अपने सभी पितामहों का तर्पण करो। तुम्हारा कल्याण हो । अब मैं अपने लोक को जाऊँगा। तुम भी अपनी राजधानी को लौट जाओ।' 

'ऐसा कहकर सर्वलोकपितामह महायशस्वी देवेश्वर ब्रह्माजी जैसे आये थे, वैसे ही देवलोक को लौट गये। नरश्रेष्ठ! महायशस्वी राजर्षि राजा भगीरथ भी गंगाजी के उत्तम जल से क्रमश: सभी सगर-पुत्रों का विधिवत् तर्पण करके पवित्र हो अपने नगर को चले गये। इस प्रकार सफल मनोरथ होकर वे अपने राज्य का शासन करने लगे। अपने राजा को पुनः सामने पाकर प्रजा वर्ग को बड़ी प्रसन्नता हुई। सबका शोक जाता रहा। सबके मनोरथ पूर्ण हुए और चिन्ता दूर हो गयी। 

सूतजी बोले - हे ऋषियों ! मैंने गंगा जी की महिमा के सम्बन्ध में जो कुछ कहा है, उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। क्योंकि गंगा जी भगवान् के उन चरणकमलों से निकली हैं, जिनका श्रद्धा के साथ चिन्तन करके बड़े-बड़े मुनि निर्मल हो जाते हैं और तीनों गुणों के कठिन बन्धन को काटकर तुरन्त भगवत्स्वरूप बन जाते हैं। फिर गंगा जी संसार का बन्धन काट दें, इसमें कौन बड़ी बात है।

'यह गंगावतरण का मंगलमय उपाख्यान आयु बढ़ानेवाला है। धन, यश, आयु, पुत्र और स्वर्ग की प्राप्ति करने वाला है। जो ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा दूसरे वर्ण के लोगों को भी यह कथा सुनाता है, उसके ऊपर देवता और पितर प्रसन्न होते हैं। जो इसका श्रवण करता है वह सम्पूर्ण  कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं तथा आयु में वृद्धि होती है।'   

इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-३७(37) समाप्त !

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