भाग-३६(36) भगीरथ की तपस्या से पृथ्वी पर गंगावतरण तथा गंगा का भगीरथ के साथ जाकर उनके पितरों का उद्धार करना

 


सूतजी कहते हैं - ऋषियों ! परमपिता ब्रह्माजी के चले जाने पर राजा भगीरथ पृथ्वी पर केवल अँगूठे के अग्रभाग को टिकाये हुए खड़े हो एक वर्ष तक भगवान् शङ्कर की उपासना में लगे रहे। 

वर्ष पूरा होने पर सर्वलोकवन्दित उमावल्लभ भगवान् पशुपति ने प्रकट होकर राजा से इस प्रकार कहा –  नरश्रेष्ठ! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हारा प्रिय कार्य अवश्य करूंगा। मैं गिरिराजकुमारी गंगादेवी को अपने मस्तक पर धारण करूंगा। 

'शङ्करजी की स्वीकृति मिल जाने पर हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगाजी, जिनके चरणों में सारा संसार मस्तक झुकाता है, बहुत बड़ा रूप धारण करके अपने वेग को दुस्सह बनाकर आकाश से भगवान् शङ्कर के शोभायमान मस्तक पर गिरीं। उस समय परम दुर्धर गंगादेवी ने यह सोचा था कि मैं अपने प्रखर प्रवाह के साथ शङ्करजी को लिये दिये पाताल में घुस जाऊँगी।'

'उनके इस अहंकार को जानकर त्रिनेत्रधारी भगवान् हर कुपित हो उठे और उन्होंने उस समय गंगा को अदृश्य कर देने का विचार किया।  पुण्यस्वरूपा गंगा भगवान् रुद्र के पवित्र मस्तकपर गिरीं। उनका वह मस्तक जटामण्डलरूपी गुफा से सुशोभित हिमालय के समान जान पड़ता था। उस पर गिरकर विशेष प्रयत्न करने पर भी किसी तरह वे पृथ्वी पर न जा सकीं। भगवान् शिव के जटा-जाल में उलझकर किनारे आकर भी गंगादेवी वहाँ से निकलने का मार्ग न पा सकीं और बहुत वर्षों तक उस जटाजूट में ही भटकती रहीं।' 

भगीरथ ने देखा, गंगाजी भगवान् शङ्कर के जटामण्डल में अदृश्य हो गयी हैं; तब वे पुन: वहाँ भारी तपस्या मेँ लग गये। उस तपस्या द्वारा उन्होंने भगवान् शिव को बहुत संतुष्ट कर लिया। तब महादेवजी ने गंगाजी को बिन्दुसरोवर में ले जाकर छोड़ दिया। वहाँ छूटते ही उनकी सात धाराएँ हो गयीं। लादिनी, पावनी और नलिनी – ये कल्याणमय जल से सुशोभित गंगा की तीन मंगलमयी धाराएँ पूर्व दिशा की ओर चली गयीं। सुचक्षु, सीता और महानदी सिन्धु– ये तीन शुभ धाराएँ पश्चिम दिशा की ओर प्रवाहित हुईं।' 

'उनकी अपेक्षा जो सातवीं धारा थी, वह महाराज भगीरथ के रथ के पीछे-पीछे चलने लगी। महातेजस्वी राजर्षि भगीरथ भी दिव्य रथ पर आरूढ़ हो आगे-आगे चले और गंगा उन्हीं के पथ का अनुसरण करने लगीं। इस प्रकार वे आकाश से भगवान् शङ्कर के मस्तक पर और वहाँ से इस पृथ्वी पर आयी थीं।' 

'गंगाजी की वह जलराशि महान् कलकल नाद के साथ तीव्र गति से प्रवाहित हुई। मत्स्य, कच्छप और शिंशुमार (सूँस) झुंड-के-झुंड उसमें गिरने लगे। उन गिरे हुए जलजन्तुओं से वसुन्धरा की बड़ी शोभा हो रही थी। तदनन्तर देवता, ऋषि, गन्धर्व, यक्ष और सिद्धगण नगर के समान आकार वाले विमानों, घोड़ों तथा गजराजों पर बैठकर आकाश से पृथ्वी पर गयी हुई गंगाजी की शोभा निहारने लगे।' 

'देवता लोग आश्चर्यचकित होकर वहाँ खड़े थे। जगत में गंगावतरण के इस अद्भुत एवं उत्तम दृश्य को देखने की इच्छा से अमित तेजस्वी देवताओं का समूह वहाँ जुटा हुआ था। तीव्र गति से आते हुए देवताओं तथा उनके दिव्य आभूषणों के प्रकाश से वहाँ का मेघरहित निर्मल आकाश इस तरह प्रकाशित हो रहा था, मानो उसमें सैकड़ों सूर्य उदित हो गये हों। शिंशुमार, सर्प तथा चञ्चल मत्स्यसमूहों के उछलने से गंगाजी के जलसे ऊपर का आकाश ऐसा जान पड़ता था, मानो वहाँ चञ्चल चपलाओं का प्रकाश सब ओर व्याप्त हो रहा हो।' 

'वायु आदि से सहस्रों टुकड़ों में बँटे हुए फेन आकाश में सब ओर फैल रहे थे। मानो शरद् ऋतु के श्वेत बादल अथवा हंस उड़ रहे हों। गंगाजी की वह धारा कहीं तेज, कहीं टेढ़ी और कहीं चौड़ी होकर बहती थी। कहीं बिलकुल नीचे की ओर गिरती और कहीं ऊँचे की ओर उठी हुई थी। कहीं समतल भूमि पर वह धीरे-धीरे बहती थी और कहीं-कहीं अपने ही जल से उसके जल में बारम्बार टक्करें लगती रहती थीं।' 

'गंगा का वह जल बार-बार ऊँचे मार्ग पर उठता और पुनः नीची भूमि पर गिरता था। आकाश से भगवान् शङ्कर के मस्तक पर तथा वहाँ से फिर पृथ्वी पर गिरा हुआ वह निर्मल एवं पवित्र गंगाजल उस समय बड़ी शोभा पा रहा था। उस समय भूतलनिवासी ऋषि और गन्धर्व यह सोचकर कि भगवान् शङ्कर के मस्तक से गिरा हुआ यह जल बहुत पवित्र है, उसमें आचमन करने लगे। जो शापभ्रष्ट होकर आकाश से पृथ्वी पर आ गये थे, वे गंगा के जल में स्नान करके निष्पाप हो गये तथा उस जल से पाप धुल जाने के कारण पुनः शुभ पुण्य से संयुक्त हो आकाश में पहुँचकर अपने लोकों को पा गये। उस प्रकाशमान जल के सम्पर्क से आनन्दित हुए सम्पूर्ण जगत को सदा के लिये बड़ी प्रसन्नता हुई। सब लोग गंगा में स्नान करके पापहीन हो गये। 

सूतजी कहते हैं - जैसा की मैंने पहले ही बताया कि राजर्षि महाराज भगीरथ दिव्य रथपर आरूढ़ हो आगे-आगे चल रहे थे और गंगाजी उनके पीछे-पीछे जा रही थीं। उस समय समस्त देवता, ऋषि, दैत्य, दानव, राक्षस, गन्धर्व, यक्षप्रवर, किन्नर, बड़े-बड़े नाग, सर्प तथा अप्सरा- ये सब लोग बड़ी प्रसन्नता के साथ राजा भगीरथ के रथ के पीछे गंगाजी के साथ-साथ चल रहे थे। सब प्रकार के जलजन्तु भी गंगाजी की उस जलराशि के साथ सानन्द जा रहे थे। 

'जिस ओर राजा भगीरथ जाते, उसी ओर समस्त पापों का नाश करनेवाली सरिताओं में श्रेष्ठ यशस्विनी गंगा भी जाती थीं। उस समय मार्ग में अद्भुत पराक्रमी महामना राजा जनु यज्ञ कर रहे थे। गंगाजी अपने जल-प्रवाह से उनके यज्ञमण्डप को बहा ले गयीं।' 

'ऋषियों ! राजा जनु इसे गंगाजी का गर्व समझकर कुपित हो उठे; फिर तो उन्होंने गंगाजी के उस समस्त जल को पी लिया। यह संसार के लिये बड़ी अद्भुत बात हुई। तब देवता, गन्धर्व तथा ऋषि अत्यन्त विस्मित होकर पुरुषप्रवर महात्मा जनु की स्तुति करने लगे। उन्होंने गंगाजी को उन महात्मा नरेश की कन्या बना दिया। (अर्थात् उन्हें यह विश्वास दिलाया कि गंगाजी को प्रकट करके आप इनके पिता कहलायेंगे।) इससे सामर्थ्यशाली महातेजस्वी जनु बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने कानों के छिद्रों द्वारा गंगाजी को पुनः प्रकट कर दिया, इसलिये गंगा जनु की पुत्री एवं जाह्नवी कहलाती हैं।' 

'वहाँ से गंगा फिर भगीरथ के रथ का अनुसरण करती हुई चलीं। उस समय सरिताओं में श्रेष्ठ जाह्नवी समुद्र तक जा पहुँचीं और राजा भगीरथ के पितरों के उद्धाररूपी कार्य की सिद्धि के लिये रसातल में गयीं। राजर्षि भगीरथ भी यन्तपूर्वक गंगाजी को साथ ले वहाँ गये। उन्होंने शाप से भस्म हुए अपने पितामहों को अचेत- सा होकर देखा। तदनन्तर गंगा के उस उत्तम जल ने सगर पुत्रों की उस भस्म राशि को आप्लावित कर दिया और वे सभी राजकुमार निष्पाप होकर स्वर्ग में पहुँच गए।' 

इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-३६(36) समाप्त !










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