भाग-३२(32) राजा हरिश्चंद्र का पुत्र-मोह तथा महाप्रतापी राजा सगर की कथा

 


ऋषियों ने कहा - हे ज्ञाननिधान सूतजी ! आपने हमें सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र तथा ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की पुण्यमयी कथा का श्रवण करवाया। हे कृपासागर ! हरिश्चंद्र को राज्य मिलने के बाद उन्होंने अपने शेष जीवन में राज्य का शासन किस प्रकार चलाया। 

सूतजी बोले - ऋषियों ! हरिश्चन्द्र के कोई सन्तान न थी। इससे वे बहुत उदास रहा करते थे। नारद के उपदेश से वे वरुण देवता की शरण में गये और उनसे प्रार्थना की कि ‘प्रभो! मुझे पुत्र प्राप्त हो। महाराज! यदि मेरे वीर पुत्र होगा तो मैं उसी से आपका यजन करूँगा। 

वरुण ने कहा - ‘ठीक है।’ तब वरुण की कृपा से हरिश्चन्द्र के रोहित नाम का पुत्र हुआ। पुत्र होते ही वरुण ने आकर कहा - ‘हरिश्चन्द्र! तुम्हें पुत्र प्राप्त हो गया। अब इसके द्वारा मेरा यज्ञ करो।

हरिश्चन्द्र ने कहा - जब आपका यह यज्ञपशु (रोहित) दस दिन से अधिक का हो जायेगा, तब यज्ञ के योग्य होगा।

दस दिन बीतने पर वरुण ने आकर फिर कहा - ‘अब मेरा यज्ञ करो।’

हरिश्चन्द्र ने कहा - जब आपके यज्ञपशु के मुँह में दाँत निकल आयेंगे, तब वह यज्ञ के योग्य होगा। 

दाँत उग आने पर वरुण ने कहा - अब इसके दाँत निकल आये, मेरा यज्ञ करो।

हरिश्चन्द्र ने कहा - जब इसके दूध के दाँत गिर जायेंगे, तब यह यज्ञ के योग्य होगा।

दूध के दाँत गिर जाने पर वरुण ने कहा - अब इस यज्ञपशु के दाँत गिर गये, मेरा यज्ञ करो।

हरिश्चन्द्र ने कहा - ‘जब इसके दुबारा दाँत आ जायेंगे, तब यह पशु यज्ञ के योग्य हो जायेगा।

दाँतों के फिर उग आने पर वरुण ने कहा - ‘अब मेरा यज्ञ करो।’

हरिश्चन्द्र ने कहा - ‘वरुण जी महाराज! क्षत्रिय पशु तब यज्ञ के योग्य होता है, जब वह कवच धारण करने लगे।

'ऋषियों ! इस प्रकार राजा हरिश्चन्द्र पुत्र के प्रेम से हीला-हवाला करके समय टालते रहे। इसका कारण यह था कि पुत्र-स्नेह की फाँसी ने उनके हृदय को जकड़ लिया था। वे जो-जो समय बताते वरुण देवता उसी की बाट देखते।' 

'जब रोहित को इस बात का पता चला कि पिताजी तो मेरा बलिदान करना चाहते हैं, तब वह अपने प्राणों की रक्षा के लिये हाथ में धनुष लेकर वन में चला गया। कुछ दिन के बाद उसे मालूम हुआ कि वरुण देवता ने रुष्ट होकर मेरे पिताजी पर आक्रमण किया है-जिसके कारण वे महोदर रोग (आंतों में पानी या अन्य तरल पदार्थ के जमाव के कारण पेट के फूल जाने की एक स्थिति है।) से पीड़ित हो रहे हैं, तब रोहित अपने नगर की ओर चल पड़ा। परन्तु इन्द्र ने आकर उसे रोक दिया।'

उन्होंने कहा - पुत्र रोहित! यज्ञ पशु बनकर मरने की अपेक्षा तो पवित्र तीर्थ और क्षेत्रों का सेवन करते हुए पृथ्वी में विचरना ही अच्छा है। इन्द्र की बात मानकर वह एक वर्ष तक और वन में ही रहा।

'इसी प्रकार दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवें वर्ष भी रोहित ने अपने पिता के पास जाने का विचार किया; परन्तु बूढ़े ब्राह्मण का वेश धारण कर हर बार इन्द्र आते और उसे रोक देते। इस प्रकार छः वर्ष तक रोहित वन में ही रहा। सातवें वर्ष जब वह अपने नगर को लौटने लगा, तब उसने अजीगर्त से उनके मझले पुत्र शुनःशेप को मोल ले लिया और उसे यज्ञ पशु बनाने के लिये अपने पिता को सौंपकर उनके चरणों में नमस्कार किया।' 

तब परम यशस्वी एवं श्रेष्ठ चरित्र वाले राजा हरिश्चन्द्र ने महोदर रोग से छूटकर पुष्पमेध यज्ञ द्वारा वरुण आदि देवताओं का यजन किया। उस यज्ञ में विश्वामित्रजी होता हुए। परमसंयमी जमदग्नि ने अध्वर्यु का काम किया। वसिष्ठजी ब्रह्मा बने और अयास्य मुनि समागम करने वाले उद्गाता बने। उस समय इन्द्र ने प्रसन्न होकर हरिश्चन्द्र को एक सोने का रथ दिया था।

'हरिश्चन्द्र को अपनी पत्नी के साथ सत्य में दृढ़तापूर्वक स्थित देखकर विश्वामित्रजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उन्हें उस ज्ञान का उपदेश किया, जिसका कभी नाश नहीं होता। उसके अनुसार राजा हरिश्चन्द्र ने अपने मन को पृथ्वी में, पृथ्वी को जल में, जल को तेज में, तेज को वायु में और वायु को आकाश में स्थिर करके, आकाश को अहंकार में लीन कर दिया। फिर अहंकार को महत्तत्त्व में लीन करके उसमें ज्ञान-कला का ध्यान किया और उससे अज्ञान को भस्म कर दिया।' 

इसके बाद निर्वाण-सुख की अनुभूति से उस ज्ञान-कला का भी परित्याग कर दिया और समस्त बन्धनों से मुक्त होकर वे अपने उस स्वरूप में स्थित हो गये, जो न तो किसी प्रकार बतलाया जा सकता है और न उसके सम्बन्ध में किसी प्रकार का अनुमान ही किया जा सकता है।'

सूतजी कहते हैं - ऋषियों ! रोहित का पुत्र था हरित। हरित से चम्प हुआ। उसी ने चम्पापुरी बसायी। चम्प से सुदेव और उसका पुत्र विजय हुआ। विजय का भरुक, भरुक का वृक और वृक का पुत्र हुआ बाहुक। शत्रुओं ने बाहुक से राज्य छीन लिया, तब वह अपनी पत्नी के साथ वन में चला गया। वन में जाने पर बुढ़ापे के कारण जब बाहुक की मृत्यु हो गयी, तब उसकी पत्नी भी उसके साथ सती होने को उद्यत हुई। परन्तु महर्षि और्व को यह मालूम था कि इसे गर्भ है। इसलिये उन्होंने उसे सती होने से रोक दिया। जब उसकी सौतों को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने उसे भोजन के साथ गर (विष) दे दिया। परन्तु गर्भ पर उस विष का कोई प्रभाव नहीं पड़ा; बल्कि उस विष को लिये हुए ही एक बालक का जन्म हुआ, जो गर के साथ पैदा होने के कारण ‘सगर’ कहलाया। सगर बड़े यशस्वी राजा हुए। उन्हें कोई पुत्र नहीं था; अत: वे पुत्र-प्राप्ति के लिये सदा उत्सुक रहा करते थे। 

'विदर्भराजकुमारी केशिनी राजा सगर की ज्येष्ठ पत्नी थी। वह बड़ी धर्मात्मा और सत्यवादिनी थी। 'सगर की दूसरी पन्ती का नाम सुमति था। वह अरिष्टनेमि कश्यप की पुत्री तथा गरुड की बहिन थी। महाराज सगर अपनी उन दोनों पत्नियों के साथ हिमालय पर्वत पर जाकर भृगुप्रस्रवण नामक शिखर पर तपस्या करने लगे।' 

सौ वर्ष पूर्ण होने पर उनकी तपस्या द्वारा प्रसन्न हुए सत्यवादियों में श्रेष्ठ महर्षि भृगु ने राजा सगर को वर दिया - निष्पाप नरेश! तुम्हें बहुत से पुत्रों की प्राप्ति होगी । पुरुषप्रवर! तुम इस संसार में अनुपम कीर्ति प्राप्त करोगे। 'तात! तुम्हारी एक पत्नी तो एक ही पुत्र को जन्म देगी, जो अपनी वंशपरम्परा का विस्तार करनेवाला होगा तथा दूसरी पत्नी साठ हजार पुत्रों की जननी होगी। 

महात्मा भृगु जब इस प्रकार कह रहे थे, उस समय उन दोनों राजकुमारियों (रानियों) ने उन्हें प्रसन्न करके स्वयं भी अत्यन्त आनन्दित हो दोनों हाथ जोड़कर पूछा- ब्रह्मन् ! किस रानी के एक पुत्र होगा और कौन बहुत से पुत्रों की जननी होगी? हम दोनों यह सुनना चाहती हैं। आपकी वाणी सत्य हो' 

उन दोनों की यह बात सुनकर परम धर्मात्मा भृगुने उत्तम वाणीमें कहा – देवियो ! तुम लोग यहाँ अपनी इच्छा प्रकट करो। तुम्हें वंश चलाने वाला एक ही पुत्र प्राप्त हो अथवा महान् बलवान्, यशस्वी एवं अत्यन्त उत्साही बहुत-से पुत्र? इन दो वरों में से किस वर को कौन-सी रानी ग्रहण करना चाहती है? 

'मुनि का यह वचन सुनकर केशिनी ने राजा सगर के समीप वंश चलाने वाले एक ही पुत्र का वर ग्रहण किया। तब गरुड़ की बहिन सुमति ने महान् उत्साही और यशस्वी साठ हजार पुत्रों को जन्म देने का वर प्राप्त किया। तदनन्तर रानियों सहित राजा सगर ने महर्षि की परिक्रमा करके उनके चरणों में मस्तक झुकाया और अपने नगर को प्रस्थान किया।' 

'कुछ काल व्यतीत होने पर बड़ी रानी केशिनी ने सगर के औरस पुत्र 'असमञ्ज' को जन्म दिया। (छोटी रानी) सुमति ने तँबी के आकार का एक गर्भपिण्ड उत्पन्न किया। उसको फोड़ने से साठ हजार बालक निकले। उन्हें घीसे भरे हुए घड़ों में रखकर धाइयाँ उनका पालन-पोषण करने लगीं। धीरे-धीरे जब बहुत दिन बीत गये, तब वे सभी बालक युवावस्था को प्राप्त हुए।'

‘इस तरह दीर्घकाल के पश्चात् राजा सगर के रूप और युवावस्था से सुशोभित होनेवाले साठ हजार पुत्र तैयार हो गये। सगर का ज्येष्ठ पुत्र असमञ्ज नगर के बालकों को पकड़कर सरयू के जल में फेंक देता और जब वे डूबने लगते, तब उनकी ओर देखकर हँसा करता। इस प्रकार पापाचार में प्रवृत्त होकर जब वह सत्पुरुषों को पीड़ा देने और नगर निवासियों का अहित करने लगा, तब पिता ने उसे नगर से बाहर निकाल दिया।' 

'असमञ्ज के पुत्र का नाम था अंशुमान्। वह बड़ा ही पराक्रमी, सबसे मधुर वचन बोलने वाला तथा सब लोगों को प्रिय था। कुछ काल के अनन्तर महाराज सगर के मन में यह निश्चित विचार हुआ कि 'मैं यज्ञ करूँ। यह दृढ़ निश्चय करके वे वेदवेत्ता नरेश अपने उपाध्यायों के साथ यज्ञ करने की तैयारी में लग गये। 

इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-३२(32) समाप्त !

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