भाग-३५(35) मन्त्रियों सहित रावण का यक्षों पर आक्रमण और उनकी पराजय

 

अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन ! तदनन्तर बल के अभिमान से सदा उन्मत्त रहनेवाला दशानन महोदर, प्रहस्त, मारीच, शुक, सारण तथा सदा ही युद्ध की अभिलाषा रखने वाले वीर धूम्राक्ष - इन छ: मन्त्रियों के साथ लङ्का से प्रस्थित हुआ। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो अपने क्रोध से सम्पूर्ण लोकों को भस्म कर डालेगा। बहुत-से नगरों, नदियों, पर्वतों, वनों और उपवनों को लाँघकर वह दो ही घड़ी में कैलास पर्वत पर जा पहुँचा। 

यक्षोंने जब सुना कि दुरात्मा राक्षसराज दशानन ने युद्ध के लिये उत्साहित होकर अपने मन्त्रियों के साथ कैलास पर्वत पर डेरा डाला है, तब वे उस राक्षस के सामने खड़े न हो सके। 

'यह राजा का भाई है, ऐसा जानकर यक्ष लोग उस स्थान पर गये, जहाँ धन के स्वामी कुबेर विद्यमान थे। वहाँ जाकर उन्होंने उनके भाई का सारा अभिप्राय कह सुनाया। तब कुबेर ने युद्ध के लिये यक्षों को आज्ञा दे दी; फिर तो यक्ष बड़े हर्ष से भरकर चल दिये। उस समय यक्षराज की सेनाएँ समुद्र के समान क्षुब्ध हो उठीं। उनके वेग से वह पर्वत हिलता-सा जान पड़ा। तदनन्तर यक्षों और राक्षसों में घमासान युद्ध छिड़ गया। वहाँ दशग्रीव के वे सचिव व्यथित हो उठे।' 

'अपनी सेना की वैसी दुर्दशा देख निशाचर दशग्रीव बार-बार हर्षवर्धक सिंहनाद करके रोष पूर्वक यक्षों की ओर दौड़ा। राक्षसराज के जो सचिव थे, वे बड़े भयंकर पराक्रमी थे। उनमें से एक-एक सचिव हजार-हजार यक्षों से युद्ध करने लगा। उस समय यक्ष जल की धारा गिराने वाले मेघों के समान गदाओं, मूसलों, तलवारों, शक्तियों और तोमरों की वर्षा करने लगे। उनकी चोट सहता हुआ दशानन शत्रुसेना में घुसा। वहाँ उसपर इतनी मार पड़ने लगी कि उसे दम मारने की भी फुरसत नहीं मिली। यक्षों ने उसका वेग रोक दिया।' 

'यक्षों के शस्त्रों से आहत होने पर भी उसने अपने मन में दुःख नहीं माना; ठीक उसी तरह, जैसे मेघों द्वारा बरसायी हुई सैकड़ों जलधाराओं से अभिषिक्त होने पर भी पर्वत विचलित नहीं होता है। उस महाकाय निशाचर ने कालदण्ड के समान भयंकर गदा उठाकर यक्षों की सेना में प्रवेश किया और उन्हें यमलोक पहुँचाना आरम्भ कर दिया। वायु से प्रज्वलित हुई अग्नि के समान दशानन ने तिनकों के समान फैली और सूखे ईंधन की भाँति आकुल हुई यक्षों की सेना को जलाना आरम्भ किया।' 

'जैसे हवा बादलों को उड़ा देती है, उसी तरह उन महोदर और शुक आदि महामन्त्रियों ने वहाँ यक्षों का संहार कर डाला। अब वे थोड़ी ही संख्या में बच रहे। कितने ही यक्ष शस्त्रों के आघात से अङ्ग भङ्ग हो जाने के कारण समराङ्गण में धराशायी हो गये। कितने ही रणभूमि में कुपित हो अपने तीखे दाँतों से ओठ दबाये हुए थे।' 

'कोई थककर एक-दूसरे से लिपट गये। उनके अस्त्र-शस्त्र गिर गये और वे समराङ्गण में उसी तरह शिथिल होकर गिरे जैसे जल के वेग से नदी के किनारे टूट पड़ते हैं। मर-मर कर स्वर्ग में जाते, जूझते और दौड़ते हुए यक्षों की तथा आकाश में खड़े होकर युद्ध देखने वाले ऋषिसमूहों की संख्या इतनी बढ़ गयी थी कि आकाश में उन सबके लिये जगह नहीं अँटती थी।' 

'महाबाहु धनाध्यक्ष ने उन यक्षों को भागते देख दूसरे महाबली यक्षराजों को युद्ध के लिये भेजा। श्रीराम! इसी बीच में कुबेर का भेजा हुआ संयोधकण्टक नामक यक्ष वहाँ आ पहुँचा। उसके साथ बहुत-सी सेना और सवारियाँ थीं। उसने आते ही भगवान् विष्णु की भाँति चक्र से रणभूमि में मारीच पर प्रहार किया। उससे घायल होकर वह राक्षस कैलाश से नीचे पृथ्वी पर उसी तरह गिर पड़ा, जैसे पुण्य क्षीण होने पर स्वर्गवासी ग्रह वहाँ से भूतल पर गिर पड़ा हो।' 

'दो घड़ी के बाद होश में आने पर निशाचर मारीच विश्राम करके लौटा और उस यक्ष के साथ युद्ध करने लगा। तब वह यक्ष भाग खड़ा हुआ। तदनन्तर दशानन ने कुबेरपुरी के फाटक में, जिसके प्रत्येक अङ्ग में सुवर्ण जड़ा हुआ था तथा जो नीलम और चाँदी से भी विभूषित था, प्रवेश किया। वहाँ द्वारपालों का पहरा लगता था। वह फाटक ही सीमा थी। उससे आगे दूसरे लोग नहीं जा सकते थे।' 

'महाराज श्रीराम! जब निशाचर दशग्रीव फाटक के भीतर प्रवेश करने लगा, तब सूर्यभानु नामक द्वारपाल ने उसे रोका। जब यक्ष के रोकने पर भी वह निशाचर न रुका और भीतर प्रविष्ट हो गया, तब द्वारपाल ने फाटक में लगे हुए एक खंभे को उखाड़कर उसे दशानन के ऊपर दे मारा। उसके शरीर से रक्त की धारा बहने लगी, मानो किसी पर्वत से गेरुमिश्रित जल का झरना गिर रहा हो।' 

'पर्वत शिखर के समान प्रतीत होनेवाले उस खंभे की चोट खाकर भी वीर दशग्रीव की कोई क्षति नहीं हुई। वह ब्रह्माजी के वरदान के प्रभाव से उस यक्ष के द्वारा मारा न जा सका। तब उसने भी वही खंभा उठाकर उसके द्वारा यक्ष पर प्रहार किया, इससे यक्ष का शरीर चूर-चूर हो गया। फिर उसकी सूरत नहीं दिखायी दी।' 

'उस राक्षस का यह पराक्रम देखकर सभी यक्ष भाग गये । कोई नदियों में कूद पड़े और कोई भय से पीड़ित हो गुफाओं में घुस गये। सबने अपने हथियार त्याग दिये थे। सभी थक गये थे और सबके मुखों की कान्ति फीकी पड़ गयी  थी।' 

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-३५(35) समाप्त !

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