अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन ! तदनन्तर कुछ काल बीतने पर लोकेश्वर ब्रह्माजी की भेजी हुई निद्रा जंभाई आदि के रूप में मूर्तिमती हो कुम्भकर्ण के भीतर तीव्र वेग से प्रकट हुई।
तब कुम्भकर्ण ने पास ही बैठे हुए अपने भाई दशानन से कहा - राजन् ! मुझे नींद सता रही है; अतः मेरे लिये शयन करने के योग्य घर बनवा दें। यह सुनकर राक्षसराज ने विश्वकर्मा के समान सुयोग्य शिल्पियों को घर बनाने के लिये आज्ञा दे दी। उन शिल्पियों ने दो योजन लम्बा और एक योजन चौड़ा चिकना घर बनाया, जो देखने ही योग्य था। उसमें किसी प्रकार की बाधा का अनुभव नहीं होता था । उसमें सर्वत्र स्फटिक मणि एवं सुवर्ण के बने हुए खम्भे लगे थे, जो उस भवन की शोभा बढ़ा रहे थे।
'उसमें नीलम की सीढ़ियाँ बनी थीं। सब ओर घुंघुरूदार झालरें लगायी गयी थीं। उसका सदर फाटक हाथी-दाँत का बना हुआ था और हीरे तथा स्फटिक मणि की वेदी एवं चबूतरे शोभा दे रहे थे। वह भवन सब प्रकार से सुखद एवं मनोहर था। मेरु की पुण्यमयी गुफा के समान सदा सर्वत्र सुख प्रदान करनेवाला था। राक्षसराज रावण ने कुम्भकर्ण के लिये ऐसा सुन्दर एवं सुविधाजनक शयनागार बनवाया। महाबली कुम्भकर्ण उस घर में जाकर निद्रा के वशीभूत हो कई हजार वर्षों तक सोता रहा। जाग नहीं पाता था। जब कुम्भकर्ण निद्रा से अभिभूत होकर सो गया, तब दशमुख रावण उच्छृङ्खल हो देवताओं, ऋषियों, यक्षों और गन्धर्वो के समूहों को मारने तथा पीड़ा देने लगा।'
'देवताओं के नन्दनवन आदि जो विचित्र उद्यान थे, उनमें जाकर दशानन अत्यन्त कुपित हो उन सबको उजाड़ देता था। वह राक्षस नदी में हाथी की भाँति क्रीडा करता हुआ उसकी धाराओं को छिन्न-भिन्न कर देता था । वृक्षों को वायु की भाँति झकझोरता हुआ उखाड़ फेंकता था और पर्वतों को इन्द्र के हाथ से छूटे हुए वज्र की भाँति तोड़-फोड़ डालता था।'
'दशग्रीव के इस निरंकुश बर्ताव का समाचार पाकर धनके स्वामी धर्मज्ञ कुबेर ने अपने कुल के अनुरूप आचार- व्यवहार का विचार करके उत्तम भ्रातृप्रेम का परिचय देने के लिये लङ्का में एक दूत भेजा। उनका उद्देश्य यह था कि मैं दशानन को उसके हित की बात बताकर राह पर लाऊँ। वह दूत लङ्कापुरी में जाकर पहले विभीषण से मिला। विभीषण ने धर्म के अनुसार उसका सत्कार किया और लङ्का में आने का कारण पूछा। फिर बन्धु-बान्धवों का कुशल- समाचार पूछकर विभीषण ने उस दूत को ले जाकर राजसभा में बैठे हुए दशानन से मिलाया। राजा 'दशग्रीव सभा में अपने तेज से उद्दीप्त हो रहा था, उसे देखकर दूत ने 'महाराज की जय हो' ऐसा कहकर वाणी द्वारा उसका सत्कार किया और फिर वह कुछ देर तक चुपचाप खड़ा रहा।
तत्पश्चात् उत्तम बिछौने से सुशोभित एक श्रेष्ठ पलङ्ग पर बैठे हुए दशग्रीव से उस दूत ने इस प्रकार कहा - वीर महाराज! आपके भाई धनाध्यक्ष कुबेर ने आपके पास जो संदेश भेजा है, वह माता-पिता दोनों के कुल तथा सदाचार के अनुरूप है, मैं उसे पूर्ण रूप से आपको बता रहा हूँ; सुनिये।
'दशग्रीव! तुमने अब तक जो कुछ कुकृत्य किया है, इतना ही बहुत है। अब तो तुम्हें भलीभाँति सदाचार का संग्रह करना चाहिये। यदि हो सके तो धर्म के मार्ग पर स्थित रहो; यही तुम्हारे लिये अच्छा होगा। तुमने नन्दनवन को उजाड़ दिया - यह मैंने अपनी आँखों देखा है। तुम्हारे द्वारा बहुत-से ऋषियों का वध हुआ है, यह भी मेरे सुनने में आया है। राजन् ! इससे तंग आकर देवता तुमसे बदला लेना चाहते हैं। मैंने सुना है कि तुम्हारे विरुद्ध देवताओं का उद्योग आरम्भ हो गया है।'
'राक्षसराज! तुमने कई बार मेरा भी तिरस्कार किया है; तथापि यदि बालक अपराध कर दे तो भी अपने बन्धु- बान्धवों को तो उसकी रक्षा ही करनी चाहिये इसीलिये तुम्हें हितकारक सलाह दे रहा हूँ। मैं शौच-संतोषादि नियमों के पालन और इन्द्रिय-संयम पूर्वक रौद्र व्रत का आश्रय ले धर्म का अनुष्ठान करने के लिये हिमालय के एक शिखर पर गया था।'
‘वहाँ मुझे उमा सहित भगवान् महादेवजी का दर्शन हुआ। महाराज ! उस समय मैंने केवल यह जानने के लिये कि देखूं ये कौन हैं? दैववश देवी पार्वती पर अपनी बायीं दृष्टि डाली थी। निश्चय ही मैंने दूसरे किसी हेतु से (विकार युक्त भावना से) उनकी ओर नहीं देखा था। उस वेला में देवी रुद्राणी अनुपम रूप धारण करके वहाँ खड़ी थीं। देवी के दिव्य प्रभाव से उस समय मेरी बायीं आँख जल गयी और दूसरी (दायीं आँख) भी धूल से भरी हुई-सी पिङ्गल वर्ण की हो गयी। तदनन्तर मैंने पर्वत के दूसरे विस्तृत तट पर जाकर आठ सौ वर्षों तक मौन भाव से उस महान् व्रत को धारण किया।'
उस नियम के समाप्त होने पर भगवान् महेश्वर देव ने मुझे दर्शन दिया और प्रसन्न मन से कहा - उत्तम व्रत का पालन करने वाले धर्मज्ञ धनेश्वर ! मैं तुम्हारी इस तपस्या से बहुत संतुष्ट हूँ। एक तो मैंने इस व्रत का आचरण किया है और दूसरे तुमने। तीसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो ऐसे कठोर व्रत का पालन कर सके। इस अत्यन्त दुष्कर व्रत को पूर्वकाल में मैंने ही प्रकट किया था। अतः सौम्य धनेश्वर! अब तुम मेरे साथ मित्रता का सम्बन्ध स्थापित करो, यह सम्बन्ध तुम्हें पसंद आना चाहिये। अनघ! तुमने अपने तप से मुझे जीत लिया है; अत: मेरा मित्र बनकर रहो।
‘देवी पार्वती के रूप पर दृष्टिपात करने से देवी के प्रभाव से जो तुम्हारा बायाँ नेत्र जल गया और दूसरा नेत्र भी पिङ्गल वर्ण का हो गया, इससे सदा स्थिर रहनेवाला तुम्हारा 'एकाक्षपिङ्गली' यह नाम चिरस्थायी होगा। इस प्रकार भगवान् शङ्कर के साथ मैत्री स्थापित करके उनकी आज्ञा लेकर जब मैं घर लौटा हूँ, तब मैंने तुम्हारे पापपूर्ण निश्चय की बात सुनी है। अत: अब तुम अपने कुल में कलंक लगाने वाले पापकर्म के संसर्ग से दूर हट जाओ; क्योंकि ऋषि-समुदाय सहित देवता तुम्हारे वध का उपाय सोच रहे हैं।'
दूत के मुँह से ऐसी बात सुनकर दशग्रीव के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। वह हाथ मलता हुआ दाँत पीसकर बोला - दूत! तू जो कुछ कह रहा है, उसका अभिप्राय मैंने समझ लिया। वह कुबेर यह समझता है कि मैंने उससे यह लंकापुरी दान में पायी है और मैं उसका दास हूँ। अब तो न तू जीवित रह सकता है और न वह भाई ही, जिसने तुझे यहाँ भेजा है। धनरक्षक कुबेर ने जो संदेश दिया है, वह मेरे लिये हितकर नहीं है। वह मूढ़ मुझे भयभीत करने के लिये महादेवजी के साथ अपनी मित्रता की कथा सुना रहा है?
'दूत! तूने जो बात यहाँ कही है, यह मेरे लिये सहन करने योग्य नहीं है। कुबेर मेरे बड़े भाई हैं, अत: उनका वध करना उचित नहीं है - ऐसा समझकर ही मैंने आजतक उन्हें क्षमा किया है। किंतु इस समय उनकी बात सुनकर मैंने यह निश्चय किया है कि मैं अपने बाहुबल का भरोसा करके तीनों लोकों को जीतूंगा। इसी मुहूर्त में मैं एक के ही अपराध से उन चारों लोकपालों को यमलोक पहुँचाऊँगा।'
'ऐसा कहकर लङ्केश ने तलवार से उस दूत के दो टुकड़े कर डाले और उसका शव उसने दुरात्मा राक्षसों को खाने के लिये दे दीया। तत्पश्चात् दशानन स्वस्ति वाचन करके रथ पर चढ़ा और तीनों लोकों पर विजय पाने की इच्छा से उस स्थान पर गया, जहाँ धनपति कुबेर रहते थे।
इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-३४(34) समाप्त !
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