भाग-३५(35) महर्षि वशिष्ठ ने हिमालय राज को सुनाई राजा अनरण्य की कथा

 


सूतजी बोले - हे ऋषिश्रेष्ठ ! हिमालय के कहे वचनों को सुनकर महर्षि वशिष्ठ बोले - हे शैलराज! भगवान शंकर इस संपूर्ण जगत के पिता हैं और देवी पार्वती इस जगत की जननी हैं। शास्त्रों की जानकारी रखने वाला उत्तम मनुष्य वेदों में बताए गए तीन प्रकार के वचनों को जानता है। पहला वचन सुनते ही बड़ा प्रिय लगता है परंतु वास्तविकता में वह असत्य व अहितकारी होता है। इस प्रकार का कथन हमारा शत्रु ही कह सकता है।

'दूसरा वचन सुनने में अच्छा नहीं लगता परंतु उसका परिणाम सुखकारी होता है। तीसरा वचन सुनने में अमृत के समान लगता है तथा वह परिणामतः हित करने वाला होता है। इस प्रकार नीति शास्त्र में किसी बात को कहने के तीन प्रकार बताए गए हैं। आप इन तीनों प्रकार में किस तरह का वचन सुनना चाहते हैं?' 

'मैं आपकी इच्छानुसार ही बात करूंगा। भगवान शंकर सभी देवताओं के स्वामी हैं, उनके पास दिखावटी संपत्ति नहीं है। वे महान योगी हैं और सदैव ज्ञान के महासागर में डूबे रहते हैं। वे ही सबके ईश्वर हैं। गृहस्थ पुरुष राज्य और संपत्ति के स्वामी मनुष्य को ही अपनी पुत्री का वर चुनता है। ऐसा न करके यदि वह किसी दीन-हीन को अपनी कन्या ब्याह दे तो उसे कन्या के वध का पाप लगता है।'

'शैलराज! आप शिव स्वरूप को जानते ही नहीं हैं। धनपति कुबेर आपका सेवक है। कुबेर को यहां धन की कौन-सी कमी है? जो स्वयं सारे संसार की उत्पत्ति, पालन और संहार करते हैं, उन्हें भोजन की भला क्या कमी हो सकती है? ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रदेव सभी भगवान शिव का ही रूप हैं। शिवजी से प्रकट हुई प्रकृति अपने अंश से तीन प्रकार की मूर्तियों को धारण करती है। 

'उन्होंने मुख से सरस्वती, वक्ष स्थल से लक्ष्मी एवं अपने तेज से पार्वती को प्रकट किया है। भला उन्हें दुख कैसे हो सकता है? तुम्हारी कन्या तो कल्प-कल्प में उनकी पत्नी होती रही है एवं होती रहेगी। अपनी कन्या सदाशिव को अर्पण कर दो। तुम्हारी कन्या के तपस्या करते समय देवताओं की प्रार्थना पर सदाशिव तुम्हारी कन्या के समीप पहुंचकर, उन्हें उनका मनोवांछित वर प्रदान कर चुके हैं।' 

'तुम्हारी पुत्री पार्वती के कहे अनुसार शिवजी तुमसे तुम्हारी कन्या का हाथ मांगने के लिए तुम्हारे घर दो बार पधारे थे पर तुम उन्हें नहीं पहचान सके। वे नटराज और ब्राह्मण वेशधारी शिव ही थे जो तुम्हारी कन्या का हाथ मांगने आए थे पर तुमने मना कर दिया। यह तुम्हारा दुर्भाग्य नहीं है तो क्या है?'

'अब यदि तुमने प्रेम से शिवजी को अपनी कन्या का दान न किया तो भगवान शंकर बलपूर्वक ही तुम्हारी कन्या से विवाह कर लेंगे। शैलेंद्र! यह बात अगर आप ठीक से नहीं समझेंगे तो आपका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। आपको शायद ज्ञात नहीं है कि पूर्व में देवी शिवा ने ही प्रजापति दक्ष की पत्नी के गर्भ से जन्म लिया था और सती के नाम से प्रसिद्ध हुई थीं। उन्होंने कठोर तपस्या करके भक्तवत्सल भगवान शिव को वरदान स्वरूप पति के रूप में प्राप्त किया था परंतु अपने पिता दक्ष द्वारा आयोजित महान यज्ञ में अपने पति त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की अवहेलना एवं निंदा होते देखकर उन्होंने स्वेच्छा से अपने शरीर को त्याग दिया था। वही साक्षात जगदंबा इस समय आपकी पत्नी मैना के गर्भ से प्रकट हुई हैं और कल्याणमयी भगवान शिव को जन्म-जन्मांतर की भांति पति रूप में पाना चाहती हैं।' 

'अतः गिरिराज हिमालय, आप स्वयं अपनी इच्छा से अपनी पुत्री का हाथ महादेव जी के हाथों में सौंप दीजिए। इन दोनों का साथ इस जगत के लिए मंगलकारी है।'

'शैलराज! यदि आप स्वेच्छा से शिवजी व देवी पार्वती का विवाह नहीं करेंगे तो पार्वती स्वयं अपने आराध्य भगवान शिव के धाम कैलाश पर्वत चली जाएंगी। आपकी प्रिय पुत्री पार्वती की इच्छा का सम्मान करते हुए ही भगवान शिव स्वयं आपसे पार्वती का हाथ मांगने के लिए वेश बदलकर आपके घर आए थे परंतु आपने उनको नहीं पहचाना और अपनी कन्या देने से इनकार कर दिया।' 

'आपके शिखर पर तपस्या के लिए पधारे भगवान शिव की देवी पार्वती ने जब सेवा की थी तो आप भी उनके इस निर्णय में उनके साथ थे। आपकी आज्ञा प्राप्त करके ही देवी पार्वती भगवान शिव को पति रूप में पाने की इच्छा लेकर तपस्या करने हेतु वन में गई थीं। उनके इस प्रण और कार्य को आपने सराहा था। फिर आज ऐसा क्या हो गया कि आप अपने ही वचनों से पीछे हट रहे हैं।' 

'भगवान शिव ने देवताओं की प्रार्थना स्वीकार करके हम सप्तऋषियों को और देवी अरुंधती को आपके पास भेजा है। इसलिए हम आपको यह समझाने आए हैं कि आप पार्वती जी का हाथ भगवान शिव के हाथों में दे दें। ऐसा करके आपको बहुत आनंद मिलेगा। भगवान शिव ने तपस्या के पश्चात प्रसन्न होकर देवी पार्वती को यह वरदान दिया है कि वे उनकी पत्नी हों।' 

'भगवान शिव परमेश्वर हैं। उनकी वाणी कदापि असत्य नहीं हो सकती। उनका वरदान अवश्य सत्य सिद्ध होगा। इसलिए हम सप्तऋषि आपसे यह अनुरोध कर रहे हैं कि आप इस विवाह हेतु प्रसन्नतापूर्वक अपनी स्वीकृति प्रदान करें। ऐसा करके आप अपने परिवार का ही नहीं समस्त मानवों और देवताओं का कल्याण करेंगे।'

'कुल की रक्षा करने के लिए किसी एक का त्याग कर देना ही नीति शास्त्र कहलाता है। जिस प्रकार राजा अनरण्य ने अपने राज-पाट, संपत्ति और अपने परिवार की रक्षा के लिए अपनी पुत्री का विवाह एक ब्राह्मण से कर दिया था। इसी प्रकार लोक कल्याण के लिए आपको भी स्वीकृति दे ही देनी चाहिए।' 

'राजा अनरण्य के बारे में सुनकर शैलराज हिमालय ने पूछा - हे महर्षि! मैं राजा अनरण्य की कथा सुनना चाहता हूं। गिरिराज हिमालय के ऐसे वचन सुनकर मुनि वशिष्ठ बोले - हे पर्वतराज! महाराजा मनु की चौदहवीं संतान इंद्रासावर्णि के वंश में ही राजा अनरण्य का जन्म हुआ था। वे भगवान शिव के परम भक्त थे। सातों द्वीपों पर उनका राज था। राजा अनरण्य ने भृगु मुनि को अपना आचार्य बनाकर सौ यज्ञ पूर्ण कराए थे। राजा अनरण्य की पांच रानियां, सौ पुत्र व एक साक्षात लक्ष्मीस्वरूपा परम सुंदरी कन्या थी, जिसका नाम पद्मा था। पद्मा इकलौती पुत्री होने के कारण बहुत लाडली थी। राजा अनरण्य और उनकी पांचों रानियां पद्मा को बहुत प्यार करते थे। राजा बहुत ही सरल, न्यायप्रिय व उदार थे। देवताओं द्वारा स्वर्ग का सिंहासन दिए जाने पर उन्होंने उसे ग्रहण करने से इनकार कर दिया था।'

'जब राजा अनरण्य की प्रिय पुत्री पद्मा विवाह के योग्य हुई तो राजा अनरण्य को उसके विवाह की चिंता सताने लगी। पद्मा के लिए योग्य वर की खोज शुरू हो गई। चारों दिशाओं में सुयोग्य वर की तलाश की जा रही थी। अनेकों राजाओं को पत्र लिखे गए। एक दिन संयोगवश देवी पद्मा वन में विहार के लिए अपनी सखियों के साथ गई हुई थी।' 

'वहां तपस्या करके लौट रहे ऋषि पिप्पलाद की दृष्टि पद्मा नाम की उस सुंदरी पर पड़ गई, वे उसकी सुंदरता पर मोहित हो गए। वे उस सुंदरी को मन में बसाए हुए ही अपनी कुटिया पर पहुंच गए। सुंदरी का सौंदर्य पिप्पलाद के मन-मस्तिष्क में धंस गया था। एक दिन ऋषि पिप्पलाद पुष्पा भद्रा नामक नदी में स्नान करने गए। संयोगवश राजा अनरण्य की परम सुंदरी पुत्री पद्मा भी वहां उपस्थित थी। उसे पुनः देखकर ऋषि पिप्पलाद के मन की इच्छा पूरी हो गई।' 

'उन्होंने पद्मा की सखियों और सैनिकों से उसका परिचय प्राप्त कर लिया। वहीं कुछ मनुष्यों ने ऋषि की हंसी उड़ाते हुए कहा कि ऋषि जी आपका मन देवी पद्मा पर मुग्ध हो गया है तो आप महाराज से उन्हें मांग क्यों नहीं लेते? इस प्रकार के वचन सुनकर पिप्पलाद लज्जित तो हुए परंतु उनके हृदय में सुंदरी पद्मा को पाने की इच्छा कम न होकर और बलवती हो गई।'

'स्नान, नित्यकर्म और शिव पूजन आदि से निवृत्त होकर मुनि पिप्पलाद राजा अनरण्य की सभा में चले गए। अपने दरबार में मुनि को पधारा देखकर राजा अनरण्य ने चरण छूकर उनका अभिवादन किया तथा विधिवत पूजन करने के पश्चात उन्हें आसन पर बैठाया तथा पूछा कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?' 

'इस पर ऋषि पिप्पलाद बोले, राजा आप अपनी कन्या पद्मा को मुझे सौंप दीजिए। यह सुनकर राजा चुप हो गए। इस पर पिप्पलाद मुनि कहने लगे कि राजा यदि शीघ्र ही तुमने अपनी कन्या मुझे नहीं दी तो मैं क्षण भर में ही तुम्हें और तुम्हारे कुल को भस्म कर दूंगा । यह बात सुनकर राजा, उनकी रानियां, नौकर चाकर, दासियां सभी रोने लगे। राजा अनरण्य यह सोच अत्यंत व्याकुल हो उठे कि कैसे वे अपनी फूलों से भी कोमल पुत्री का हाथ एक बूढ़े ऋषि को दें।' 

'राजा इसी चिंता में डूबे हुए थे कि वे क्या करें कि तभी वहां उनके पुरोहित और राजगुरु आ पहुंचे। राजा ने सारा वृत्तांत उन्हें सुनाया। इस पर राजगुरु बोले कि राजन, आपको अपनी कन्या का विवाह किसी से तो करना ही है, तो क्यों न उसका विवाह ऋषि पिप्पलाद से ही कर दिया जाए। इससे आपके कुल की भी रक्षा हो जाएगी। यह ब्राह्मण इस कुल का विनाश कर दे इससे तो अच्छा है कि पद्मा का विवाह इन्हीं से हो जाए ।'

'इस प्रकार अपने राजपुरोहित और राजगुरु के वचन सुनकर राजा अनरण्य ने अपने कुल की रक्षा करने के लिए अपनी कन्या को वस्त्र, आभूषणों से अलंकृत करा उसे ऋषि पिप्पलाद को अर्पित कर दिया। तत्पश्चात देवी प‌द्मा और ऋषि पिप्पलाद का वैदिक रीति से परिणयोत्सव संपन्न हुआ तथा राजा ने प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुत्री को विदा कर दिया। राजा अनरण्य से विदा लेकर ऋषि पिप्पलाद अपनी पत्नी पद्मा को साथ लेकर अपने आश्रम पर पहुंचे।' 

'इस शोक में कि हमने अपनी पुत्री को एक वनवासी बूढ़े को सौंप दिया है, राजा अनरण्य राजपाट छोड़कर वन में चले गए। अपने पति और पुत्री की याद में रो-रोकर रानी ने अपने प्राण त्याग दिए। उनके घर-परिवार में चारों ओर दुख ही दुख था । राजा अनरण्य ने शिव कृपा से शिवलोक को प्राप्त किया। तत्पश्चात उनके पुत्र कीर्तिमान ने राज्य किया और उनके कुल का नाम चारों ओर फैला । इसलिए हे हिमालय राज ! आप अपनी पुत्री को भगवान शिव को अर्पण करके अपने राज्य, कुल और धन की रक्षा करके सभी देवताओं को अपने अधीन कर लीजिए।'

इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-३५(35) समाप्त !


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