सूतजी कहते हैं - हे शौनकादि ऋषियों ! सगर की मृत्यु हो जाने पर प्रजाजनों ने परम धर्मात्मा अंशुमान को राजा बनाने की रुचि प्रकट की। अंशुमान् बड़े प्रतापी राजा हुए। उनके पुत्र का नाम दिलीप था। वह भी एक महान् पुरुष था। रघुकुल को आनन्दित करनेवाले वीर ! अंशुमान् दिलीप को राज्य देकर हिमालय के रमणीय शिखर पर चले गये और वहाँ अत्यन्त कठोर तपस्या करने लगे। महान् यशस्वी राजा अंशुमान ने उस तपोवन में जाकर बत्तीस हजार वर्षों तक तप किया। तपस्या के धन से सम्पन्न हुए उस नरेश ने वहीं शरीर त्यागकर स्वर्गलोक प्राप्त किया।
'वैवस्वत मनु के वंशज राजा दिलीप और उनकी रानी सुदक्षिणा के कोई सन्तान नहीं हुई । दुःखी होकर वे दोनों कुलगुरु वसिष्ठ के आश्रम में गए। महर्षि वसिष्ठ ने कामधेनु की पुत्री नन्दिनी की सेवा करने का मार्ग सुझाया, ताकि अभीष्ट फल की प्राप्ति का वरदान पाया जा सके। राजा दिलीप कुलगुरु वशिष्ठ की आज्ञानुसार सन्तान प्राप्ति की अभिलाषा से कामधेनु की पुत्री नन्दिनी गाय की सेवा में प्रवृत्त हुए।'
'प्रातःकाल होते ही जब रानी सुदक्षिणा नन्दिनी गाय की पूजा कर चुकीं और उसका बछड़ा दूध पी चुका, तब राजा दिलीप ने नन्दिनी को जङ्गल में चरने के लिए छोड़ दिया और स्वयं उसके पीछे-पीछे चल पड़े। कुछ दूर तो रानी सुदक्षिणा एवं अनुचर साथ गये, पर बाद में राजा ने उन्हें लौटा दिया और स्वयं नन्दिनी को स्वादिष्ट घास खिलाकर, उसको खुजलाकर, उस पर से मक्खियाँ उड़ाकर उसकी सेवा में लग गया। जब गाय खड़ी होती थी तब राजा भी खड़ा होता था, जब वह बैठती थी तो राजा भी बैठता था और जब वह जल पीती थी तो राजा भी जल पीने का इच्छुक हो जाता था। इस प्रकार छाया की तरह गाय के पीछे-पीछे चलता रहता था।'
राजा को गाय की सेवा करते-करते इक्कीस दिन बीत गये। तब गाय ने राजा की परीक्षा लेनी चाही कि देखूँ ये केवल स्वार्थ- भाव से मेरी सेवा करते हैं या सच्चे भाव से। ऐसा विचार करके वह बाईसवें दिन जङ्गल में चरते-चरते हिमालय की एक गुफा में घुस गयी। उसके घुसते ही उस पर एक सिंह टूट पड़ा। राजा ने उसकी जान बचाने के लिए ज्यों ही तरकश से बाण निकालना चाहा, त्योंही उनकी उँगलियाँ बाणों में चिपक गयीं।'
तब सिंह ने मनुष्य की बोली में कहा - राजा ! मैं कुम्भोदर नाम का शङ्कर का सेवक हूँ। इस सामनेवाले देवदारु के वृक्ष को पार्वतीजी ने लगाकर बड़ा किया है। एक बार एक हाथी ने इसकी छाल रगड़ दी। इस पर पार्वती जी को बड़ा दुःख हुआ, अतः शङ्कर जी ने मुझे इसकी रखवाली करने के लिए नियुक्त किया है और कहा है कि जो भी जानवर यहाँ आवे उसे तुम मारकर खा जाओ। इसलिए तुम मुझे मारने की कोशिश मत करो। तुम्हारा प्रयत्न व्यर्थ जायेगा।
राजा ने कहा - तुम अपनी भूख मिटाने के लिए मुझे खा डालो, लेकिन इस गाय को छोड़ दो।
सिंह ने कहा - राजन्! तुम बड़े मूर्ख मालूम होते हो क्योंकि एक छोटी-सी गाय के लिए अपना प्राण गँवा रहे हो, अपना सारा राज्य चौपट करना चाहते हो। यदि जीवित रहोगे तो अनेक गायों की रक्षा कर सकते हो।
राजा ने एक न सुनी। सिंह राजा को खाने के लिए तैयार हो गया और राजा की उँगलियाँ छूट गयीं। ज्योंही वे सिंह के सामने अपने को समर्पण करने के लिए गिरे, त्योंही देवताओं ने उनके ऊपर फूलों की वर्षा की और उनको मधुर वचन सुनायी पड़े। उठो वत्स! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। वर माँगो!
राजा ने सिर उठाकर देखा तो सिंह गायब था। तब नन्दिनी ने मनुष्य की बोली में कहा - राजन् ! मैं तुम्हारी परीक्षा ले रही थी। अब मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। तुम मनचाहा वरदान माँगो।
राजा ने कहा - मेरे ऐसा पुत्र हो जो मेरे वंश को चलानेवाला हो।
नन्दिनी ने कहा - तुम्हारी मनःकामना पूरी होगी।
'राजा उसे लेकर आश्रम में चले आये। वशिष्ठ जी ने गो-सेवा का व्रत पूरा हुआ, जानकर राजा व रानी को आशीर्वाद दिया और उन्हें अयोध्या के लिए विदा किया। अयोध्या में आने पर रानी सुदक्षिणा गर्भवती हुई।'
सूतजी बोले - ऋषियों! अपने पितामहों के वधका वृत्तान्त सुनकर महातेजस्वी दिलीप भी बहुत दुःखी रहते थे। अपनी बुद्धिसे बहुत सोचने-विचारनेके बाद भी वे किसी निश्चयपर नहीं पहुँच सके। वे सदा इसी चिन्ता में डूबे रहते थे कि किस प्रकार पृथ्वी पर गंगाजी का उतरना सम्भव होगा? कैसे गंगाजल द्वारा उन्हें जलाञ्जलि दी जायेगी और किस प्रकार मैं अपने उन पितरों का उद्धार कर सकूँगा।
'प्रतिदिन इन्हीं सब चिन्ताओं में पड़े हुए राजा दिलीप को, जो अपने धर्माचरण से बहुत विख्यात थे, भगीरथ नामक एक परम धर्मात्मा पुत्र प्राप्त हुआ। महातेजस्वी दिलीप ने बहुत से यज्ञों का अनुष्ठान तथा तीस हजार वर्षों तक राज्य किया। उन पितरों के उद्धार के विषय में किसी निश्चय को न पहुँचकर राजा दिलीप रोग से पीड़ित हो मृत्यु को प्राप्त हो गये।'
'पुत्र भगीरथ को राज्य पर अभिषिक्त करके नरश्रेष्ठ राजा दिलीप अपने किये हुए पुण्य कर्म के प्रभाव से इन्द्रलोक में गये। धर्मात्मा राजर्षि महाराज भगीरथ के कोई संतान नहीं थी। वे संतान प्राप्ति की इच्छा रखते थे तो भी प्रजा और राज्य की रक्षा का भार मन्त्रियों पर रखकर गंगाजी को पृथ्वी पर उतारने के प्रयत्न में लग गये और गोकर्ण तीर्थ (वर्तमान कर्नाटक राज्य के उत्तर कन्नड़ जिले में स्थित) में बड़ी भारी तपस्या करने लगे।'
'वे अपनी दोनों भुजाएँ ऊपर उठाकर पञ्चाग्नि का सेवन करते और इन्द्रियों को काबू में रखकर एक-एक महीने पर आहार ग्रहण करते थे। इस प्रकार घोर तपस्या में लगे हुए महात्मा राजा भगीरथ के एक हजार वर्ष व्यतीत हो गये। इससे प्रजाओं के स्वामी भगवान् ब्रह्माजी उनपर बहुत प्रसन्न हुए।
पितामह ब्रह्मा ने देवताओं के साथ वहाँ आकर तपस्या में लगे हुए महात्मा भगीरथ से इस प्रकार कहा – महाराज भगीरथ! तुम्हारी इस उत्तम तपस्या से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। श्रेष्ठ व्रत का पालन करनेवाले नरेश्वर! तुम कोई वर माँगो।
तब महातेजस्वी महाबाहु भगीरथ हाथ जोड़कर उनके सामने खड़े हो गये और उन सर्वलोकपितामह ब्रह्मा से इस प्रकार बोले – भगवन्! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और यदि इस तपस्या का कोई उत्तम फल है तो सगर के सभी पुत्रों को मेरे हाथ से गंगाजी का जल प्राप्त हो। इन महात्माओं की भस्मराशि के गंगाजी के जल से भीग जाने पर मेरे उन सभी प्रपितामहों (परदादाओं) को अक्षय स्वर्गलोक मिले। देव! मैं संतति के लिये भी आपसे प्रार्थना करता हूँ। हमारे कुल की परम्परा कभी नष्ट न हो। भगवन्! मेरे द्वारा माँगा हुआ उत्तम वर सम्पूर्ण इक्ष्वाकु वंश के लिये लागू होना चाहिये।
राजा भगीरथ के ऐसा कहने पर सर्वलोकपितामह ब्रह्माजी ने मधुर अक्षरों वाली परम कल्याणमयी मीठी वाणी में कहा - इक्ष्वाकु वंश की वृद्धि करने वाले महारथी भगीरथ ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारा यह महान् मनोरथ इसी रूप में पूर्ण हो। राजन्! ये हैं हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री हैमवती गंगाजी। इनको धारण करने के लिये भगवान् शङ्कर को तैयार करो। महाराज ! गंगाजी के गिरने का वेग यह पृथ्वी नहीं सह सकेगी। मैं त्रिशूल धारी भगवान् शङ्कर के सिवा और किसी को ऐसा नहीं देखता, जो इन्हें धारण कर सके।
राजा से ऐसा कहकर लोक स्रष्टा ब्रह्माजी ने भगवती गंगा से भी भगीरथ पर अनुग्रह करने के लिये कहा। इसके बाद वे सम्पूर्ण देवताओं तथा मरुद्गुणों के साथ स्वर्गलोक को चले गये।
इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-३५(35) समाप्त !
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