भाग-३१(31) रावण आदि की तपस्या और वर प्राप्ति

 


इतनी कथा सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने अगस्त्य मुनिसे पूछा- ब्रह्मन् ! उन तीनों महाबली भाइयों ने वन में किस प्रकार और कैसी तपस्या की?

तब अगस्त्यजी ने अत्यन्त प्रसन्नचित्त वाले श्रीराम से कहा - रघुनन्दन ! उन तीनों भाइयों ने वहाँ पृथक्-पृथक् धर्मविधियों का अनुष्ठान किया। कुम्भकर्ण अपनी इन्द्रियों को संयम में रखकर प्रतिदिन धर्म के मार्ग में स्थित हो गर्मी के दिनों में अपने चारों ओर आग जला धूप में बैठकर पञ्चाग्निका सेवन करने लगा। फिर वर्षा ऋतु में खुले मैदान में वीरासन से बैठकर मेघों के बरसाये हुए जल से भीगता रहा और जाड़े के दिनों में प्रतिदिन जल के भीतर रहने लगा। इस प्रकार सन्मार्ग में स्थित हो धर्म के लिये प्रयत्नशील हुए उस कुम्भकर्ण के दस हजार वर्ष बीत गये। 

'विभीषण तो सदा से ही धर्मात्मा थे। वे नित्यधर्म-परायण रहकर शुद्ध आचार-विचार का पालन करते हुए पाँच हजार वर्षों तक एक पैर से खड़े रहे। उनका नियम समाप्त होने पर अप्सराएँ नृत्य करने लगीं। उनके ऊपर आकाश से फूलों की वर्षा हुई और देवताओं ने उनकी स्तुति की। तदनन्तर विभीषण ने अपनी दोनों बाँहें और मस्तक ऊपर उठाकर स्वाध्याय परायण हो पाँच हजार वर्षों तक सूर्यदेव की आराधना की। इस प्रकार मन को वश में रखने वाले विभीषण के भी दस हजार वर्ष बड़े सुख से बीते, मानो वे स्वर्ग के नन्दन वन में निवास करते हों।' 

‘दशमुख रावण ने दस हजार वर्षों तक लगातार उपवास किया। प्रत्येक सहस्र वर्ष के पूर्ण होने पर वह अपना एक मस्तक काटकर आग में होम देता था। इस तरह एक-एक करके उसके नौ हजार वर्ष बीत गये और नौ मस्तक भी अग्निदेव को भेंट हो गये। जब दसवाँ सहस्र पूरा हुआ और रावण अपना दसवाँ मस्तक काटने को उद्यत हुआ, इसी समय पितामह ब्रह्माजी वहाँ आ पहुँचे।' 

पितामह ब्रह्मा अत्यन्त प्रसन्न होकर देवताओं के साथ वहाँ पहुँचे थे। उन्होंने आते ही कहा – दशग्रीव! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। धर्मज्ञ! तुम्हारे मन में जिस वर को पाने की इच्छा हो, उसे शीघ्र माँगो। बोलो, आज मैं तुम्हारी किस अभिलाषा को पूर्ण करूँ? तुम्हारा परिश्रम व्यर्थ नहीं होना चाहिये।' 

यह सुनकर रावण की अन्तरात्मा प्रसन्न हो गयी। उसने मस्तक झुकाकर भगवान् ब्रह्मा को प्रणाम किया और हर्ष - गद्गदवाणी में कहा – भगवन्! प्राणियों के लिये मृत्यु के सिवा और किसी का सदा भय नहीं रहता है; अतएव मैं अमर होना चाहता हूँ; क्योंकि मृत्यु के समान दूसरा कोई शत्रु नहीं है। 

उसके ऐसा कहने पर ब्रह्माजी ने दशग्रीव से कहा - तुम्हें सर्वथा अमरत्व नहीं मिल सकता; जो भी प्राणी मृत्यु लोक में जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है: इसलिये दूसरा कोई वर माँगो। 

श्रीराम! लोकस्रष्टा ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर दशग्रीव ने उनके सामने हाथ जोड़कर कहा - सनातन प्रजापते! मैं गरुड़, नाग, यक्ष, दैत्य, दानव, राक्षस तथा देवताओं के लिये अवध्य हो जाऊँ। इनके हाथों मेरी मृत्यु असंभव हो। देववन्द्य पितामह! अन्य प्राणियों से मुझे तनिक भी चिन्ता नहीं है। मनुष्य आदि अन्य जीवों को तो मैं तिनके समान समझता हूँ। अतः यदि मेरी मृत्यु यदि संभव हो तो ऐसे मनुष्य के हाथों से ही हो जिसका स्थान देवताओं से भी उच्च का हो। जो सर्वथा निष्पाप हो। जिसके स्वपन में भी पाप का लेशमात्र जागृत न हो। इसके अतिरिक्त अन्य कोई भी मनुष्य से मुझे भय न हो। ऐसा वरदान दे। 

राक्षस रावण के ऐसा कहने पर देवताओं सहित भगवान् ब्रह्माजी ने कहा – राक्षसप्रवर! तुम्हारा यह वचन सत्य होगा। हम तुम्हे वरदान देते हैं कि तुम्हारी मृत्यु केवल ब्रह्मास्त्र से ही होगी है अन्य किसी अस्त्र से नहीं। 

श्रीराम ! दशग्रीव से ऐसा कहकर पितामह फिर बोले – निष्पाप राक्षस! सुनो - मैं प्रसन्न होकर पुन: तुम्हें यह शुभ वर प्रदान करता हूँ - तुमने पहले अग्नि में अपने जिन-जिन मस्तकों का हवन किया है, वे सब तुम्हारे लिये फिर पूर्ववत् प्रकट हो जायँगे। तप के प्रभाव से तुम्हारी नाभि में अमृत कुंड का निर्माण हो गया है। जिसको समाप्त या सुखाए बिना तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी। वरदान में जिस प्रकार के मनुष्य के हाथों तुमने अपनी मृत्यु चाही है उसके सिवाय अन्य कोई तुम्हारे इस अमृत कुंड को नष्ट करने में असमर्थ होगा।   

'सौम्य ! इसके सिवा एक और भी दुर्लभ वर मैं तुम्हें यहाँ दे रहा हूँ - तुम अपने मन से जब जैसा रूप धारण करना चाहोगे, तुम्हारी इच्छा के अनुसार उस समय तुम्हारा वैसा ही रूप हो जायेगा।' 

पितामह ब्रह्मा के इतना कहते ही राक्षस दशानन के वे मस्तक, जो पहले आग में होम दिये गये थे, फिर नये रूप में प्रकट हो गये। श्रीराम ! दशग्रीव से पूर्वोक्त बात कहकर लोक-पितामह ब्रह्माजी विभीषण से बोले – वत्स! विभीषण! तुम्हारी बुद्धि सदा धर्म में लगी रहनेवाली है, अतः मैं तुमसे बहुत संतुष्ट हूँ। उत्तम व्रत का पालन करने वाले धर्मात्मन्! तुम भी अपनी रुचि के अनुसार कोई वर माँगो। 

तब किरणमाला मण्डित चन्द्रमा की भाँति सदा समस्त गुणों से सम्पन्न धर्मात्मा विभीषण ने हाथ जोड़कर कहा - भगवन्! यदि साक्षात् लोकगुरु आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मैं कृतार्थ हूँ। मुझे कुछ भी पाना शेष नहीं रहा। उत्तम व्रत को धारण करनेवाले पितामह! यदि आप प्रसन्न होकर मुझे वर देना ही चाहते हैं तो सुनिये। भगवन्! बड़ी-से-बड़ी आपत्ति में पड़ने पर भी मेरी बुद्धि धर्म में ही लगी रहे - उससे विचलित न हो और बिना सीखे ही मुझे ब्रह्मास्त्र का ज्ञान हो जाये। जिस-जिस आश्रम के विषय में मेरा जो-जो विचार हो, वह धर्म के अनुकूल ही हो और उस उस धर्म का मैं पालन करूँ; यही मेरे लिये सबसे उत्तम और अभीष्ट वरदान है। क्योंकि जो धर्म में अनुरक्त हैं, उनके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं है।  

यह सुनकर प्रजापति ब्रह्मा पुन: प्रसन्न हो विभीषण से बोले – वत्स! तुम धर्म में स्थित रहनेवाले हो; अतः जो कुछ चाहते हो, वह सब पूर्ण होगा। शत्रुनाशन! राक्षसयोनि में उत्पन्न होकर भी तुम्हारी बुद्धि अधर्म में नहीं लगती है; इसलिये मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि तुम्हे एक समय प्रभु के दर्शन होंगे तथा उनकी सेवा का सौभाग्य भी प्राप्त होगा। 

विभीषण से ऐसा कहकर जब ब्रह्माजी कुम्भकर्ण को वर देने के लिये उद्यत हुए, तब सब देवता उनसे हाथ जोड़कर बोले – प्रभो! आप कुम्भकर्ण को वरदान न दीजिये; क्योंकि आप जानते हैं कि यह दुर्बुद्धि निशाचर किस तरह समस्त लोकों को त्रास देता है। ब्रह्मन्! इसने नन्दन वन की सात अप्सराओं, देवराज इन्द्र के दस अनुचरों तथा बहुत से ऋषियों और मनुष्यों को भी खा लिया है। पहले वर न पाने पर भी इस राक्षस ने जब इस प्रकार प्राणियों के भक्षण का क्रूरतापूर्ण कर्म कर डाला है, तब यदि इसे वर प्राप्त हो जाये, उस दशा में तो यह तीनों लोकों को खा जायेगा। अमित तेजस्वी देव! आप वर के बहाने इसको मोह प्रदान कीजिये। इससे समस्त लोकों का कल्याण होगा और इसका भी सम्मान हो जायेगा। 

देवताओं के ऐसा कहने पर कमल योनि ब्रह्माजी ने सरस्वती का स्मरण किया। उनके चिन्तन करते ही देवी सरस्वती पास आ गयीं। उनके पार्श्वभाग में खड़ी हो सरस्वती ने हाथ जोड़कर कहा - देव ! यह मैं आ गयी। मेरे लिये क्या आज्ञा है? मैं कौन - सा कार्य करूँ ? 

तब प्रजापति ने वहाँ आयी हुई सरस्वती देवी से कहा – वाणि! तुम राक्षसराज कुम्भकर्ण की जिह्वा पर विराजमान हो देवताओं के अनुकूल वाणी के रूप में प्रकट होओ। 

तब 'बहुत अच्छा' कहकर सरस्वती कुम्भकर्ण के मुख में समा गयीं। इसके बाद प्रजापति ने उस राक्षस से कहा - महाबाहु कुम्भकर्ण! तुम भी अपने मन के अनुकूल कोई वर माँगो। 

उनकी बात सुनकर कुम्भकर्ण बोला- 'देव! मैं अनेकानेक वर्षों तक सोता रहूँ। मुझे निद्रासन प्रदान कीजिये। यही मेरी इच्छा है।  

तब ब्रह्माजी के 'एवमस्तु (ऐसा ही हो)' कहते ही सरस्वती देवी ने भी उस राक्षस को छोड़ दिया। जब सरस्वती जी उसके ऊपर से उतर गयीं, तब दुष्टात्मा कुम्भकर्ण को चेत हुआ और वह दु:खी होकर इस प्रकार चिन्ता करके ब्रह्माजी से बोला - नहीं ! ये मैं क्या मांग बैठा प्रभु मुझे निद्रासन नहीं इन्द्रासन कि कामना है मुझे वही प्रदान कीजिये। 

ब्रह्माजी ने कहा - वत्स ! एक बार दिया वर कभी लौटाया नहीं जा सकता। हाँ तुम्हारी प्रार्थना पर हम तुम्हे प्रत्येक छः मास में एक दिन के लिए जागने का वर अवश्य देते हैं। 

इतना कहते ही ब्रह्माजी देवताओं सहित आकाश मार्ग से पुनः अपने धाम लौट जाते हैं।  

ब्रह्माजी के साथ देवताओं के आकाश में चले जाने पर कुम्भकरण अत्यंत चिंतित होकर बोला - अहो! आज मेरे मुँह से ऐसी बात क्यों निकल गयी। मैं समझता हूँ, ब्रह्माजी के साथ आये हुए देवताओं ने ही उस समय मुझे मोह में डाल दिया था। 

'इस प्रकार वे तीनों तेजस्वी भ्राता वर पाकर श्लेष्मातक वन (लसोड़े के जंगल ) - में गये और वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे।' 

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-३१(31) समाप्त !

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