सूतजी कहते हैं - ऋषियों ! 'पुत्रोंको गये बहुत दिन हो गये' – ऐसा जानकर राजा सगर ने अपने पौत्र अंशुमान से, जो अपने तेज से देदीप्यमान हो रहा था, इस प्रकार कहा - वत्स! तुम शूरवीर, विद्वान् तथा अपने पूर्वजों के तुल्य तेजस्वी हो। तुम भी अपने चाचाओं के पथ का अनुसरण करो और उस चोर का पता लगाओ, जिसने मेरे यज्ञ सम्बन्धी अश्व का अपहरण कर लिया है। देखो, पृथ्वी के भीतर बड़े-बड़े बलवान् जीव रहते हैं; अत: उनसे टक्कर लेने के लिये तुम तलवार और धनुष भी लेते जाओ। जो वन्दनीय पुरुष हों, उन्हें प्रणाम करना और जो तुम्हारे मार्ग में विघ्न डालने वाले हों, उनको मार डालना। ऐसा करते हुए सफल मनोरथ होकर लौटो और मेरे इस यज्ञ को पूर्ण कराओ।
'महात्मा सगर के ऐसा कहने पर शीघ्रतापूर्वक पराक्रम कर दिखाने वाला वीरवर अंशुमान् धनुष और तलवार लेकर चल दिया। उसके महामनस्वी चाचाओं ने पृथ्वी के भीतर जो मार्ग बना दिया था, उसी पर वह राजा सगर से प्रेरित होकर गया। वहाँ उस महातेजस्वी वीर ने एक दिग्गज को देखा, जिसकी देवता, दानव, राक्षस, पिशाच, पक्षी और नाग सभी पूजा कर रहे थे। उसकी परिक्रमा करके कुशल - मंगल पूछकर अंशुमान ने उस दिग्गज से अपने चाचाओं का समाचार तथा अश्व चुराने वाले का पता पूछा।'
उसका प्रश्न सुनकर परम बुद्धिमान् दिग्गज ने इस प्रकार उत्तर दिया - असमंजकुमार ! तुम अपना कार्य सिद्ध करके घोड़े सहित शीघ्र लौट आओगे।
'उसकी यह बात सुनकर अंशुमान ने क्रमश: सभी दिग्गजों से न्यायानुसार उक्त प्रश्न पूछना आरम्भ किया वाक्य के मर्म को समझने तथा बोलने में कुशल उन समस्त दिग्गजों ने अंशुमान का सत्कार किया और यह शुभ कामना प्रकट की कि तुम घोड़े सहित लौट आओगे। उनका यह आशीर्वाद सुनकर अंशुमान् शीघ्रतापूर्वक पैर बढ़ाता हुआ उस स्थान पर जा पहुँचा, जहाँ उसके चाचा सगर पुत्र राख के ढेर हुए पड़े थे। उनके वध से असमंजपुत्र अंशुमान को बड़ा दु:ख हुआ। वह शोक के वशीभूत हो अत्यन्त आर्तभाव से फूट-फूटकर रोने लगा।'
'दु:ख-शोक में डूबे हुए पुरुषसिंह अंशुमान ने अपने यज्ञ-सम्बन्धी अश्व को भी वहाँ पास ही चरते देखा। महातेजस्वी अंशुमान ने उन राजकुमारों को जलाञ्जलि देनेके लिये जल की इच्छा की; किंतु वहाँ कहीं भी कोई जलाशय नहीं दिखायी दिया। तब उसने दूर तक की वस्तुओं को देखने में समर्थ अपनी दृष्टि को फैलाकर देखा। उस समय उसे वायु के समान वेगशाली पक्षिराज गरुड़ दिखायी दिये, जो उसके चाचाओं (सगरपुत्रों) के मामा थे।'
महाबली विनतानन्दन गरुड़ ने अंशुमान से कहा – पुरुषसिंह ! शोक न करो। इन राजकुमारों का वध सम्पूर्ण जगत के मंगलके लिये हुआ है। विद्वन्! अनन्त प्रभावशाली महात्मा कपिल ने इन महाबली राजकुमारों को दग्ध किया है। इनके लिये तुम्हें लौकिक जल की अञ्जलि देना उचित नहीं है। नरश्रेष्ठ! महाबाहो! हिमवान की जो ज्येष्ठ पुत्री गंगाजी हैं, उन्हीं के जल से अपने इन चाचाओं का तर्पण करो।
'जिस समय लोकपावनी गंगा राख के ढेर होकर गिरे हुए उन साठ हजार राजकुमारों को अपने जलसे आप्लावित करेंगी, उसी समय उन सब को स्वर्गलोक में पहुँचा देंगी। लोककमनीया गंगा के जल से भीगी हुई यह भस्म राशि इन सब को स्वर्गलोक में भेज देगी। महाभाग ! पुरुषप्रवर! वीर! अब तुम घोड़ा लेकर जाओ और अपने पितामह का यज्ञ पूर्ण करो।'
गरुड़ की यह बात सुनकर अत्यन्त पराक्रमी महातपस्वी अंशुमान् घोड़ा लेकर तुरंत लौट आया।
'ऋषिगणों ! यज्ञ में दीक्षित हुए राजा के पास आकर उसने सारा समाचार निवेदन किया और गरुड़ की बतायी हुई बात भी कह सुनायी। अंशुमान के मुख से यह भयंकर समाचार सुनकर राजा सगर ने कल्पोक्त नियम के अनुसार अपना यज्ञ विधिवत् पूर्ण किया। यज्ञ समाप्त करके पृथ्वीपति महाराज सगर अपनी राजधानी को लौट आये। वहाँ आने पर उन्होंने गंगाजी को ले आने के विषय में बहुत विचार किया; किंतु वे किसी निश्चयपर न पहुँच सके। दीर्घकाल तक विचार करने पर भी उन्हें कोई निश्चित उपाय नहीं सूझा और तीस हजार वर्षों तक राज्य करके वे स्वर्गलोक को चले गये। सगर पुत्रों ने सगर की आज्ञा से जहाँ-जहाँ जिस दिशा में धरती को खोद डाला था वहां का पूरा स्थान पूर्वकाल में जल से भर गया था। जिससे पुरे भू-स्थल पर विशाल समुद्र का निर्माण हुआ। तभी से राजा सगर को सागर का रचियता कहा जाता है। उन्हीं के नाम से समुद्र का यह एक नाम सागर भी है।
इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-३४(34) समाप्त !
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