भाग-३१(31) राजा हरिश्चंद्र को राज्य तथा विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि पद की प्राप्ति

 


सूतजी कहते हैं - ऋषियों! अपने पुत्र रोहित के शव को रात्रि के घोर अंधकार में श्मसान के डॉम (जल्लाद ) बने अपने पति हरिश्चंद्र की सुरक्षा में छोड़ कर आने वाली तारामती शव के दाह-संस्कार के लिए आवश्यक कर जुटाने हेतु दौड़ती जा रही थी। इस बार विश्वामित्र ने अपनी अंतिम चाल चली। महर्षि ने एक भयानक राक्षसी को प्रकट किया और उसे अपनी योजना बताई। विश्वामित्र के आदेश पर राक्षसी ने रात्रि में सोये काशी के राजा के बालक राजकुमार का राजमहल से अपहरण कर लिया और उसे दूर एक सुनसान मार्ग पर ले आई। तत्पश्चात महर्षि की आज्ञा पर उसने बालक के आभूषण चुराए और फिर उसे मारकर वही छोड़ गई। 

'जब उसी मार्ग से तारामती दौड़ते हुए जा रही थी तब उसका पैर राजकुमार के शव से टकराया। राजकुमार के मृत शरीर को देखकर वह भयभीत हो गई। तभी वहां राजा के सैनिक आ पहुंचे और उसे राजकुमार की मृत्यु का अपराधी समझ राजा के दरबार में ले आए। राजा ने अपने पुत्र की मृत्यु करने और उसके आभूषण चुराने के अपराध में उसका शीश धड़ से अलग करने का आदेश दे दिया। अपने दुर्भाग्य को विधाता की इच्छा मानकर तारामती चुप रही क्योंकि उसके पास स्वयं के निर्दोष होने का कोई प्रमाण नहीं था। राजा के सैनिक तारामती को बंदी बनाकर उसी श्मशान में लेकर आ गए जहाँ उसके पुत्र का शव पड़ा था।' 

अपनी पत्नी को इस दशा में देख हरिश्चंद्र अचंभित थे। वीरबाहु (हरिश्चंद्र का यजमान) ने कहा - वीरदास (हरिश्चंद्र) इस पापिन स्त्री ने राजा के मासूम बालक और हमारे नगर के राजकुमार की निर्मम हत्या की है तथा साथ ही उसके तन पर जो आभूषण थे उन्हें भी चुराया है। अतः राजा ने इसे प्राणदंड दिया है। अब तुम राजाज्ञा का पालन कर अपने हाथों से इसका शीश धड़ से अलग कर दो और हमारे सच्चे सेवक होने का कर्तव्य पूरा करो। हरिश्चंद्र यह सोचकर  व्यथित हो रहे थे कि यह सब एकाएक क्या हो गया? आखिर किस अपराध का दंड विधाता हमे दे रहे हैं? किन्तु अपने वचनों और कर्त्तव्यों से बंधे हरिश्चंद्र के पास कोई ओर मार्ग ही नहीं बचा था। हरिश्चंद्र ने मन ही मन सोचा - लगता है आज विधाता हमसे रुष्ठ हो चुके हैं। एक तरफ पुत्र का शव पड़ा है और दूसरी तरफ पत्नी मृत्यु के मार्ग पर खड़ी है। सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो ये है की उसके प्राण भी मेरे ही हाथों निकलेंगे। जिसके साथ जीवन भर साथ रहने का वचन लिया, जिसके प्राणों की रक्षा का वचन लिया वो सब झूठे होने वाले हैं। 

वीरबाहु ने हरिश्चंद्र के हाथ में परशु देकर कहा - वीरदास बिना विलम्ब किये अपना कर्त्तव्य पूर्ण करो। यदि तुमने ऐसा कर दिया तो राजा तुम्हे पारितोषिक देंगे। उसका उपयोग अपनी पत्नी और पुत्र के साथ प्रसन्नतापूर्वक करना। वीरबाहु को हरिश्चंद्र और तारामती के मध्य के रिश्ते का ज्ञान नहीं थी। विवश हरिश्चंद्र ने परशु उठाया और अपनी पत्नी का शीश धड़ से अलग करने के लिए आगे बढे। 

इससे पहले की हरिश्चंद्र का परशु तारामती की गर्दन तक पहुँच पाता उसी क्षण विश्वामित्र ने वहां आकर उसे ऐसा करने से रोक दिया। विश्वामित्र ने पूछा - अपनी पत्नी की हत्या करने से तुम्हे क्या मिलेगा? 

तब हरिश्चंद्र ने उत्तर दिया - 'तृप्ति' जो मुझे मेरे कर्त्तव्य को पूरा करने से मिलेगी। विश्वामित्र बोले - ऐसी तृप्ति का क्या लाभ? उन वचनों का क्या ही मोल? तथा ऐसे सत्य मार्ग का क्या करोगे? जो तुम्हारे पुत्र और पत्नी के प्राणों की रक्षा न कर सके। जब अपनी पत्नी और पुत्र को खो चुके होंगे तो इस सत्य की डुगडुगी को किसे बजाकर दिखाओगे। 

विश्वामित्र के इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए हरिश्चंद्र कहते हैं - मनुष्य का जीवन क्षण भंगुर होता है। जो एक पतंगे की भांति अग्नि के पास जाकर जल जाता है। यह देह उसी परमात्मा की दी हुई है। जो हमारी है ही नहीं फिर इससे मोह कैसा? हमारा जन्म तो सत्कर्मों के लिए ही होता है। तभी परम तत्त्व की प्राप्ति संभव है। इसलिए अपने सत्य कर्म के पालन के लिए मैं अपनी पत्नी का भी शीश धड़ से अलग कर सकता हूँ। 

महर्षि ने कहा - तुम बड़े निष्ठुर हो हरिश्चंद्र अपना ये हठ छोड़ दो। मैं तुम्हे वचन देता हूँ की यदि अब भी तुम मेरी मातंगी कन्याओं से विवाह कर लो तो मैं तुम्हारे सभी कष्ट समाप्त कर दूंगा। यहाँ तक की मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों को भी वापस ला सकता हूँ। किन्तु हरिश्चंद्र ने विश्वामित्र के सभी प्रलोभन ठुकराकर अपनी पत्नी को मारने के लिए परशु चलाया। जैसे ही परशु गर्दन को छूता है तो वह फूलों का हार बनकर तारामती के गले में पड़ जाता है। 

उसी समय वहां भगवन शिव और माता पार्वती तथा ब्रह्मर्षि वशिष्ठ प्रकट होते हैं तथा वीरबाहु यमराज का रूप लेते हैं। विश्वामित्र बोले - हे हरिश्चंद्र! इस प्रकार आश्चर्य नहीं करो! मेरा तुम्हारे दरबार में आकर तुमसे धन माँगने से लेकर अभी तक जो भी तुम्हारे साथ घटित हुआ वह सब देवताओं के कहने पर तुम्हारी परीक्षा मात्र थी। यह सब केवल यह जांचने का प्रयास था की तुम अपने सत्य के पालन के लिए क्या तक कर सकते हो? हे महामानव राजा हरिश्चंद्र! तुमने तो आज देवताओं से भी ऊँचा स्थान प्राप्त कर लिया है। तुम्हारे सामने उपस्थित महादेव मेरे ही आग्रह पर काल कौशिक ब्राह्मण बने जिन्हे तुमने अपनी तारामती बेचीं थी तथा इनकी पत्नी जिसने इस पर घोर अत्याचार का नाटक किया वह स्वयं माता पार्वती थी। वीरबाहु जो तुम्हारे यजमान थे वह स्वयं यमराज हैं। तुम हम सब द्वारा ली गई परीक्षा में सफल हुए। इसलिए आज से तुम केवल राजा हरिश्चंद्र ही नहीं अपितु सूर्यवंशी इक्ष्वाकु वंश के परमप्रतापी सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र कहलाओगे। सारा संसार तुम्हे सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के नाम से पुकारेगा। 

इसके बाद महर्षि ने हरिश्चंद्र के पुत्र को पुनर्जीवित कर दिया। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने विश्वामित्र से कहा - मैं तो पहले ही कह रहा था महर्षि, हरिश्चंद्र का सत्य संकल्प अटूट है उसे संसार का कोई भी प्रलोभन अथवा कष्ट डिगा नहीं सकता। तब ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से विश्वामित्र बोले - आप यह न समझे की मैं आप से हार गया। मुझे हरिश्चंद्र पर कभी संदेह नहीं था। यह चुनौती मैंने इंद्र को यह प्रमाणित करने के लिए दी थी की जन्म के अधिकार से बड़ा कर्म का अधिकार होता है और जो प्राणी अपने कर्म को नहीं छोड़ता वह देवताओं से भी ज्यादा वंदनीय है। और आज मैंने इसे प्रमाणित कर दिया। इस प्रकार राजा से सत्यवादी राजा बने हरिश्चंद्र को पुनः अपना राज्य प्राप्त हो गया। 

सूतजी बोले - हे ऋषिगणों! राजा हरिश्चंद्र को सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र बनाने के बाद विश्वामित्र जी ने ब्रह्मर्षि पद प्राप्त करने के लिए पुनः कठोर तप करने का निश्चय किया। जब वह तप के लिए जा रहे थे तो देवताओं के आग्रह पर नारदजी देवताओं सहित विश्वामित्र के पास पधारे। देवराज इंद्र ने कहा - हे महान तपस्वी विश्वामित्र हमने आज तक आपके साथ जो किया उसके लिए क्षमा करें। तब नारदजी विश्वामित्र से बोले - हे राजर्षि! विश्वामित्र आपके ब्रह्मर्षि बनने में अब अधिक समय शेष नहीं रह गया है। अब तो देवता भी आपसे क्षमा मांग रहे हैं इन्हे क्षमादान देकर अपने ब्रह्मर्षि बनने के मार्ग को सुलभ बनाओ। नारदजी के कहने पर विश्वामित्र ने देवराज को क्षमा कर दिया। 

'इसके बाद देवगुरु बृहस्पति ने विश्वामित्र से आग्रह किया की वे अपने द्वारा बनाए स्वर्ग से सृष्टि में उत्पन्न हुए असंतुलन को संतुलित करने की कृपा करें। तब विश्वामित्र ने उसी स्थान पर अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग की सृष्टि कर दी और नये तारे तथा दक्षिण दिशा में सप्तर्षि मण्डल बना दिया। विश्वामित्र जी बोले कि मैंने त्रिशंकु को स्वर्ग भेजने का वचन दिया है इसलिये मेरे द्वारा बनाया गया यह स्वर्ग मण्डल हमेशा रहेगा और त्रिशंकु सदा इस नक्षत्र मण्डल में अमर होकर राज्य करेगा। इससे सृष्टि का संतुलन पुनः लौट आया। इससे सन्तुष्ट होकर इन्द्रादि देवता अपने अपने स्थानों को वापस चले गये।' 

'देवताओं के चले जाने के बाद विश्वामित्र भी ब्राह्मण का पद प्राप्त करने के लिये पूर्व दिशा में जाकर कठोर तपस्या करने लगे‌।‌ इस तपस्या को भ़ंग करने के लिए नाना प्रकार के विघ्न उपस्थित हुए किन्तु उन्होंने बिना क्रोध किये ही उन सबका निवारण किया। इस बार उन्होंने प्राणायाम से श्वास रोक कर महादारुण तप किया।' 

इस तप से प्रभावित देवताओं ने ब्रह्माजी से निवेदन किया - भगवन्! विश्वामित्र की तपस्या अब पराकाष्ठा को पहुँच गई है। अब वे क्रोध और मोह की सीमाओं को पार कर गये हैं। अब इनके तेज से सारा संसार प्रकाशित हो उठा है। सूर्य और चन्द्रमा का तेज भी इनके तेज के सामने फीका पड़ गया है। अतएव आप प्रसन्न होकर इनकी अभिलाषा पूर्ण कीजिये। 

देवताओं के इन वचनों को सुनकर ब्रह्मा जी ने उन्हें ब्राह्मण की उपाधि प्रदान की किन्तु विश्वामित्र ने कहा - हे भगवन्! जब आपने मुझे यह वरदान दिया है तो मुझे ओंकार, षट्कार तथा चारों वेद भी प्रदान कीजिये। प्रभो! अपनी तपस्या को मैं तभी सफल समझूँगा जब वशिष्ठ जी मुझे ब्राह्मण और ब्रह्मर्षि मान लेंगे।

विश्वामित्र की बात सुन कर सब देवताओं ने वशिष्ठ जी का पास जाकर उन्हें सारा वृत्तान्त सुनाया। लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया, कहा कि अभी उनमें अहंकार शेष है, वशिष्ठ जी की यह बात सुनकर विश्वामित्र जी आग बबूला हो गये और कृद्ध होकर अस्त्र-शस्त्र लेकर उन्हें मार डालने के लिए उनके निवास पर पहुंचे जहाँ श्री वशिष्ठ जी अपनी पत्नी अरुंधति के साथ रात्रि कालीन समय में पूर्णिमा के चन्द्रमा के आलोकित हो रहे प्रकाश में विराजित थे, और तब विश्वामित्र जी ने वशिष्ठ जी को कहते हुए सुना कि देखो गगन में चन्द्रमा कितना सुंदर आलोकित और तेजस्विता लिये हुए है यह तो विश्वामित्र की तपस्या जैसा प्रदीप्त हो रहा है, यह सुनते ही विश्वामित्र के हाथ से खड़ग गिर गई, सारा क्रोध और अहंकार चूर चूर हो गया वे वशिष्ठ जी के चरणों में गिर पड़े, नेत्रों से अश्रु धारा बहने लगी, गुरु वशिष्ठ ने उन्हें अपने हाथों से स्पर्श करते हुए बोला - उठो ब्रह्मऋषि आपकी तपस्या पूर्ण हुई, अहंकार विलीन हो गया और उन्हें अपने हृदय से लगा कर बोले कि विश्वामित्र जी! आप वास्तव में ब्रह्मर्षि हैं। मैं आज से आपको ब्राह्मण स्वीकार करता हूँ। 

'इस प्रकार अंततः विश्वामित्र एक साधारण राजा विश्वरथ से ब्रह्मर्षि बने। हे ऋषियों! इस पवित्र मगलमयी कथा से प्राणी को यह शिक्षा मिलती है कि किसी अभीष्ट फल कि प्राप्ति केवल कठोर तप से ही नहीं वरन उसके साथ-साथ प्राणी को अपने अंदर सभी विकारों (अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, प्रतिशोध, असत्य, मोह आदि) के नाश करने से ही संभव है।'

इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२  का भाग-३१(31) समाप्त !

No comments:

Post a Comment

रामायण: एक परिचय

रामायण संस्कृत के रामायणम् का हिंदी रूपांतरण है जिसका शाब्दिक अर्थ है राम की जीवन यात्रा। रामायण और महाभारत दोनों सनातन संस्कृति के सबसे प्र...