भाग-३६(36) माणिभद्र तथा कुबेर की पराजय और रावण द्वारा पुष्पक विमान का अपहरण

 


अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन ! धनाध्यक्षों ने देखा, हजारों यक्षप्रवर भयभीत होकर भाग रहे हैं; तब उन्होंने माणिभद्र नामक एक महायक्ष से कहा - यक्षप्रवर! दशानन पापात्मा एवं दुराचारी है, तुम उसे मार डालो और युद्ध में शोभा पाने वाले वीर यक्षों को शरण दो उनकी रक्षा करो। 

महाबाहु माणिभद्र अत्यन्त दुर्जय वीर थे। कुबेर की उक्त आज्ञा पाकर वे चार हजार यक्षों की सेना साथ ले फाटक पर गये और राक्षसों के साथ युद्ध करने लगे। उस समय यक्षयोद्धा गदा, मूसल, प्रास, शक्ति, तोमर तथा मुद्गरों का प्रहार करते हुए राक्षसों पर टूट पड़े। वे घोर युद्ध करते हुए बाज पक्षी की तरह तीव्र गति से सब ओर विचरने लगे। कोई कहता 'मुझे युद्ध का अवसर दो।' दूसरा बोलता- 'मैं यहाँ से पीछे हटना नहीं चाहता।' फिर तीसरा बोल उठता- 'मुझे अपना हथियार दो'। 

'उस तुमुल युद्ध को देखकर देवता, गन्धर्व तथा ब्रह्मवादी ऋषि भी बड़े आश्चर्य में पड़ गये थे। उस रणभूमि में प्रहस्त ने एक हजार यक्षों का संहार कर डाला। फिर महोदर ने दूसरे एक सहस्र प्रशंसनीय यक्षों का विनाश किया। राजन् ! उस समय कुपित हुए रणोत्सुक मारीच ने पलक मारते-मारते शेष दो हजार यक्षों को धराशायी कर दिया।' 

'पुरुषसिंह! कहाँ यक्षों का सरलता पूर्वक युद्ध? और कहाँ राक्षसों का मायामय संग्राम? वे अपने माया बल के भरोसे ही यक्षों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली सिद्ध हुए। उस महासमर में धूम्राक्ष ने आकर क्रोधपूर्वक माणिभद्र की छाती में मूसल का प्रहार किया; किंतु इससे वे विचलित नहीं हुए। फिर माणिभद्र ने भी गदा घुमाकर उसे राक्षस धूम्राक्ष के मस्तक पर दे मारा। उसकी चोट से व्याकुल हो धूम्राक्ष धरती पर गिर पड़ा। धूम्राक्ष को गदा की चोट से घायल एवं खून से लथपथ होकर पृथ्वी पर पड़ा देख दशमुख लंकेश ने रणभूमि में माणिभद्र पर धावा किया।' 

'दशानन को क्रोध में भरकर धावा करते देख यक्षप्रवर माणिभद्र ने उसके ऊपर तीन शक्तियों द्वारा प्रहार किया। चोट खाकर दशानन ने रणभूमि में माणिभद्र के मुकुट पर वार किया। उसके उस प्रहार से उनका मुकुट खिसक कर बगल में आ गया। तब से माणिभद्र यक्ष पार्श्वमौलि के नाम से प्रसिद्ध हुए । महामना माणिभद्र यक्ष युद्ध से भाग चले। राजन् ! उनके युद्ध से विमुख होते ही उस पर्वत पर राक्षसों का महान् सिंहनाद सब ओर फैल गया।' 

इसी समय धन के स्वामी गदाधारी कुबेर दूर से आते दिखायी दिये। उनके साथ शुक्र और प्रौष्ठ पद नामक मन्त्री तथा शङ्ख और पद्म नामक धन के अधिष्ठाता देवता भी थे। विश्रवा मुनि के शाप से क्रूर प्रकृति हो जाने के कारण जो गुरुजनों के प्रति प्रणाम आदि व्यवहार भी नहीं कर पाता था - गुरुजनोचित शिष्टाचार से भी वञ्चित था, उस अपने भाई दशानन को युद्ध में उपस्थित देख बुद्धिमान् कुबेर ने ब्रह्माजी के कुल में उत्पन्न हुए पुरुष के योग्य बात कही - दुर्बुद्धि दशग्रीव! मेरे मना करने पर भी इस समय तुम समझ नहीं रहे हो, किंतु आगे चलकर जब इस कुकर्म का फल पाओगे और नरक में पड़ोगे, उस समय मेरी बात तुम्हारी समझ में आयेगी। 

'जो खोटी बुद्धिवाला पुरुष मोहवश विष को पीकर भी उसे विष नहीं समझता है, उसे उसका परिणाम प्राप्त हो जाने पर अपने किये हुए उस कर्म के फल का ज्ञान होता है। तुम्हारे किसी व्यापार से, वह तुम्हारी मान्यता अनुसार धर्मयुक्त ही क्यों न हो, देवता प्रसन्न नहीं होते हैं; इसीलिये तुम ऐसे क्रूरभाव को प्राप्त हो गये हो, परंतु यह बात तुम्हारी समझ में नहीं आती है।' 

'जो माता, पिता, ब्राह्मण और आचार्य का अपमान करता है, वह यमराज के वश में पड़कर उस पाप का फल भोगता है। यह शरीर क्षणभंगुर है। इसे पाकर जो तप का उपार्जन नहीं करता, वह मूर्ख मरने के बाद जब उसे अपने दुष्कर्मों का फल मिलता है, पश्चात्ताप करता है। धर्म से राज, धन और सुख की प्राप्ति होती है। अधर्म से केवल दुःख ही भोगना पड़ता है, अतः सुख के लिये धर्म का आचरण करे, पाप को सर्वथा त्याग दे।' 

‘पाप का फल केवल दु:ख है और उसे स्वयं ही यहाँ भोगना पड़ता है; इसलिये जो मूढ़ पाप करेगा, वह मानो स्वयं ही अपना वध कर लेगा। किसी भी दुर्बुद्धि पुरुष को (शुभकर्म का अनुष्ठान और गुरुजनों की सेवा किये बिना) स्वेच्छामात्र से उत्तम बुद्धि की प्राप्ति नहीं होती। वह जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल भोगता है।' 

‘संसार के पुरुषों को समृद्धि, सुन्दर रूप, बल, वैभव, वीरता तथा पुत्र आदि की प्राप्ति पुण्यकर्मों के अनुष्ठान से ही होती है। इसी प्रकार अपने दुष्कर्मों के कारण तुम्हें भी नरक में जाना पड़ेगा; क्योंकि तुम्हारी बुद्धि ऐसी पापासक्त हो रही है। दुराचारियों से बात नहीं करना चाहिये, यही शास्त्रों का निर्णय है; अतः मैं भी अब तुमसे कोई बात नहीं करूँगा। खेद तो केवल इस बात का है की पिताश्री से ज्ञान प्राप्त कर महान पंडित होकर भी तुमने पाप का ही अनुसरण किया।' 

'इसी तरह की बात उन्होंने रावण के मन्त्रियों से भी कही। फिर उन पर शस्त्रों द्वारा प्रहार किया। इससे आहत होकर वे मारीच आदि सब राक्षस युद्ध से मुँह मोड़कर भाग गये। तदनन्तर महामना यक्षराज कुबेर ने अपनी गदा से दशानन  के मस्तक पर प्रहार किया। उससे आहत होकर भी वह अपने स्थान से विचलित नहीं हुआ।' 

'श्रीराम ! तत्पश्चात् वे दोनों यक्ष और राक्षस - कुबेर तथा दशग्रीव दोनों उस महासमर में एक-दूसरे पर प्रहार करने लगे; परंतु दोनों में से कोई भी न तो घबराता था, न थकता ही था। उस समय कुबेर ने दशानन पर आग्नेयास्त्र का प्रयोग किया, परंतु राक्षसराज रावण ने वारुणास्त्र के द्वारा उनके उस अस्त्र को शान्त कर दिया। तत्पश्चात् उस राक्षसराज ने राक्षसी माया का आश्रय लिया और कुबेर का विनाश करने के लिये लाखों रूप धारण कर लिया।' 

'उस समय दशमुख लंकेश बाघ, सूअर, मेघ, पर्वत, समुद्र, वृक्ष, यक्ष और दैत्य सभी रूपों में दिखायी देने लगा। इस प्रकार वह बहुत-से रूप प्रकट करता था। वे रूप ही दिखायी देते थे, वह स्वयं दृष्टिगोचर नहीं होता था। श्रीराम ! तदनन्तर दशमुख ने एक बहुत बड़ी गदा हाथ में ली और उसे घुमाकर कुबेर के मस्तक पर दे मारा।' 

'इस प्रकार रावण द्वारा आहत हो धनके स्वामी कुबेर रक्त से नहा उठे और व्याकुल हो जड़ से कटे हुए 'अशोक' वृक्ष की की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़े। तत्पश्चात् पद्म आदि निधियों के अधिष्ठाता देवताओं ने उन्हें घेरकर उठा लिया और नन्दनवन में ले जाकर चेत कराया। इस तरह कुबेर को जीतकर राक्षसराज दशानन अपने मन में बहुत प्रसन्न हुआ और अपनी विजय के चिह्न के रूप में उसने उनका पुष्पक विमान अपने अधिकार में कर लिया।' 

'उस विमान में सोने के खम्भे और वैदूर्यमणि के फाटक लगे थे। वह सब ओर से मोतियों की जाली से ढका हुआ था। उसके भीतर ऐसे-ऐसे वृक्ष लगे थे, जो सभी ऋतुओं में फल देनेवाले थे। उसका वेग मन के समान तीव्र था। वह अपने ऊपर बैठे हुए लोगों की इच्छा के अनुसार सब जगह जा सकता था तथा चालक जैसा चाहे, वैसा छोटा या बड़ा रूप धारण कर लेता था। उस आकाशचारी विमान में मणि और सुवर्ण की सीढ़ियाँ तथा तपाये हुए सोने की वेदियाँ बनी थीं।' 

'वह देवताओं का ही वाहन था और टूटने - फूटने वाला नहीं था। सदा देखने में सुन्दर और चित्त को प्रसन्न करनेवाला था। उसके भीतर अनेक प्रकार के आश्चर्यजनक चित्र थे। उसकी दीवारों पर तरह-तरह के बेल-बूटे बने थे, जिनसे उनकी विचित्र शोभा हो रही थी। ब्रह्मा और विश्वकर्मा ने उसका निर्माण किया था।' 

'वह सब प्रकार की मनोवाञ्छित वस्तुओं से सम्पन्न, मनोहर और परम उत्तम था। न अधिक ठंडा था और न अधिक गरम। सभी ऋतुओं में आराम पहुँचाने वाला तथा मङ्गलकारी था। अपने पराक्रम से जीते हुए उस इच्छानुसार चलने वाले विमान पर आरूढ़ हो अत्यन्त खोटी बुद्धि वाला राजा दशग्रीव अहंकार की अधिकता से ऐसा मानने लगा कि मैंने तीनों लोकों को जीत लिया। इस प्रकार वैश्रवण देव को पराजित करके वह कैलाश से नीचे उतरा।' 

'निर्मल किरीट और हार से विभूषित वह प्रतापी निशाचर अपने तेज से उस महान् विजय को पाकर उस उत्तम विमान पर आरूढ हो यज्ञमण्डप में प्रज्वलित होनेवाले अग्निदेव की भाँति शोभा पाने लगा।' 

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-३६(36) समाप्त !

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