भाग-३२(32) शिव-पार्वती संवाद

 


सूतजी कहते हैं - परमेश्वर भगवान शिव की बातें सुनकर और उनके साक्षात स्वरूप का दर्शन पाकर देवी पार्वती को बहुत हर्ष हुआ। उनका मुख मंडल प्रसन्नता के कारण कमल दल के समान खिल उठा। उस समय वे बहुत सुख का अनुभव करने लगीं। अपने सम्मुख खड़े महादेव जी से वे इस प्रकार बोलीं- हे देवेश्वर ! आप सबके स्वामी हैं। 

'हे प्रभो! पूर्वकाल आपने जिस प्रिया के कारण प्रजापति दक्ष के संपूर्ण यज्ञ का पलों में विनाश कर दिया था, भला उसे ऐसे ही क्यों भुला दिया? हे सर्वेश्वर! हम दोनों का साथ तो जन्म-जन्मांतर का है। प्रभु ! इस समय मैं समस्त देवताओं की प्रार्थना से प्रसन्न होकर उनको तारकासुर के दुखों से मुक्ति दिलाने के लिए पर्वतों के राजा हिमालय की पत्नी देवी मैना के गर्भ से उत्पन्न हुई हूं। आपको ज्ञात ही है कि आपको पुनः पति रूप में प्राप्त करने हेतु ही मैंने यह कठोर तपस्या की है।' 

'इसलिए देवेश! आप मुझसे विवाह कर मुझे मेरी इच्छानुसार अपनी पत्नी बना लें। भगवन् आप तो अनेक लीलाएं रचते हैं। अब आप मेरे पिता शैलराज हिमालय और मेरी माता मैना के समक्ष चलकर उनसे मेरा हाथ मांग लीजिए।

'भगवन्! जब आप इन सब बातों से मेरे पिता को अवगत कराएंगे, तब वे निश्चय ही मेरा हाथ प्रसन्नतापूर्वक आपको सौंप देंगे। पूर्व जन्म में जब मैं प्रजापति दक्ष की पुत्री सती थी, उस समय मेरा और आपका विवाह हुआ था। तब मेरे पिता दक्ष ने ग्रहों की पूजा नहीं की थी। उस विवाह में ग्रहपूजन से संबंधित बहुत बड़ी त्रुटि रह गई थी।' 

'मैं यह चाहती हूं कि इस बार शास्त्रोक्त विधि से हमारा विवाह संपन्न हो। हमें विवाह से संबंधित सभी रीति-रिवाजों और रस्मों का भली-भांति पालन करना चाहिए ताकि इस बार हमारा विवाह सफल हो सके। देवेश्वर ! आप मेरे पिता हिमालय को इस संबंध में बताएं ताकि उन्हें अपनी पुत्री की तपस्या के विषय में ज्ञात हो सके।'

देवी पार्वती के प्रेम और निष्ठा भरे इन शब्दों को सुनकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए और हंसते हुए बोले - हे देवी! महेश्वरी! इस संसार में हमारे आस-पास जो कुछ भी दिखाई देता है, वह सब ही नाशवान अर्थात नश्वर है। मैं निर्गुण परमात्मा हूं। मैं अपने ही प्रकाश से प्रकाशित होता हूं। मेरा अस्तित्व स्वतंत्र है। देवी आप समस्त कर्मों को करने वाली प्रकृति हैं। आप ही महामाया हैं। आपने ही मुझे इस माया-मोह के बंधनों में फंसाया है। मैंने इन सभी को धारण कर रखा है। 

'कौन मुख्य ग्रह है? कौन ऋतु समूह हैं? हे देवी! आप और मैं दोनों ही सदैव अपने भक्तों को सुख देने के लिए ही अवतार ग्रहण करते हैं। आप सगुण और निर्गुण प्रकृति हैं। हे गिरिजे! मैं आपके पिता के पास आपका हाथ मांगने के लिए नहीं जा सकता । फिर भी आपकी इच्छा को पूरा करना मेरा कर्तव्य है। अतः आप जैसा कहेंगी मैं अवश्य करूंगा।'

महादेव जी के ऐसा कहने पर देवी पार्वती अति हर्ष का अनुभव करने लगीं और शिवजी को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके बोलीं - हे नाथ! आप परमात्मा हैं और मैं प्रकृति हूं। हम दोनों का अस्तित्व स्वतंत्र एवं सगुण है, फिर भी अपने भक्तों की इच्छा पूरा करना हमारा कर्तव्य है। भगवन्! मेरे पिता हिमालय से मेरा हाथ मांगकर उन्हें दाता होने का सौभाग्य प्रदान करें। 

'हे प्रभु! आप तो जगत में भक्तवत्सल नाम से विख्यात हैं। मैं भी तो आपकी परम भक्त हूं। क्या मेरी इच्छा को पूरा करना आपके लिए महत्वपूर्ण नहीं है? नाथ! हम दोनों जन्म-जन्म से एक-दूसरे के ही हैं। हमारा अस्तित्व एक साथ है। तभी तो आपका अर्द्धनारीश्वर रूप सभी मनुष्यों, ऋषि-मुनियों एवं देवताओं द्वारा पूज्य है। मैं आपकी पत्नी हूं। मैं जानती हूं कि आप निर्गुण, निराकार और परमब्रह्म परमेश्वर हैं। आप सदा अपने भक्तों का हित करने वाले हैं। आप अनेकों प्रकार की लीलाएं रचते हैं। भगवन्! आप सर्वज्ञ हैं। मुझ दीन पर भी अपनी कृपादृष्टि करिए और अनोखी लीला रचकर इस कार्य की सिद्धि कीजिए।

'हे ऋषिवरों! ऐसा कहकर देवी पार्वती दोनों हाथ जोड़कर और मस्तक झुकाकर खड़ी हो गईं। अपनी प्राणवल्लभा पार्वती की इच्छा का सम्मान करते हुए महादेवजी ने हिमालय से उनका हाथ मांगने हेतु अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। तत्पश्चात त्रिलोकीनाथ महादेव जी उस स्थान से अंतर्धान होकर अपने निवास कैलाश पर्वत पर चले गए। कैलाश पर्वत पर पहुंचकर शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक सारा वृत्तांत नंदीश्वर सहित अपने सभी गणों को सुनाया। यह जानकर सभी गण बहुत खुश हुए और नाचने-गाने लगे। उस समय वहां महान उत्सव होने लगा। उस समय सभी खुश थे और आनंद का वातावरण था।'

इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-३२(32) समाप्त !



No comments:

Post a Comment

रामायण: एक परिचय

रामायण संस्कृत के रामायणम् का हिंदी रूपांतरण है जिसका शाब्दिक अर्थ है राम की जीवन यात्रा। रामायण और महाभारत दोनों सनातन संस्कृति के सबसे प्र...