अगस्त्यजी कहते हैं - श्रीराम! कुछ काल के पश्चात् नीले मेघ के समान श्याम वर्ण वाला राक्षस सुमाली तपाये हुए सोने के कुण्डलों से अलंकृत हो अपनी सुन्दरी कन्या को, जो बिना कमल की लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी, साथ ले रसातल से निकला और सारे मृत्युलोक में विचरने लगा। उस समय भूतल पर विचरते हुए उस राक्षसराज ने अग्नि के समान तेजस्वी तथा देवतुल्य शोभा धारण करनेवाले धनेश्वर कुबेर को देखा, जो पुष्पकविमान द्वारा अपने पिता पुलस्त्यनन्दन विश्रवा का दर्शन करने के लिये जा रहे थे। उन्हें देखकर वह अत्यन्त विस्मित हो मृत्यु लोक से रसातल में प्रविष्ट हुआ। सुमाली बड़ा बुद्धिमान् था। वह सोचने लगा, क्या करने से हम राक्षसों का भला होगा? कैसे हम लोग उन्नति कर सकेंगे?'
ऐसा विचार करके उस राक्षस ने अपनी पुत्री से, जिसका नाम कैकसी था, कहा - 'पुत्री ! अब तुम्हारे विवाह के योग्य समय आ गया है; क्योंकि इस समय तुम्हारी युवावस्था बीत रही है। तुम कहीं इनकार न कर दो, इसी भय से श्रेष्ठ वर तुम्हारा वरण नहीं कर रहे हैं। पुत्री! तुम्हें विशिष्ट वर की प्राप्ति हो, इसके लिये हम लोगों ने बहुत प्रयास किया है; क्योंकि कन्यादान के विषय में हम धर्म बुद्धि रखने वाले हैं। तुम तो साक्षात् लक्ष्मी के समान सर्वगुण सम्पन्न हो अत: तुम्हारा वर भी सर्वथा तुम्हारे योग्य ही होना चाहिये।
‘पुत्री! सम्मान की इच्छा रखने वाले सभी लोगों के लिये कन्या का पिता होना दुःख का ही कारण होता है; क्योंकि यह पता नहीं चलता कि कौन और कैसा पुरुष कन्या का वरण करेगा? माता, पिता के और जहाँ कन्या दी जाती है, उस पति के कुल को भी कन्या सदा संशय में डाले रहती है। अत: पुत्री! तुम प्रजापति के कुल में उत्पन्न, श्रेष्ठ गुणसम्पन्न, पुलस्त्यनन्दन मुनिवर विश्रवा का स्वयं चलकर पति के रूप में वरण करो और उनकी सेवा में रहो।
'पुत्री! ऐसा करने से नि:संदेह तुम्हारे पुत्र भी ऐसे ही होंगे, जैसे ये धनेश्वर कुबेर हैं। तुमने तो देखा ही था; वे कैसे अपने तेज से सूर्य के समान उद्दीप्त हो रहे थे? यदि तुम ऐसा कर पाई तो हमारा खोया हुआ वैभव हमे पुनः प्राप्त हो जाएगा। हम सभी असुरों में एक नयी ऊर्जा का संचार होगा। तपोबल से पूर्ण विश्रवा के तेज से युक्त बालक कुबेर की ही भांति तेजोमय होगा। तुम एक असुर कन्या हो तथा निशाचरी माया में अत्यंत निपुण हो ऐसा मेरा विश्वास है।'
'पिता की यह बात सुनकर उनके गौरव का विचार करके कैकसी उस स्थानपर गयी, जहाँ मुनिवर विश्रवा तप करते थे। वहाँ जाकर वह एक जगह खड़ी हो गयी।'
'श्रीराम! इसी बीच में पुलस्त्यनन्दन ब्राह्मण विश्रवा सायंकाल का अग्निहोत्र करने लगे। वे तेजस्वी मुनि उस समय तीन अग्नियों के साथ स्वयं भी चतुर्थ अग्नि के समान देदीप्यमान हो रहे थे। पिता के प्रति गौरव बुद्धि होने के कारण कैकसी ने उस भयंकर बेला का विचार नहीं किया और निकट जा उनके चरणों पर दृष्टि लगाये नीचा मुँह किये वह सामने खड़ी हो गयी।'
वह भामिनी अपने पैर के अँगूठे से बारम्बार धरती पर रेखा खींचने लगी। पूर्ण चन्द्रमा के समान मुख तथा सुन्दर कटि-प्रदेशवाली उस सुन्दरी को जो अपने तेज से उद्दीप्त हो रही थी, देखकर उन परम उदार महर्षि ने पूछा - भद्रे ! तुम किसकी कन्या हो, कहाँ से यहाँ आयी हो, मुझसे तुम्हारा क्या काम है अथवा किस उद्देश्य से यहाँ तुम्हारा आना हुआ है? शोभने ! ये सब बातें मुझे ठीक-ठीक बताओ।
विश्रवा के इस प्रकार पूछने पर उस कन्या ने हाथ जोड़कर कहा – मुने! आप अपने ही प्रभाव से मेरे मनोभाव को समझ सकते हैं; किंतु ब्रह्मर्षे! मेरे मुख से इतना अवश्य जान लें कि मैं अपने पिता की आज्ञा से आपकी सेवा में आयी हूँ और मेरा नाम कैकसी है। बाकी सब बातें आपको स्वत: जान लेनी चाहिये मुझसे न कहलावें।
यह सुनकर मुनि ने थोड़ी देर तक ध्यान लगाया और उसके बाद कहा - भद्रे ! तुम्हारे मन का भाव मालूम हुआ। मतवाले गजराज की भाँति मन्दगति से चलने वाली सुन्दरी! तुम मुझसे पुत्र प्राप्त करना चाहती हो; परंतु इस दारुण बेला में मेरे पास आयी हो, इसलिये यह भी सुन लो कि तुम कैसे पुत्रों को जन्म दोगी। सुश्रोणि ! तुम्हारे पुत्र क्रूर स्वभाव वाले और शरीर से भी भयंकर होंगे तथा उनका क्रूरकर्मा राक्षसों के साथ ही प्रेम होगा। तुम क्रूरतापूर्ण कर्म करने वाले राक्षसों को ही पैदा करोगी।
मुनि का यह वचन सुनकर कैकसी उनके चरणों पर गिर पड़ी और इस प्रकार बोली - 'भगवन्! आप ब्रह्मवादी महात्मा हैं। मैं आपसे ऐसे दुराचारी पुत्रों को पाने की अभिलाषा नहीं रखती; अत: आप मुझ पर कृपा कीजिये।
उस राक्षस कन्या के इस प्रकार कहने पर पूर्णचन्द्रमा के समान मुनिवर विश्रवा रोहिणी - जैसे सुन्दरी कैकसी से फिर बोले – शुभानने! तुम्हारा जो सबसे छोटा एवं अन्तिम पुत्र होगा, वह मेरे वंश के अनुरूप धर्मात्मा होगा; इसमें संशय नहीं है।
'श्रीराम ! मुनि के ऐसा कहने पर कैकसी ने कुछ काल के अनन्तर अत्यन्त भयानक और क्रूर स्वभाव वाले एक राक्षस को जन्म दिया, जिसके दस मस्तक, बड़ी-बड़ी दाढ़ें, ताँबे-जैसे ओठ, बीस भुजाएँ, विशाल मुख और चमकीले केश थे। उसके शरीर का रंग कोयले के पहाड़ जैसा काला था।
उसके पैदा होते ही मुँह में अङ्गारों के कौर लिये गीदड़ियाँ और मांसभक्षी गृध्र आदि पक्षी दायीं ओर मण्डलाकार घूमने लगे। इन्द्र देव रुधिर की वर्षा करने लगे, मेघ भयंकर स्वर में गर्जने लगे, सूर्य की प्रभा फीकी पड़ गयी, पृथ्वी पर उल्कापात होने लगा, धरती काँप उठी, भयानक आँधी चलने लगी तथा जो किसी के द्वारा क्षुब्ध नहीं किया जा सकता, वह सरिताओं का स्वामी समुद्र विक्षुब्ध हो उठा।'
उस समय ब्रह्माजी के समान तेजस्वी पिता विश्रवा मुनि ने पुत्र का नामकरण किया - यह दस ग्रीवाएँ लेकर उत्पन्न हुआ है, इसलिये 'दशग्रीव' (दशानन) नाम से प्रसिद्ध होगा।
'उसके बाद महाबली कुम्भकर्ण का जन्म हुआ, जिसके शरीर से बड़ा शरीर इस जगत में दूसरे किसी का नहीं है। इसके बाद विकराल मुखवाली शूर्पणखा उत्पन्न हुई। तदनन्तर धर्मात्मा विभीषण का जन्म हुआ, जो कैकसी के अन्तिम पुत्र थे। उस महान् सत्त्वशाली पुत्र का जन्म होने पर आकाश से फूलों की वर्षा हुई और आकाश में देवों की दुन्दुभियाँ बज उठीं। उस समय अन्तरिक्ष में 'साधु-साधु' की ध्वनि सुनायी देने लगी। कुम्भकर्ण और दशानन वे दोनों महाबली राक्षस लोक में उद्वेग पैदा करनेवाले थे। वे दोनों ही उस विशाल वन में पालित होने और बढ़ने लगे। कुम्भकर्ण बड़ा ही उन्मत्त निकला। वह भोजन से कभी तृप्त ही नहीं होता था; अत: तीनों लोकों में घूम-घूमकर धर्मात्मा महर्षियों को खाता फिरता था।'
'विभीषण बचपन से ही धर्मात्मा थे। वे सदा धर्म में स्थित रहते, स्वाध्याय करते और नियमित आहार करते हुए इन्द्रियों को अपने काबू में रखते थे।
कुछ काल बीतने पर धनके स्वामी वैश्रवण (कुबेर) पुष्पकविमान पर आरूढ़ हो अपने पिता का दर्शन करनेके लिये वहाँ आये। वे अपने तेज से प्रकाशित हो रहे थे।'
उन्हें देखकर राक्षस कन्या कैकसी अपने पुत्र दशानन के पास आयी और इस प्रकार बोली - पुत्र! अपने भाई वैश्रवण की ओर तो देखो। वे कैसे तेजस्वी जान पड़ते हैं? भाई होने के नाते तुम भी इन्हीं के समान हो। परंतु अपनी अवस्था देखो, कैसी है? अमित पराक्रमी दशग्रीव ! मेरे पुत्र ! तुम भी ऐसा कोई यत्न करो, जिससे कुबेर की ही भाँति तेज और वैभव से सम्पन्न हो जाओ। अपितु मैं तो यह कहूँगी की इससे भी बढ़कर हो जाओ।
'परन्तु इस बात का स्मरण रखना पुत्र ! यह हमारे शत्रु देवताओं का मित्र है। जो लंका कभी हम राक्षसों की होती थी आज यह उसका स्वामी बनकर राज करता है। तुम्हे उसी राज्य को पुनः इससे प्राप्त करना है।'
माता की यह बात सुनकर प्रतापी दशग्रीव को अनुपम हर्ष हुआ। उसने तत्काल प्रतिज्ञा की - माँ! तुम अपने हृदय की चिन्ता छोड़ो। मैं तुमसे सच्ची प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि मैं तुम्हारा पुत्र दशानन अपने पराक्रम से भाई वैश्रवण के समान या उनसे भी बढ़कर हो जाऊँगा। जिस अपमान और तिरस्कार के कारण हमारे नानाश्री पूज्यवर माल्यवान और सुमाली रसातल में छिपकर बैठे हैं उन्हें उनका सम्मान अवश्य दिलवाऊंगा।
तदनन्तर उसी क्रोध के आवेश में भाइयों सहित दशग्रीव (रावण) ने दुष्कर कर्म की इच्छा मन में लेकर सोचा - मैं तपस्या से ही अपना मनोरथ पूर्ण कर सकूँगा, ऐसा विचारकर उसने मन में तपस्या का ही निश्चय किया और अपनी अभीष्ट सिद्धि के लिये वह गोकर्ण के पवित्र आश्रम पर गया। भाइयों सहित उस भयंकर पराक्रमी राक्षस ने अनुपम तपस्या आरम्भ की। उस तपस्या द्वारा उसने भगवान् ब्रह्माजी को संतुष्ट किया और उन्होंने प्रसन्न होकर उसे विजय दिलाने वाले वरदान दिये।
इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-३०(30) समाप्त !
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