भाग-३७(37) नन्दीश्वर का रावण को शाप, भगवान् शङ्कर द्वारा रावण का मान भङ्ग तथा उनसे चन्द्रहास नामक खड्ग की प्राप्ति

 


अगस्त्यजी कहते हैं - रघुकुलनन्दन राम ! अपने भाई कुबेर को जीतकर राक्षसराज दशग्रीव 'शरवण' नाम से प्रसिद्ध सरकंडों के विशाल वन में गया, जहाँ महासेन कार्तिकेयजी की उत्पत्ति हुई थी। वहाँ पहुँचकर दशग्रीव ने सुवर्णमयी कान्ति से युक्त उस विशाल शरवण (सरकंडों के जंगल) को देखा, जो किरण-समूहों से व्याप्त होने के कारण दूसरे सूर्यदेव के समान प्रकाशित हो रहा था। उसके पास ही कोई पर्वत था, जहाँ की वनस्थली बड़ी रमणीय थी। श्रीराम ! जब वह उसपर चढ़ने लगा, तब देखता है कि पुष्पक विमान की गति रुक गयी।  

तब वह राक्षसराज अपने उन मन्त्रियों के साथ मिलकर विचार करने लगा - 'क्या कारण है कि यह पुष्पक विमान रुक गया? यह तो स्वामी की इच्छा के अनुसार चलने वाला बनाया गया है। फिर आगे क्यों नहीं बढ़ता? कौन-सा ऐसा कारण बन गया, जिससे यह पुष्पक विमान मेरी इच्छा के अनुसार नहीं चल रहा है? सम्भव है, इस पर्वत के ऊपर कोई रहता हो, उसी का यह कर्म हो सकता है? 

श्रीराम! तब बुद्धि कुशल मारीच ने कहा - राजन् ! यह पुष्पकविमान जो आगे नहीं बढ़ रहा है, इसमें कुछ-न- कुछ कारण अवश्य है। अकारण ही ऐसी घटना घटित हो गयी हो, यह बात नहीं है। अथवा यह पुष्पक विमान कुबेर के सिवा दूसरे का वाहन नहीं हो सकता, इसीलिये उनके बिना यह निश्चेष्ट हो गया है। 

'उसकी इस बात के बीच में ही भगवान् शङ्कर के पार्षद नन्दीश्वर दशानन के पास आ पहुँचे, जो देखने में बड़े विकराल थे। उनकी अङ्गकान्ति काले एवं पिङ्गल वर्ण की थी। वे नाटे कद के विकट रूपवाले थे। उनका मस्तक मुण्डित और भुजाएँ छोटी-छोटी थीं। वे बड़े बलवान् थे।' 

नन्दी ने निःशङ्क होकर राक्षसराज दशग्रीवसे इस प्रकार कहा - दशानन! लौट जाओ। इस पर्वत पर भगवान् शङ्कर क्रीडा करते हैं। यहाँ सुपर्ण, नाग, यक्ष, देवता, गन्धर्व और राक्षस सभी प्राणियों का आना-जाना बंद कर दिया गया है। 

नन्दी की यह बात सुनकर दशग्रीव कुपित हो उठा। उसके कानों के कुण्डल हिलने लगे। आँखें रोष से लाल हो गयीं और वह पुष्पक से उतरकर बोला - कौन है यह शङ्कर?

'ऐसा कहकर वह पर्वत के मूलभाग में आ गया।  वहाँ पहुँचकर उसने देखा, भगवान् शङ्कर से थोड़ी ही दूर पर चमचमाता हुआ शूल हाथ में लिये नन्दी दूसरे शिव की भाँति खड़े हैं। उनका मुँह वानर के समान था। उन्हें देखकर वह निशाचर उनका तिरस्कार करता हुआ सजल जलधर के समान गम्भीर स्वर में ठहाका मारकर हँसने लगा।' 

यह देख शिव के दूसरे स्वरूप भगवान् नन्दी कुपित हो वहाँ पास ही खड़े हुए निशाचर दशमुख से इस प्रकार बोले - दशानन! तुमने वानर रूप में मुझे देखकर मेरी अवहेलना की है और वज्रपात के समान भयानक अट्टहास किया है; अत: तुम्हारे कुल का विनाश करने के लिये मेरे ही समान पराक्रम, रूप और तेज से सम्पन्न वानर उत्पन्न होंगे। क्रूर निशाचर! नख और दाँत ही उन वानरों के अस्त्र होंगे तथा मन के समान उनका तीव्र वेग होगा। वे युद्ध के लिये उन्मत्त रहनेवाले और अतिशय बलशाली होंगे तथा चलते-फिरते पर्वतों के समान जान पड़ेंगे। 

‘वे एकत्र होकर मन्त्री और पुत्रों सहित तुम्हारे प्रबल अभिमान को और विशालकाय होने के गर्व को चूर-चूर कर देंगे। ओ निशाचर! मैं तुम्हें अभी मार डालने की शक्ति रखता हूँ, तथापि तुम्हें मारना नहीं है; क्योंकि अपने कुत्सित कर्मों द्वारा तुम पहले से ही मारे जा चुके हो अत: मरे हुए को मारने से क्या लाभ?'

महामना भगवान् नन्दी के इतना कहते ही देवताओं की दुन्दुभियाँ बज उठीं और आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। परंतु महाबली दशानन ने उस समय नन्दी के उन वचनों की कोई परवाह नहीं की और उस पर्वत के निकट जाकर कहा – पशुपते! जिसके कारण यात्रा करते समय मेरे पुष्पक विमान की गति रुक गयी, तुम्हारे उस पर्वत को, जो यह मेरे सामने खड़ा है, मैं जड़ से उखाड़ फेंकता हूँ। किस प्रभाव से शङ्कर प्रतिदिन यहाँ राजा की भाँति क्रीडा करते हैं? इन्हें इस जानने योग्य बात का भी पता नहीं है कि इनके समक्ष भय का स्थान उपस्थित है। 

'श्रीराम ! ऐसा कहकर दशग्रीव ने पर्वत के निचले भाग में अपनी भुजाएँ लगायीं और उसे शीघ्र उठा लेने का प्रयत्न किया। वह पर्वत हिलने लगा। पर्वत के हिलने से भगवान् शङ्कर के सारे गण काँप उठे। पार्वती देवी भी विचलित हो उठीं और भगवान् शङ्कर से लिपट गयीं। श्रीराम! तब देवताओं में श्रेष्ठ पापहारी महादेव ने उस पर्वत को अपने पैर के अँगूठे से खिलवाड़ में ही दबा दिया।' 

'फिर तो दशग्रीव की वे भुजाएँ, जो पर्वत के खंभों के समान जान पड़ती थीं, उस पहाड़ के नीचे दब गयीं। यह देख वहाँ खड़े हुए उस राक्षस के मन्त्री बड़े आश्चर्य में पड़ गये। उस राक्षस ने रोष तथा अपनी बाँहों की पीड़ा के कारण सहसा बड़े जोर से विराट – रोदन अथवा आर्तनाद किया, जिससे तीनों लोकों के प्राणी काँप उठे।' 

उसके मन्त्रियों ने समझा, अब प्रलयकाल आ गया और विनाशकारी वज्रपात होने लगा है। उस समय इन्द्र आदि देवता मार्ग में विचलित हो उठे समुद्रों में ज्वार आ गया। पर्वत हिलने लगे और यक्ष, विद्याधर तथा सिद्ध एक-दूसरे से पूछने लगे - 'यह क्या हो गया?’

तदनन्तर दशग्रीव के मन्त्रियों ने उससे कहा - 'महाराज दशानन ! अब आप नीलकण्ठ उमावल्लभ महादेवजी को संतुष्ट कीजिये। उनके सिवा दूसरे किसी को हम ऐसा नहीं देखते, जो यहाँ आपको शरण दे सके। आप स्तुतियों द्वारा उन्हें प्रणाम करके उन्हीं की शरण में जाइये। भगवान् शङ्कर बड़े दयालु हैं। वे संतुष्ट होकर आप पर कृपा करेंगे। 

मन्त्रियों के ऐसा कहने पर दशमुख रावण ने भगवान् वृषभध्वज को प्रणाम करके नाना प्रकार के स्तोत्रों तथा सामवेदोक्त मन्त्रों द्वारा उनका स्तवन किया। 

रावणरचित शिवताण्डवस्तोत्रम्

जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।

डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥ १॥

जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी-विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्द्धनि ।

धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥ २ ॥

धराधरेन्द्रनन्दिनीविलासबन्धुबन्धुर-स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे ।

कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥ ३ ॥

जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा-कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।

मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥ ४ ॥

सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर-प्रसूनधूलिधोरणीविधूसराङ्घ्रिपीठभूः ।

भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटकः श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ॥ ५ ॥

ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा-निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम् ।

सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसम्पदे शिरोजटालमस्तु नः ॥ ६ ॥

करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-द्धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके ।

धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥ ७ ॥

नवीनमेघमण्डलीनिरुद्धदुर्धरस्फुर-त्कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः ।

निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरन्धरः ॥ ८॥

प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् ।

स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ॥ ९ ॥

अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरी-रसप्रवाहमाधुरी विजृम्भणामधुव्रतम्।

स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥ १० ॥

जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वस-द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट्

धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल-ध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्डताण्डवः शिवः ॥ ११ ॥

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजो-र्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।

तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥ १२॥

कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन्विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरः स्थमञ्जलिं वहन् ।

विलोललोललोचनो ललामभाललग्नकःशिवेति मन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥ १३॥

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।

तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥ १४ ॥

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।

विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम् ॥१५॥

इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्।

हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं विमोहनं हि देहना तु शंकरस्य चिंतनम ॥१६॥

पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।

तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥१७॥

हिंदी अर्थ 

जिन्होंने जटारूपी अटवी (वनरूपी) से निकलती हुई गंगाजीके गिरते हुए प्रवाहोंसे पवित्र किये गये गलेमें सर्पोंकी लटकती हुई विशाल मालाको धारणकर, डमरूके डम-डम शब्दोंसे मण्डित प्रचण्ड ताण्डव (नृत्य) किया, वे शिवजी हमारे कल्याणका विस्तार करें ॥ १ ॥

जिनका मस्तक जटारूपी कड़ाहमें वेगसे घूमती हुई गंगाकी चंचल तरंग-लताओं से सुशोभित हो रहा है, ललाटाग्नि धक् धक् जल रही है, सिरपर बाल चन्द्रमा विराजमान हैं, उन (भगवान् शिव) में मेरा निरन्तर अनुराग हो ॥ २ ॥

गिरिराजकिशोरी पार्वतीके विलासकालोपयोगी शिरोभूषणसे समस्त दिशाओंको प्रकाशित होते देख जिनका मन आनन्दित हो रहा है, जिनकी निरन्तर कृपादृष्टिसे कठिन आपत्तिका भी निवारण हो जाता है, ऐसे किसी दिगम्बर तत्त्वमें मेरा मन विनोद करे ॥ ३ ॥

जिनके जटाजूटवर्ती भुजंगमोंके फणकी मणियोंका फैलता हुआ पिंगल प्रभापुञ्ज दिशारूपिणी अंगनाओंके मुखपर कुंकुमरागका अनुलेप कर रहा है, मतवाले हाथीके हिलते हुए चमड़ेका उत्तरीय वस्त्र (चादर) धारण करनेसे स्निग्धवर्ण हुए उन भूतनाथमें मेरा चित्त अद्भुत विनोद करे ॥ ४ ॥

जिनकी चरणपादुकाएँ इन्द्र आदि समस्त देवताओंके [ प्रणाम करते समय ] मस्तकवर्ती कुसुमोंकी धूलिसे धूसरित हो रही हैं; नागराज (शेष) के हारसे बँधी हुई जटावाले वे भगवान् चन्द्रशेखर मेरे लिये चिरस्थायिनी सम्पत्तिके साधक हों ॥ ५ ॥

जिसने ललाट-वेदीपर प्रज्वलित हुई अग्निके स्फुलिंगोंके तेजसे कामदेवको नष्ट कर डाला था, जिसे इन्द्र नमस्कार किया करते हैं, सुधाकरकी कलासे सुशोभित मुकुटवाला वह [श्रीमहादेवजीका] उन्नत विशाल ललाटवाला जटिल मस्तक हमारी सम्पत्तिका साधक हो ॥ ६ ॥

जिन्होंने अपने विकराल भालपट्टपर धक् धक् जलती हुई अग्निमें प्रचण्ड कामदेवको हवन कर दिया था, गिरिराजकिशोरीके स्तनोंपर पत्रभंगरचना करनेके एकमात्र कारीगर उन भगवान् त्रिलोचनमें मेरी धारणा लगी रहे ॥ ७ ॥

जिनके कण्ठमें नवीन मेघमालासे घिरी हुई अमावस्याकी आधी रातके समय फैलते हुए दुरूह अन्धकारके समान श्यामता अंकित हैं; जो गजचर्म लपेटे हुए हैं, वे संसारभारको धारण करनेवाले चन्द्रमा [के सम्पर्क ] से मनोहर कान्तिवाले भगवान् गंगाधर मेरी सम्पत्तिका विस्तार करें ॥ ८ ॥

जिनका कण्ठदेश खिले हुए नील कमलसमूहकी श्याम प्रभाका अनुकरण करनेवाली हरिणीकी-सी छविवाले चिह्नसे सुशोभित है तथा जो कामदेव, त्रिपुर, भव (संसार), दक्ष यज्ञ, हाथी, अन्धकासुर और यमराजका भी उच्छेदन करनेवाले हैं उन्हें मैं भजता हूँ ॥ ९ ॥

जो अभिमानरहित पार्वतीकी कलारूप कदम्बमञ्जरीके मकरन्दस्रोतकी बढ़ती हुई माधुरीके पान करनेवाले मधुप हैं तथा कामदेव, त्रिपुर, भव, दक्ष- यज्ञ, हाथी, अन्धकासुर और यमराजका भी अन्त करनेवाले हैं, उन्हें मैं भजता हूँ॥ १० ॥

जिनके मस्तकपर बड़े वेगके साथ घूमते हुए भुजंगके फुफकारनेसे ललाटकी भयंकर अग्नि क्रमशः धधकती हुई फैल रही है, धिमि-धिमि बजते हुए मृदंगके गम्भीर मंगल घोषके क्रमानुसार जिनका प्रचण्ड ताण्डव हो रहा है, उन भगवान् शंकरकी जय हो ॥ ११ ॥

पत्थर और सुन्दर बिछौनोंमें, साँप और मुक्ताकी मालामें, बहुमूल्य रत्न तथा मिट्टीके ढेलेमें, मित्र या शत्रुपक्षमें, तृण अथवा कमललोचना तरुणीमें, प्रजा और पृथ्वीके महाराजमें समान भाव रखता हुआ मैं कब सदाशिवको भजूँगा ॥ १२ ॥

सुन्दर ललाटवाले भगवान् चन्द्रशेखरमें दत्तचित्त हो अपने कुविचारोंको त्यागकर गंगाजीके तटवर्ती निकुंजके भीतर रहता हुआ सिरपर हाथ जोड़ डबडबायी हुई विह्वल आँखोंसे ‘शिव’ मन्त्रका उच्चारण करता हुआ मैं कब सुखी होऊँगा ? ॥ १३ ॥

जिनके सिर में गुथे पुष्पों की मालाओं से झड़ते हुए सुगंधमय राग से मनोहर परम शोभा के धाम महादेव जी के अंगों की सुन्दरता परमानन्दयुक्त हमारे मन की प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहे। ॥ १४ ॥

प्रचण्ड बड़वानल के समान पापों को भस्म करने में प्रचंड अमंगलों का विनाश करने वाले अष्ट सिद्धियों तथा चंचल नेत्रों वाली कन्याओं से शिव विवाह समय गान की मंगलध्वनि सब मंत्रों में परमश्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित संसारिक दुःखों को नष्ट कर विजय पायें। ॥१५॥

इस उत्तमोत्तम शिव ताण्डव स्त्रोत को नित्य पढ़ने या श्रवण करने मात्र से प्राणि पवित्र हो जाता है, और परंगुरू शिव में स्थापित हो जाता है तथा सभी प्रकार के भ्रमों से मुक्त हो जाता है। ॥१६॥

प्रातः शिवपुजन के अंत में इस रावणकृत शिवताण्डवस्तोत्र के गान से लक्ष्मी स्थिर रहती हैं तथा भक्त रथ, गज, घोडा आदि सम्पदा से सर्वदा युक्त रहता है। ॥१७॥

इस प्रकार हाथों की पीड़ा से रोते और स्तुति करते हुए उस राक्षस के एक हजार वर्ष बीत गये।  

श्रीराम! तत्पश्चात् उस पर्वत के शिखर पर स्थित हुए भगवान् महादेव प्रसन्न हो गये। उन्होंने दशग्रीव की भुजाओं को उस संकट से मुक्त करके उससे कहा - दशानन! तुम वीर हो। तुम्हारे पराक्रम से मैं प्रसन्न हूँ। तुमने पर्वत से दब जाने के कारण जो अत्यन्त भयानक राव (आर्तनाद) किया था, उससे भयभीत होकर तीनों लोकों के प्राणी रो उठे थे, इसलिये राक्षसराज ! अब तुम रावण के नामसे प्रसिद्ध होओगे। देवता, मनुष्य, यक्ष तथा दूसरे जो लोग भूतल पर निवास करते हैं, वे सब इस प्रकार समस्त लोकों को रुलानेवाले तुझ दशग्रीव को रावण कहेंगे। पुलस्त्यनन्दन! अब तुम जिस मार्ग से जाना चाहो, बेखटके जा सकते हो। राक्षसपते ! मैं भी तुम्हें अपनी ओर से जाने की आज्ञा देता हूँ, जाओ। 

भगवान् शङ्कर के ऐसा कहने पर लङ्केश्वर बोला- 'महादेव! यदि आप प्रसन्न हैं तो वर दीजिये। मैं आपसे वर की याचना करता हूँ। मैंने देवता, गन्धर्व, दानव, राक्षस, गुह्यक, नाग तथा अन्य महाबलशाली प्राणियों से अवध्य होने का वर प्राप्त किया है। देव! मनुष्यों को तो मैं कुछ गिनता ही नहीं। मेरी मान्यता के अनुसार उनकी शक्ति बहुत थोड़ी है। त्रिपुरान्तक! मुझे ब्रह्माजी के द्वारा दीर्घ आयु भी प्राप्त हुई है। ब्रह्माजी की दी हुई आयु का जितना अंश बच गया है, वह भी पूरा -का- पूरा प्राप्त हो जाये उसमें किसी कारण से कमी न हो। ऐसी मेरी इच्छा है। इसे आप पूर्ण कीजिये। साथ ही अपनी ओर से मुझे एक शस्त्र भी दीजिये। 

रावण के ऐसा कहने पर भूतनाथ भगवान् शङ्कर ने उसे एक अत्यन्त दीप्तिमान् चन्द्रहास नामक खड्ग दिया और उसकी आयु का जो अंश बीत गया था, उसको भी पूर्ण कर दिया। उस खड्ग को देकर भगवान् शिवने कहा - तुम्हें कभी इसका तिरस्कार नहीं करना चाहिये। यदि तुम्हारे द्वारा कभी इसका तिरस्कार हुआ तो यह फिर मेरे ही पास लौट आयेगा; इसमें संशय नहीं है। 

'इस प्रकार भगवान् शङ्कर से नूतन नाम पाकर रावण ने उन्हें प्रणाम किया। तत्पश्चात् वह पुष्पकविमान पर आरूढ़ हुआ'

'श्रीराम ! इसके बाद रावण समूची पृथ्वी पर दिग्विजय के लिये भ्रमण करने लगा। उसने इधर-उधर जाकर बहुत-से महापराक्रमी क्षत्रियों को पीड़ा पहुँचायी। कितने ही तेजस्वी क्षत्रिय जो बड़े ही शूरवीर और रणोन्मत्त थे, रावण की आज्ञा न मानने के कारण सेना और परिवार सहित नष्ट हो गये। दूसरे क्षत्रियों ने, जो बुद्धिमान् माने जाते थे और उस राक्षस को अजेय समझते थे, उस बलाभिमानी निशाचर के सामने अपनी पराजय स्वीकार कर ली।' 

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-३७(37) समाप्त !

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