सूतजी कहते हैं - हे ऋषियों ! सगर के यज्ञ का विस्तारपूर्वक वर्णन सुनो। शङ्करजी के श्वशुर हिमवान् नाम से विख्यात पर्वत विन्ध्याचल तक पहुँचकर तथा विन्ध्यपर्वत हिमवान तक पहुँचकर दोनों एक-दूसरेको देखते हैं (इन दोनों के बीच में दूसरा कोई ऐसा ऊँचा पर्वत नहीं है, जो दोनों के पारस्परिक दर्शन में बाधा उपस्थित कर सके)। इन्हीं दोनों पर्वतों के बीच आर्यावर्त की पुण्यभूमि में उस यज्ञ का अनुष्ठान हुआ था।
'वही देश यज्ञ करने के लिये उत्तम माना गया है । राजा सगर की आज्ञा से यज्ञिय अश्व की रक्षा का भार सुदृढ धनुर्धर महारथी अंशुमान्ने स्वीकार किया था। परंतु पर्व के दिन यज्ञ में लगे हुए राजा सगर के यज्ञ सम्बन्धी घोड़े को इन्द्र ने राक्षस का रूप धारण करके चुरा लिया।'
महामना सगर के उस अश्व का अपहरण होते समय समस्त ऋत्विजों ने यजमान सगर से कहा - ककुत्स्थनन्दन! आज पर्व के दिन कोई इस यज्ञ सम्बन्धी अश्व को चुराकर बड़े वेग से लिये जा रहा है। आप चोर को मारिये और घोड़ा वापस लाइये, नहीं तो यज्ञ में विघ्न पड़ जायेगा और वह हम सब लोगों के लिये अमंगल का कारण होगा। राजन्! आप ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे यह यज्ञ बिना किसी विघ्न-बाधाके परिपूर्ण हो।
उस यज्ञ-सभामें बैठे हुए राजा सगर ने उपाध्यायों की बात सुनकर अपने साठ हजार पुत्रों से कहा - पुरुषप्रवर् पुत्रो! यह महान् यज्ञ वेदमन्त्रों से पवित्र अन्तःकरण वाले महाभाग महात्माओं द्वारा सम्पादित हो रहा है; अतः यहाँ राक्षसों की पहुँच हो, ऐसा मुझे नहीं दिखायी देता अत: यह अश्व चुराने वाला कोई देवकोटि का पुरुष होगा।
‘अत: पुत्रो! तुम लोग जाओ, घोड़े की खोज करो। तुम्हारा कल्याण हो । समुद्र से घिरी हुई इस सारी पृथ्वी को छान डालो। एक-एक योजन विस्तृत भूमि को बाँटकर उसका चप्पा-चप्पा देख डालो। जबतक घोड़े का पता न लग जाये, तबतक मेरी आज्ञा से इस पृथ्वी को खोदते रहो। इसे खोदने का एक ही लक्ष्य है - उस अश्व के चोर को ढूँढ़ निकालना। मैं यज्ञ की दीक्षा ले चुका हूँ, अतः स्वयं उसे ढूँढने के लिये नहीं जा सकता; इसलिये जबतक उस अश्व का दर्शन न हो, तबतक मैं उपाध्यायों और पौत्र अंशुमान के साथ यहीं रहूँगा।'
'पिता के आदेश रूपी बन्धन से बँधकर वे सभी महाबली राजकुमार मन ही मन हर्ष का अनुभव करते हुए भूतल पर विचरने लगे। सारी पृथ्वी का चक्कर लगाने के बाद भी उस अश्व को न देखकर उन महाबली पुरुषसिंह राजपुत्रों ने प्रत्येक हिस्से में एक-एक योजन भूमिका बँटवारा करके अपनी भुजाओं द्वारा उसे खोदना आरम्भ किया। उनकी उन भुजाओं का स्पर्श वज्र के स्पर्श की भाँति दुस्सह था।'
'ऋषियों ! उस समय वज्र तुल्य शूलों और अत्यन्त दारुण हलों द्वारा सब ओर से विदीर्ण की जाती हुई वसुधा आर्तनाद करने लगी। उन राजकुमारों द्वारा मारे जाते हुए नागों, असुरों, राक्षसों तथा दूसरे-दूसरे प्राणियों का भयंकर आर्तनाद गूंजने लगा। उन्होंने साठ हजार योजन की भूमि खोद डाली। मानो वे सर्वोत्तम रसातल का अनुसंधान कर रहे हों। इस प्रकार पर्वतों से युक्त जम्बूद्वीप की भूमि खोदते हुए वे राजकुमार सब ओर चक्कर लगाने लगे।'
‘इसी समय गन्धर्वों, असुरों और नागों सहित सम्पूर्ण देवता मन-ही-मन घबरा उठे और ब्रह्माजी के पास गये। उनके मुख पर विषाद छा रहा था। वे भय से अत्यन्त संत्रस्त हो गये थे।'
उन्होंने महात्मा ब्रह्माजी को प्रसन्न करके इस प्रकार कहा -भगवन्! सगर के पुत्र इस सारी पृथ्वी को खोदे डालते हैं और बहुत-से महात्माओं तथा जलचारी जीवों का वध कर रहे हैं। यह हमारे यज्ञ में विघ्न डालने वाला है। यह हमारा अश्व चुराकर ले जाता है' ऐसा कहकर वे सगर के पुत्र समस्त प्राणियों की हिंसा कर रहे हैं।
देवताओं की बात सुनकर भगवान् ब्रह्माजी ने कितने ही प्राणियों का अन्त करनेवाले सगर पुत्रों के बल से मोहित एवं भयभीत हुए उन देवताओं से इस प्रकार कहा - देवगण! यह सारी पृथ्वी जिन भगवान् वासुदेव की वस्तु है तथा जिन भगवान् लक्ष्मीपति की यह रानी है, वे ही सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि कपिल मुनि का रूप धारण करके निरन्तर इस पृथ्वी को धारण करते हैं। उनकी कोपाग्नि से ये सारे राजकुमार जलकर भस्म हो जायेंगे। पृथ्वी का यह भेदन सनातन है - प्रत्येक कल्प में अवश्यम्भावी है। (श्रुतियों और स्मृतियों में आये हुए सागर आदि शब्दोंसे यह बात सुस्पष्ट ज्ञात होती है।) इसी प्रकार दूरदर्शी पुरुषों ने सगरके पुत्रों का भावी विनाश भी देखा ही है; अत: इस विषय में शोक करना अनुचित है।
ब्रह्माजी का यह कथन सुनकर शत्रुओं का दमन करनेवाले तैंतीस देवता बड़े हर्ष में भरकर जैसे आये थे, उसी तरह पुन: लौट गये। सगर पुत्रों के हाथ से जब पृथ्वी खोदी जा रही थी, उस समय उससे वज्रपात के समान बड़ा भयंकर शब्द होता था।
इस तरह सारी पृथ्वी खोदकर तथा उसकी परिक्रमा करके वे सभी सगरपुत्र पिताके पास खाली हाथ लौट आये और बोले - पिताजी! हमने सारी पृथ्वी छान डाली। देवता, दानव, राक्षस, पिशाच और नाग आदि बड़े-बड़े बलवान् प्राणियों को मार डाला। फिर भी हमें न तो कहीं घोड़ा दिखायी दिया और न घोड़े का चुराने वाला ही। अब हम क्या करें? इस विषय में आप ही कोई उपाय सोचिये।
पुत्रों का यह वचन सुनकर राजाओं में श्रेष्ठ सगर ने उनसे कुपित होकर कहा - जाओ, फिर से सारी पृथ्वी खोदो और इसे विदीर्ण करके घोड़े के चोर का पता लगाओ। चोर तक पहुँचकर कार्य पूरा होने पर ही लौटना।
'अपने महात्मा पिता सगर की यह आज्ञा शिरोधार्य करके वे साठ हजार राजकुमार रसातल की ओर बढ़े (और रोष में भरकर पृथ्वी खोदने लगे) उस खुदाई के समय ही उन्हें एक पर्वताकार दिग्गज दिखायी दिया, जिसका नाम विरूपाक्ष है। वह इस भूतल को धारण किये हुए था। महान् गजराज विरूपाक्ष ने पर्वत और वनों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने मस्तकपर धारण कर रखा था।'
'वह महान् दिग्गज जिस समय थककर विश्राम के लिये अपने मस्तक को इधर-उधर हटाता था, उस समय भूकम्प होने लगता था। पूर्व दिशा की रक्षा करने वाले विशाल गजराज विरूपाक्ष की परिक्रमा करके उसका सम्मान करते हुए वे सगर पुत्र रसातल का भेदन करके आगे बढ़ गये। पूर्व दिशा का भेदन करने के पश्चात् वे पुनः दक्षिण दिशा की भूमि को खोदने लगे।'
'दक्षिण दिशा में भी उन्हें एक महान् दिग्गज दिखायी दिया। उसका नाम था महापद्म। महान् पर्वत के समान ऊँचा वह विशालकाय गजराज अपने मस्तक पर पृथ्वी को धारण करता था। उसे देखकर उन राजकुमारों को बड़ा विस्मय हुआ। महात्मा सगर के वे साठ हजार पुत्र उस दिग्गज की परिक्रमा करके पश्चिम दिशा की भूमिका भेदन करने लगे।'
'पश्चिम दिशा में भी उन महाबली सगर पुत्रों ने महान् पर्वताकार दिग्गज सौमनस का दर्शन किया। उसकी भी परिक्रमा करके उसका कुशल- समाचार पूछकर वे सभी राजकुमार भूमि खोदते हुए उत्तर दिशा में जा पहुँचे। उत्तर दिशा में उन्हें हिम के समान श्वेतभद्र नामक दिग्गज दिखायी दिया, जो अपने कल्याणमय शरीर से इस पृथ्वी को धारण किये हुए था। उसका कुशल- समाचार पूछकर राजा सगर के वे सभी साठ हजार पुत्र उसकी परिक्रमा करने के पश्चात् भूमि खोदने कार्य में जुट गये।'
'तदनन्तर सुविख्यात पूर्वोत्तर दिशा में जाकर उन सगरकुमारों ने एक साथ होकर रोषपूर्वक पृथ्वी को खोदना आरम्भ किया। इस बार उन सभी महामना, महाबली एवं भयानक वेगशाली राजकुमारों ने वहाँ सनातन वासुदेवस्वरूप भगवान् कपिलको देखा। राजा सगर के यज्ञका वह घोड़ा भी भगवान् कपिलके पास ही चर रहा था। उसे देखकर उन सबको अनुपम हर्ष प्राप्त हुआ। भगवान् कपिल को अपने यज्ञ में विघ्न डालनेवाला जानकर उनकी आँखें क्रोध से लाल हो गयीं। उन्होंने अपने हाथों में खंती, हल और नाना प्रकार के वृक्ष एवं पत्थरों के टुकड़े ले रखे थे।'
वे अत्यन्त रोष में भरकर उनकी ओर दौड़े और बोले - अरे! खड़ा रह, खड़ा रह । तू ही हमारे यज्ञ के घोड़े को यहाँ चुरा लाया है। दुर्बुद्धे ! अब हम आ गये। तू समझ ले, हम महाराज सगर के पुत्र हैं।
'उनकी बात सुनकर भगवान् कपिल को बड़ा रोष हुआ और उस रोष के आवेश में ही उनके मुँह से एक हुंकार निकल पड़ा। उस हुंकार के साथ ही उन अनन्त प्रभावशाली महात्मा कपिल ने उन सभी सगरपुत्रों को जलाकर राख का ढेर कर दिया।
इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-३३(33) समाप्त !
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