सूतजी कहते हैं - हे ऋषियों! जब हरिश्चंद्र अपना सम्पूर्ण राज्य त्याग कर जा रहे थे तब विश्वामित्र ने उनके साथ अपना एक शिष्य जिसका नाम नक्षत्रक था को भेजा। नक्षत्रक को महर्षि ने आज्ञा दी की जब हरिश्चंद्र अपना ऋण चुकाए तब उसे लेकर आ जाना। तब तक तुम इन्ही के साथ रहोगे। इस प्रकार हरिश्चंद्र अपनी पत्नी तारामती, पुत्र रोहित तथा विश्वामित्र के शिष्य नक्षत्रक को साथ लेकर चल पड़े।
'वे चारों वन-वन भटक रहे थे। बहुत दूर चलने के उपरांत नक्षत्रक ने अपनी प्यास बुझाने हेतु जल माँगा। उसके लिए जल की व्यवस्था करने हेतु हरिश्चंद्र, पत्नी और पुत्र को नक्षत्रक के पास छोड़ कर चले गए। तदुपरांत रोहित भूख से तड़प रहा था। अपने पुत्र को भूखा देख तारामती ने महादेव का स्मरण किया तभी रोहित की दृष्टि आम के वृक्ष पर पड़ती है। आम देखकर नक्षत्रक और रोहित अपनी भूख शांत करते हैं किन्तु तारामती अपने पति को भूखा जान उनके आने तक फल नहीं ग्रहण करने का निर्णय करती है।'
'बहुत ढूंढने पर हरिश्चंद्र को एक सरोवर दिखाई पड़ता है। वह जैसे ही जल लेने उसके समीप जाते हैं तभी ध्यान अवस्था में सब कुछ देख रहे महर्षि विश्वामित्र उस सरोवर के जल को अपनी तप शक्ति से सूखा देते हैं। यह देखकर हरिश्चंद्र को आश्चर्य होता है किन्तु वह कर भी क्या सकते थे? विश्वामित्र ने उनकी परीक्षा लेने हेतु एक माया मुनि को प्रकट किया तथा उसे आदेश दिया की वो हरिश्चंद्र के पास जाए और उसे बरगद के वृक्ष के समीप जाने को कहे। महर्षि की आज्ञा पाकर माया मुनि हरिश्चंद्र से भेंट करते हैं। मुनि को प्रणाम कर हरिश्चंद्र उनसे जल मिलने का स्थान पूछते हैं। तब वे उन्हें बरगद के वृक्ष की दिशा बतलाते हैं और कहते हैं की वही जाकर वे रात्रि विश्राम भी करे।'
बिना जल के लौटे हरिश्चंद्र ने नक्षत्रक से क्षमा मांगी। नक्षत्रक ने कहा हमारा पेट तो ताजे आम खाकर भर गया। अब कुछ समय के लिए तृप्ति हो गई। तब हरिश्चंद्र सभी को अपने साथ लेकर बरगद के वृक्ष के पास जाते हैं। उस स्थान पर पहुंचकर नक्षत्रक ने कहा - मुझे यहाँ का वातावरण भयानक जान पड़ता हैं। लगता हैं यहाँ भूत-पिशाचों का डेरा हैं। तब हरिश्चंद्र ने कहा - आप चिंतित न हो आप सभी विश्राम कीजिये। मैं पहरा देता हूँ। अब बारी थी एक ओर परीक्षा की विश्वामित्र ने इस बार एक भयानक राक्षस प्रकट किया और उसे बरगद के पास जाने का आदेश देकर कहा की जाओ हरिश्चंद्र ओर उसके परिवार को भयभीत करो। अपने सामने राक्षस देख राजा हरिश्चंद्र उससे घोर युद्ध करते हैं। युद्ध में मायावी राक्षस का अंत होता हैं।
प्रातः काल वे फिर चल पड़ते हैं। चलते-चलते वे सभी कशी नगरी में पहुँच जाते हैं। वहां वे भगवन शिव के मंदिर में दर्शन करते हैं। मंदिर से बाहर आते ही नक्षत्रक उन्हें स्मरण करवाता है की वह ऋण लेने के लिए उनके साथ आया हैं। अतः अब उसे ऋण लौटा दिया जाए हरिश्चंद्र अपनी विवशता बताते हैं - मैं अभी आपका ऋण कहाँ से चुकाऊं? आप थोड़ा धैर्य रखें।
नक्षत्रक उन्हें ताना मरता हैं - तुम बहुत भोले हो महर्षि के पास ऐसा कोई प्रमाण नहीं की वो कह सके की तुमने उसे ऋण चुकाने का कोई वचन दिया था। तुम केवल इतना कह दो की मैंने ऐसा कोई ऋण लिया ही नहीं तो चुकाऊं कहाँ से। मैं यहाँ से चला जाऊंगा तब तुम हंसी ख़ुशी अपने परिवार के साथ रहना।
नक्षत्रक की बातें सुनकर भी राजा हरिश्चंद्र अपने वचन पर अडिग थे - मैं किसी भी मूल्य पर अपने सत्य वचन का त्याग नहीं करूँगा। मैं ऋण अवश्य ही लौटाऊंगा। किन्तु मुझे अभी कोई मार्ग नहीं दिख रहा। तब उनकी धर्मपत्नी तारामती कहती हैं की आप मुझे बेच दें। इसमें आपको कोई दोष नहीं लगेगा क्योंकि ऐसा मैं अपनी इच्छा से कर रही हूँ। किन्तु हरिश्चंद्र नहीं माने।
तारामती हरिश्चंद्र को समझती हैं - 'हे स्वामी! इसके अतिरिक्त इतना धन कम समय में जुटा पाना हमारे लिए संभव नहीं।' अपनी पत्नी के बार-बार आग्रह ओर ऋण चुकाने की विवशता जान हरिश्चंद्र ने बोली लगाना प्रारम्भ किया। बोली में एक काल कौशिक नाम के ब्राह्मण ने तारामती को दासी रूप में खरीद लिया। तारामती अपने बच्चे सहित काल कौशिक के साथ चल पड़ी क्योंकि माता के बिना संतान भला कैसे रहती? हरिश्चंद्र अपने दुर्भाग्य पर बहुत दुखी थे।
जब नक्षत्रक विश्वामित्र के पास धन लेकर जा रहा था तो वही बिच रास्ते पर विश्वामित्र ने प्रगट होकर उसे अपनी नई योजना बताई। महर्षि ने कहा - यह धन तुम्हारा पारिश्रमिक हैं क्योंकि तुमने भी उनके साथ बहुत कष्ट भोगे हैं। यहीं वाक्य तुम हरिश्चंद्र से जाकर कहो और उसे ऋण चुकाने का आदेश दो। अपने गुरु की आज्ञा से नक्षत्रक हरिश्चंद्र के पास पहुंचकर वही दोहराता हैं जो महर्षि ने उसे समझाया था।
हरिश्चंद्र ने कहा - हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! आप यह धन रख लीजिये मेरे कारण आपने जो कष्ट सहे उसकी मैं क्षमा मांगता हूँ। किन्तु मुझे ऋण चुकाने का मार्ग बताने की कृपा करें। अपनी पत्नी और पुत्र को तो मैं पहले ही बेच चूका हूँ। नक्षत्रक ने सुझाव दिया की वह अपने आप को भी बेच दे तभी उसका ऋण चुकेगा। इस बार हरिश्चंद्र की सहमती पर नक्षत्रक उसकी बोली लगाता हैं। किन्तु उसे कोई खरीदने नहीं आ रहा था।
'बहुत देर बाद एक वीरबाहु नाम का मरघट (श्मशान) का यजमान हरिश्चंद्र को अपना दास बना लेता है। यजमान उसे अपना कार्य बताता है की वह मरघट के डोम (श्मशान में रहने वाला जल्लाद) के रूप में कार्य करेगा। वहां आने वाले लोगों से शव का क्रियाकर्म करने से पहले कर वसूली करनी होगी। कर वसूली के रूप में एक स्वर्ण मुद्रा, एक नया वस्त्र तथा कुछ चावल लेने होंगे।
वीरबाहु ने आगे कहा - आज से मैं तुम्हे वीरदास कह कर पुकारूंगा क्योंकि तुम मेरे अर्थात वीरबाहु के दास हो। हरिश्चंद्र बड़ी ही विनम्रता से अपने यजमान की आज्ञा को स्वीकार कर लेते हैं।
'काल कौशिक ब्राह्मण की दासी के रूप में बिक चुकी हरिश्चंद्र की पत्नी अपने पति हरिश्चंद्र की भांति ही दृढ़संकल्पित नारी थी। अपने पति के सत्य संकल्प को पूरा करने हेतु उसने अपने आपको भी दाव पर लगा दिया। काल कौशिक की पत्नी ने तारामती और उसके पुत्र रोहित पर अनेक अत्याचार किये। वह तारामती को हर समय ताने मारती और उस पर क्रोध करती। उसके किसी भी कार्य की प्रशंसा करने के स्थान पर उसे यातनाएं देती। काल कौशिक की पत्नी उसके पुत्र को भी बहुत मारती-पीटती थी। दोनों माँ और पुत्र को भर पेट भोजन नहीं देती। यदि कभी भोजन दे भी दिया तो वह भी बासी भोजन। इतनी यातनाएं सहन करने के बाद भी तारामती ने अपना धैर्य नहीं खोया तथा अपने कर्तव्य पर अडिग रही।'
उधर हरिश्चंद्र जिसे वीरबाहु ने अपना दास बना लिया था के यहाँ उसकी मन लगा कर सेवा करते। हरिश्चंद्र के सेवा भाव की वीरबाहु खूब प्रशंसा करते। एक दिन प्रातः काल वीरबाहु की पत्नी ने हरिश्चंद्र को नए मटके में ताज़ी ताड़ी (एक मादक पेय है जो ताड़ की विभिन्न प्रजाति के वृक्षों के रस से बनती है तथा ताड़ी अप्रैल माह से जुलाई माह तक ताड़ के पेड़ के फल से निकलता है।) लाने का आदेश दिया। हरिश्चंद्र ने अपने कर्तव्य का पालन किया और ताड़ी लेने के लिए निकल पड़े। किन्तु मार्ग में ताड़ी लेकर लौटते समय मटका वृक्ष की डाली से टकराकर टूट गया। इस पर वीरबाहु की पत्नी निराश हुई। उसने कहा - प्रातः काल नए मटके का फूटना बहुत अशुभ मन जाता है। यदि ऐसा हो तो पत्नी पर घोर संकट आता है। ऊपर से ताड़ी भी बह गई। यदि ऐसा हो तो पुत्र पर प्राणों का संकट आता है। लगता है आज तुम्हारे साथ यही होने वाला है। यह सब सुनकर हरिश्चंद्र बहुत चिंतित हुए।
'उसी दिन काल कौशिक की पत्नी ने अपने पुत्रों को आदेश दिया की वह वन में जाकर कुश (छोटी लकड़ियां और तिनके) चुनकर लाए। इस हेतु उसने अपने पुत्रों के साथ तारामती के पुत्र रोहित को भी साथ जाने का आदेश दिया। तारामती ने विनती की कि वह अभी छोटा बालक है उससे यह कार्य नहीं होगा। मैं अपने पुत्र के स्थान पर चली जाउंगी। पर काल कौशिक कि पत्नी ने तारामती की बात को नकार दिया और रोहित को अपने पुत्रों के साथ वन में भेज दिया।'
'विश्वामित्र ने अब अगली परीक्षा कि योजना बनाई। उन्होंने अपने तप के प्रभाव से इस बार नागराज को प्रकट किया तथा वन में जाकर हरिश्चंद्र के पुत्र को डसने का आदेश दिया। नागराज ने ऐसा ही किया। रोहित का साँप द्वारा डसते देख उसके साथ आये सभी बालक दौड़कर तारामती को यह सूचना देते हैं। तारामती पर तो जैसे वज्रपात हो गया था। अपने पुत्र पर आए इस प्राणघातक संकट से तड़पती तारामती काल कौशिक कि पत्नी से वन में जाने कि आज्ञा मांगती है।
इस पर वह बेरहमों कि भांति कहती है - 'पहले चावल कूटो उसके बाद जाकर देख लेना कि तुम्हारा पुत्र जीवित है या मर गया।' तारामती को इस बात से गहरा आघात लगता है पर अपने कर्तव्य पर अडिग अपने पति कि भांति वह अपनी स्वामिनी का आदेश नहीं टाल पाती। उसने बड़े ही दुखी मन से चावल कूटने के बाद जाने कि आज्ञा मांगी। तब उसने तारामती से कहा की रात्रि हो आई है मुझे सोना है। पहले मेरे पैर दबाओ जब मैं सो जाऊँ तब चली जाना। भारी मन से तारामती यह कार्य भी कर देती है। अपनी स्वामिनी को गहरी नींद में देखकर वह दौड़ते हुए वन कि और जाती है।
'बहुत ढूंढने के बाद वह अपने पुत्र के मृत शरीर को गले लगाकर विलाप करती है। पर विधाता के लेख और अपना दुर्भाग्य जान वह अपने आशुओं को दबाकर अपने पुत्र को मरघट (श्मशान) लेकर आती है। वहां उसे लकड़ियों पर लिटाती है तथा जोर-जोर से विलाप करती है। श्मशान में डोम (श्मशान का जल्लाद) बने हरिश्चंद्र को उसका विलाप सुनाई देता है। वह उसके पास पहुंचते हैं किन्तु अँधेरे के कारण उसे पहचान नहीं पा रहे थे। हरिश्चंद्र ने अनजान स्त्री समझ उससे उसके पुत्र कि मृत्यु का कारण पूछा। तब वह भी यह समझ की वह एक अनजान पुरुष है उसे अपने यजमान का परिचय बताते हुए मृत्यु का कारण भी बतलाती है।'
हरिश्चंद्र को लगा यह सब तो मेरी पत्नी और पुत्र कि घटना लग रही है किन्तु मन में यह सोचकर की विधाता उसके साथ इतना बड़ा अन्याय नहीं कर सकते उससे शव को जलाने से पहले कर माँगने लगे। तब तारामती ने कहा मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं जो मैं आपको दे सकूँ। फिर हरिश्चंद्र कि दृष्टि तारामति के गले में पड़े मंगलसूत्र पर पड़ती है और वे उसे कहते हैं की तुम्हारे गले में जो आभूषण लटका हुआ है वह मुझे दे दो। तारामती यह सुनकर अचंभित हो गई क्योंकि वह एक चमत्कारी मंगलसूत्र था जिसे उनके कुलदेवता भगवान सूर्यदेव ने ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के कहने पर उसे दिया था जो केवल उसके पति को ही दिखाई देता था।'
'तारामती ने अपने पति को पहचान लिया। जब दोनों ने एक दूसरे को पहचाना तो हरिश्चंद्र भी अपने पुत्र के मृत शरीर से लिपटकर विलाप करने लगे। शोक मग्न हरिश्चंद्र को तारामती ने संभाला और उन्हें अपने धर्म और कर्तव्य का पालन करने को कहा।'
तब हरिश्चंद्र उठे और अपने आप को सँभालते हुए तारामती से बोले - देवी! मैं अपने हिस्से के चावल छोड़ भी दूँ तो भी तुम्हे एक स्वर्णमुद्रा तथा एक नए वस्त्र का प्रबंध करना ही होगा अन्यथा तुम इस शव का दहन नहीं कर पाओगी। तब तारामती अपने यजमान से कर का प्रबंध करने के लिए लौट जाती है।'
इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-३०(30) समाप्त !
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