भाग-३२(32) रावण का संदेश सुनकर पिता की आज्ञा से कुबेर का लङ्का को छोड़कर कैलाश पर जाना, लङ्का में रावण का राज्याभिषेक तथा राक्षसों का निवास

 

अगस्त्यजी कहते हैं - श्रीराम! दशानन आदि निशाचरों को वर प्राप्त हुआ है, यह जानकर सुमाली नामक राक्षस अपने अनुचरों सहित भय छोड़कर रसातल से निकला। साथ ही मारीच, प्रहस्त, विरूपाक्ष और महोदर - ये उस राक्षस के चार मन्त्री भी रसातल से ऊपर को उठे। वे सब-के-सब रोषावेष से भरे हुए थे।' 

श्रेष्ठ राक्षसों से घिरा हुआ सुमाली अपने सचिवों के साथ दशानन के पास गया और उसे छाती से लगाकर इस प्रकार बोला - वत्स! बड़े सौभाग्य की बात है कि तुमने त्रिभुवन श्रेष्ठ ब्रह्माजी से उत्तम वर प्राप्त किया, जिससे तुम्हें यह चिरकाल से चिन्तित मनोरथ उपलब्ध हो गया। महाबाहो! जिसके कारण हम सब राक्षस लङ्का छोड़कर रसातल में चले गये थे, भगवान् विष्णु से प्राप्त होनेवाला हमारा यह महान् भय दूर हो गया। हम सब लोग बारम्बार भगवान् विष्णु के भय से पीड़ित होने के कारण अपना घर छोड़ भाग निकले और सब- के-सब एक साथ ही रसातल में प्रविष्ट हो गये। 

‘यह लङ्कानगरी जिसमें तुम्हारे बुद्धिमान् भाई धनाध्यक्ष कुबेर निवास करते हैं, हमलोगों की है। पहले इसमें राक्षस ही रहा करते थे। निष्पाप महाबाहो ! यदि साम, दान अथवा बलप्रयोग के द्वारा भी पुनः लङ्का को वापस लिया जा सके तो हम लोगों का काम बन जाये। तात! तुम्हीं लङ्का के स्वामी होओगे, इसमें संशय नहीं है; क्योंकि तुमने इस राक्षसवंश का जो रसातल में डूब गया था, उद्धार किया है। महाबली वीर! तुम्हीं हम सबके राजा होओगे।' 

यह सुनकर दशग्रीव ने पास खड़े हुए अपने मातामह से कहा - नानाजी ! धनाध्यक्ष कुबेर हमारे बड़े भाई हैं, अत: उनके सम्बन्ध में आपको मुझसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। उस श्रेष्ठ राक्षसराज के द्वारा शान्तभाव से ही ऐसा कोरा उत्तर पाकर सुमाली समझ गया कि रावण क्या करना चाहता है, इसलिये वह राक्षस चुप हो गया। फिर कुछ कहने का साहस न कर सका। 

तदनन्तर कुछ काल व्यतीत होने पर अपने स्थान पर निवास करते हुए दशग्रीव रावण से जो सुमाली को पहले पूर्वोक्त उत्तर दे चुका था, निशाचर प्रहस्त ने विनयपूर्वक यह युक्तियुक्त बात कही - महाबाहु दशग्रीव! आपने अपने नाना से जो कुछ कहा है, वैसा नहीं कहना चाहिये; क्योंकि वीरों में इस तरह भ्रातृभाव का निर्वाह होता नहीं देखा जाता। आप मेरी यह बात सुनिये। अदिति और दिति दोनों सगी बहनें हैं। वे दोनों ही प्रजापति कश्यप की परम सुन्दरी पत्नियाँ हैं।'  

‘अदिति ने देवताओं को जन्म दिया है, जो इस समय त्रिभुवन के स्वामी हैं और दिति ने दैत्यों को उत्पन्न किया है। देवता और दैत्य दोनों ही महर्षि कश्यप के औरस पुत्र हैं। धर्मज्ञ वीर! पहले पर्वत, वन और समुद्रों सहित यह सारी पृथ्वी दैत्यों के ही अधिकार में थी; क्योंकि वे बड़े प्रभावशाली थे। किंतु सर्वशक्तिमान् भगवान् विष्णु ने युद्ध में दैत्यों को मारकर त्रिलोकी का यह अक्षय राज्य देवताओं के अधिकार में दे दिया।' 

‘इस तरह का विपरीत आचरण केवल आप ही नहीं करेंगे। देवताओं और असुरों ने भी पहले इस नीति से काम लिया है; अतः आप मेरी बात मान लें।' 

प्रहस्त के ऐसा कहने पर रावण का चित्त प्रसन्न हो गया। उसने दो घड़ी तक सोच-विचारकर कहा - बहुत अच्छा (तुम जैसा कहते हो, वैसा ही करूँगा)।  

तदनन्तर उसी दिन उसी हर्ष के साथ पराक्रमी दशानन उन निशाचरों को साथ ले लङ्का के निकटवर्ती वन में गया। उस समय त्रिकूटपर्वतपर जाकर निशाचर दशग्रीव ठहर गया और बातचीत करने में कुशल प्रहस्त को उसने दूत बनाकर भेजा। वह बोला - प्रहस्त! तुम शीघ्र जाओ और मेरे कथनानुसार धन के स्वामी राक्षसराज कुबेर से शान्तिपूर्वक यह बात कहो। 

‘राजन्! यह लङ्कापुरी महामना राक्षसों की है, जिसमें आप निवास कर रहे हैं। सौम्य ! निष्पाप यक्षराज! यह आपके लिये उचित नहीं है। अतुल पराक्रमी धनेश्वर! यदि आप हमें यह लङ्कापुरी लौटा दें तो इससे हमें बड़ी प्रसन्नता होगी और आपके द्वारा धर्म का पालन हुआ समझा जायेगा।' 

तब प्रहस्त कुबेर के द्वारा सुरक्षित लङ्कापुरी में गया और उन वित्तपाल से बड़ी उदारतापूर्ण वाणी में बोला - उत्तम व्रत का पालन करनेवाले, सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ, सर्वशास्त्रविशारद, महाबाहु, महाप्राज्ञ धनेश्वर ! आपके भाई दशग्रीव (दशानन) ने मुझे आपके पास भेजा है। दशमुख आपसे जो कुछ कहना चाहते हैं, वह बता रहा हूँ। आप मेरी बात सुनिये। 

'विशाल लोचन वैश्रवण ! यह रमणीय लङ्कापुरी पहले भयानक पराक्रमी सुमाली आदि राक्षसों के अधिकार में रही है। उन्होंने बहुत समय तक इसका उपभोग किया है। अतः वे (दशग्रीव) इस समय यह सूचित कर रहे हैं कि 'यह लङ्का जिनकी वस्तु है, उन्हें लौटा दी जाये। तात! शान्तिपूर्वक याचना करने वाले दशानन  को आप यह पुरी लौटा दें।' 

प्रहस्त के मुख से यह बात सुनकर वाणी का मर्म समझने वालों में श्रेष्ठ भगवान् वैश्रवण (कुबेर) ने प्रहस्त को इस प्रकार उत्तर दिया - राक्षस! यह लङ्का पहले निशाचरों से सूनी थी। उससे भी पूर्व पिताश्री ने यह लंका विश्वनाथ महादेव से भेंट स्वरुप प्राप्त की थी। उस समय पिताजी ने मुझे इसमें रहने की आज्ञा दी और मैंने इसमें दान, मान आदि गुणों द्वारा प्रजाजनों को बसाया। दूत! तुम जाकर दशानन से कहो – महाबाहो ! यह पुरी तथा यह निष्कण्टक राज्य जो कुछ भी मेरे पास है, वह सब तुम्हारा भी है। तुम इसका उपभोग करो। मेरा राज्य तथा सारा धन तुमसे बँटा हुआ नहीं है।  

ऐसा कहकर धनाध्यक्ष कुबेर अपने पिता विश्रवा मुनि के पास चले गये। वहाँ पिता को प्रणाम करके उन्होंने दशानन  की जो इच्छा थी, उसे इस प्रकार बताया - तात! आज दशग्रीव ने मेरे पास दूत भेजा और कहलाया है कि इस लङ्का नगरी में पहले राक्षस रहा करते थे, अत: इसे राक्षसों को लौटा दीजिये। सुव्रत! अब मुझे इस विषय में क्या करना चाहिये, बताने की कृपा करें। 

उनके ऐसा कहने पर ब्रह्मर्षि मुनिवर विश्रवा हाथ जोड़कर खड़े हुए धनद कुबेर से बोले – पुत्र ! मेरी बात सुनो। महाबाहु दशग्रीव ने मेरे निकट भी यह बात कही थी। इसके लिये मैंने उस दुर्बुद्धि को बहुत फटकारा, डाँट बताया और बारम्बार क्रोधपूर्वक कहा - 'अरे! ऐसा करने से तेरा पतन हो जायगा। किंतु इसका कुछ फल नहीं हुआ। 

'पुत्र ! अब तुम्हीं मेरे धर्मानुकूल एवं कल्याणकारी वचन को ध्यान देकर सुनो। रावण की बुद्धि बहुत ही खोटी है। वह वर पाकर मदमत्त हो उठा है- विवेक खो बैठा है। मेरे शाप के कारण भी उसकी प्रकृति क्रूर हो गयी है। इसलिये महाबाहो! अब तुम अनुचरों सहित लङ्का छोड़कर कैलास पर्वत पर चले जाओ और अपने रहने के लिये वहीं दूसरा नगर बसाओ। वहाँ नदियों में श्रेष्ठ रमणीय मन्दाकिनी नदी बहती है, जिसका जल सूर्य के समान प्रकाशित होने वाले सुवर्णमय कमलों, कुमुदों, उत्पलों और दूसरे दूसरे सुगन्धित कुसुमों से आच्छादित है।' 

'उस पर्वत पर देवता, गन्धर्व, अप्सरा, नाग और किन्नर आदि दिव्य प्राणी, जिन्हें स्वभाव से ही घूमना-फिरना अधिक प्रिय है, सदा रहते हुए निरन्तर आनन्द का अनुभव करते हैं। धनद! इस राक्षस के साथ तुम्हारा वैर करना उचित नहीं है। तुम तो जानते ही हो कि इसने ब्रह्माजी से कैसा उत्कृष्ट वर प्राप्त किया है।' 

मुनि के ऐसा कहने पर कुबेर ने पिता का मान रखते हुए उनकी बात मान ली और स्त्री, पुत्र, मन्त्री, वाहन तथा धन साथ लेकर वे लङ्का से कैलाश को चले गये। 

तदनन्तर प्रहस्त प्रसन्न होकर मन्त्री और भाइयों के साथ बैठे हुए महामना दशग्रीव के पास जाकर बोला - लङ्का नगरी खाली हो गयी। कुबेर उसे छोड़कर चले गये। अब आप हमलोगों के साथ उसमें प्रवेश करके अपने धर्म का पालन कीजिये। 

'प्रहस्त के ऐसा कहने पर महाबली दशानन ने अपनी सेना, अनुचर तथा भाइयों सहित कुबेर द्वारा त्यागी हुई लङ्कापुरी में प्रवेश किया। उस नगरी में सुन्दर विभाग पूर्वक बड़ी-बड़ी सड़कें बनी थीं। जैसे देवराज इन्द्र स्वर्ग के सिंहासन पर आरूढ़ हुए थे, उसी प्रकार देवद्रोही दशग्रीव ने लङ्का में पदार्पण किया। उस समय निशाचरों ने दशमुख दशानन का राज्याभिषेक किया। फिर दशानन ने उस पुरी को बसाया। देखते-देखते समूची लङ्कापुरी नील मेघ के समान वर्ण वाले राक्षसों से पूर्णतः भर गयी। धन के स्वामी कुबेर ने पिता की आज्ञा को आदर देकर चन्द्रमा के समान निर्मल कान्ति वाले कैलाश पर्वत पर शोभाशाली श्रेष्ठ भवनों से विभूषित अल्कापुरी बसायी, ठीक वैसे ही जैसे देवराज इन्द्र ने स्वर्गलोक में अमरावती पुरी बसायी थी। 

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-३२(32) समाप्त !

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