पूजन के बाद देवी पार्वती ने ब्राह्मण देवता से पूछा – हे ब्राह्मणदेव! आप कौन हैं और कहां से पधारे हैं? मुनिश्वर! आपके परम तेज से यह पूरा वन प्रकाशित हो रहा है। कृपा कर मुझे अपने यहां आने का कारण बताइए।
तब ब्राह्मण रूप धारण किए हुए महादेव जी बोले - मैं इच्छानुसार विचरने वाला ब्राह्मण हूँ। मेरा मन प्रभु के चरणों का ही ध्यान करता है। मेरी बुद्धि सदैव उन्हीं का स्मरण करती है। में दूसरो को सुखी करके खुश होता हूँ। देवी में एक तपस्वी हूँ पर आप कोन है ? आप किसकी पुत्री हैं? और इस समय इस निर्जन वन में क्या कर रही हैं?
'हे देवी! आप इस दुर्लभ और कठिन तपस्या से किसे प्रसन्न करना चाहती हैं? तपस्या या तो ऋषि-मुनि करते हैं या फिर भगवान के चरणों में ध्यान लगाना वृद्धों का काम है। भला इस तरुणावस्था में आप क्यों घर के ऐशो आराम को त्यागकर ब्रह्मचर्य का पालन करती हुई तपस्विनी का जीवन जी रही हैं? आप किस तपस्वी की धर्मपत्नी हैं और पति के समान तप कर रही हैं? हे देवी! अपने बारे में मुझे जानकारी दीजिए कि आपका क्या नाम है? और आपके पिता का क्या नाम है ? किस प्रकार आप तप के प्रति आसक्त हो गईं? क्या आप वेदमाता गायत्री हैं? लक्ष्मी हैं अथवा सरस्वती हैं?'
देवी पार्वती बोलीं - हे मुनिश्रेष्ठ! न तो मैं वेदमाता गायत्री हूं, न लक्ष्मी और न ही सरस्वती हूं। मैं गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती हूं। पूर्व जन्म में मैं प्रजापति दक्ष की पुत्री सती थी परंतु मेरे पिता दक्ष द्वारा मेरे पति भगवान शिव का अपमान देखकर मैंने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को जलाकर भस्म कर दिया था। इस जन्म में भी प्रभु शिवशंकर की सेवा करने का मुझे अवसर मिला था। मैं नियमपूर्वक उनकी सेवा में व्यस्त थी परंतु दुर्भाग्य से कामदेव के चलाए गए बाण के फलस्वरूप शिवजी को क्रोध आ गया और उन्होंने कामदेव को अपने क्रोध की अग्नि से भस्म कर दिया और वहां से उठकर चले गए।
'उनके इस प्रकार चले जाने से मैं पीड़ित होकर उनकी प्राप्ति का प्रयत्न करने हेतु तपस्या करने गंगा के तट पर चली आई हूं। यहां मैं बहुत लंबे समय से कठोर तपस्या कर रही हूं ताकि मैं शिवजी को पुनः पति रूप में प्राप्त कर सकूं परंतु मैं ऐसा करने में सफल नहीं हो सकी हूं। मैं अभी अग्नि में प्रवेश करने ही वाली थी कि आपको आया देखकर ठहर गई। अब आप जाइए, मैं अग्नि में प्रवेश करूंगी क्योंकि भगवान शिव ने मुझे स्वीकार नहीं किया है।'
ऐसा कहकर देवी पार्वती उन ब्राह्मण देवता के सामने ही अग्नि में समा गई। ब्राह्मण देव ने उन्हें ऐसा करने से बहुत रोका परंतु देवी पार्वती ने उनकी एक भी बात नहीं सुनी और अग्नि में प्रवेश कर लिया परंतु देवी पार्वती की तपस्या के प्रभाव के फलस्वरूप वह धधकती हुई। अग्नि एकदम ठंडी हो गई। सहसा पार्वती आकाश में ऊपर की ओर उठने लगीं।
तब ब्राह्मण रूप धारण किए हुए भगवान शिव हंसते हुए बोले-हे देवी! तुम्हारे शरीर पर अग्नि का कोई प्रभाव न पड़ना तुम्हारी तपस्या की सफलता का ही सूचक है। परंतु तुम्हारी मनोवांछित इच्छा का पूरा न होना तुम्हारी असफलता को दर्शाता है। अतः देवी तुम मुझ ब्राह्मण से अपनी तपस्या के मनोरथ को बताओ।
'शिवजी के इस प्रकार पूछने पर उत्तम व्रत का पालन करने वाली देवी पार्वती ने अपनी सखी को उत्तर देने के लिए कहा।'
उनकी सखी बोली - हे साधु महाराज! मेरी सखी गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती हैं। पार्वती का अभी तक विवाह नहीं हुआ है। ये भगवान शिव को ही पति रूप में प्राप्त करना चाहती हैं। इसी के लिए वे तीन हजार वर्षों से कठोर तपस्या कर रही हैं। मेरी सखी पार्वती ब्रह्मा, विष्णु और देवराज इंद्र को छोड़कर पिनाकपाणि भगवान शंकर को ही पति रूप में प्राप्त करना चाहती हैं। इसलिए ये मुनि नारद की आज्ञानुसार कठोर तपस्या कर रही हैं।
देवी पार्वती की सखी की बातें सुनकर जटाधारी तपस्वी का वेष धारण किए हुए भगवान शिव हंसते हुए बोले- देवी! आपकी सखी ने जो कुछ मुझे बताया है, मुझे परिहास जैसा लगता है। यदि फिर भी यही सत्य है तो पार्वती आप स्वयं इस बात को स्वीकार करें और मुझसे इस बात को कहें।
पार्वती बोलीं - हे जटाधारी मुनि! मेरी सखी ने जो कुछ भी आपको बताया है, वह बिलकुल सत्य है। मैंने मन, वाणी और क्रिया से भगवान शिव को ही पति रूप में वरण किया है। मैं जानती हूं कि महादेव जी को पति रूप में प्राप्त करना बहुत ही दुर्लभ कार्य है। फिर भी मेरे हृदय में और मेरे ध्यान में सदैव वे ही निवास करते हैं। अतः उन्हीं की प्राप्ति के लिए ही मैंने इस तपस्या के कठिन मार्ग को चुना है। यह सब ब्राह्मण को बताकर देवी पार्वती चुप हो गईं।
उनकी बातों को सुनकर ब्राह्मण देवता बोले - हे देवी! अभी कुछ समय पूर्व तक मेरे मन में यह जानने की प्रबल इच्छा थी कि क्यों आप कठोर तपस्या कर रही हैं परंतु देवी आपके मुख से यह सब सुनकर मेरी जिज्ञासा पूरी तरह शांत हो गई है। देवी आपके किए गए कार्य के अनुरूप ही इसका परिणाम होगा परंतु यदि यह तुम्हें सुख देता है तो यही करो। यह कहकर ब्राह्मण जैसे ही जाने के लिए उठे वैसे ही देवी पार्वती उन्हें प्रणाम करके बोली- हे विप्रवर! आप कहां जा रहे हैं? कृपया यहां कुछ देर और ठहरिए और मेरे हित की बात कहिए।
देवी पार्वती के ये वचन सुनकर साधु का वेश धारण किए हुए भगवान शिव वहीं ठहर गए और बोले - हे देवी! यदि आप सचमुच मुझे यहां रोककर मुझसे अपने हित की बात सुनना चाहती हैं तो मैं आपको अवश्य ही समझाऊंगा, जिससे आपको अपने हित का स्वयं ज्ञान हो जाएगा। देवी! मैं स्वयं भी महादेव जी का भक्त हूं। इसलिए उन्हें अच्छी प्रकार से जानता हूं ।
'जिन भगवान शिव को आप अपना पति बनाना चाहती हैं वे प्रभु शिव शंकर सदैव अपने शरीर पर भस्म धारण किए रहते हैं। उनके सिर पर जटाएं हैं। शरीर पर वस्त्रों के स्थान पर वे बाघ की खाल पहनते हैं और चादर के स्थान पर वे हाथी की खाल ओढ़ते हैं। हाथ में भीख मांगने के लिए कटोरे के स्थान पर खोपड़ी का प्रयोग करते हैं। सांपों के अनेक झुंड उनके शरीर पर सदा लिपटे रहते हैं। जहर को वे पानी की भांति पीते हैं।'
'उनके नेत्र लाल रंग के और अत्यंत डरावने लगते हैं। उनका जन्म कब, कहां और किससे हुआ, यह आज तक भी कोई नहीं जानता। वे घर-गृहस्थी के बंधनों से सदा ही दूर रहते हैं। उनकी दस भुजाएं हैं। देवी! मैं यह नहीं समझ पाता हूं कि शिवजी को अपना पति क्यों बनाना चाहती हो। आपका विवेक कहां चला गया है?'
'प्रजापति दक्ष ने अपनी पुत्री सती को सिर्फ इसीलिए ही अपने यज्ञ में नहीं बुलाया, क्योंकि वे कपालधारी भिक्षुक की भार्या हैं। उन्होंने अपने यज्ञ में शिव के अतिरिक्त सभी देवताओं को भाग दिया। इसी अपमान से क्रोधित होकर सती ने अपने प्राणों को त्याग दिया था।'
'देवी आप अत्यंत सुंदर एवं स्त्रियों में रत्न स्वरूप हैं। आपके पिता गिरिराज हिमालय समस्त पर्वतों के राजा हैं। फिर क्यों आप इस उग्र तपस्या द्वारा भगवान शिव को पति रूप में पाने का प्रयास कर रही हैं। क्यों आप सोने की मुद्रा के बदले कांच को खरीदना चाहती हैं? सुगंधित चंदन को छोड़कर अपने शरीर पर कीचड़ क्यों मलना चाहती हैं? सूर्य के तेज को छोड़कर क्यों जुगनू की चमक पाना चाहती हैं? सुंदर, मुलायम वस्त्रों को त्यागकर क्यों चमड़े से अपने शरीर को ढंकना चाहती हैं? क्यों राजमहल को छोड़कर वनों और जंगलों में भटकना चाहती हैं? आपकी बुद्धि को क्या हो गया है जो आप देवराज इंद्र एवं अन्य देवताओं को, जो कि रत्नों के भंडार के समान हैं, छोड़कर लोहे को अर्थात शिवजी को पाने की इच्छा करती हैं।'
'सच तो यह है कि इस समय मुझे आपके साथ शिवजी का संबंध परस्पर विरुद्ध दिखाई दे रहा है। कहां आप और कहां महादेव जी? आप चंद्रमुखी हैं तो शिवजी पंचमुखी, आपके नेत्र कमलदल के समान हैं तो शिवजी के तीन नेत्र सदैव क्रोधित दृष्टि ही डालते हैं। आपके केश अत्यंत सुंदर हैं, जो कि काली घटाओं के समान प्रतीत होते हैं वहीं भगवान शिव के सिर के जटाजूट के विषय में सभी जानते हैं।'
'आप सुंदर कोमल साड़ी धारण करती हैं तो शिवजी कठोर हाथी की खाल का उपयोग करते हैं। आप अपने शरीर पर चंदन का लेप करती हैं तो वे हमेशा अपने शरीर पर चिता की भस्म लगाए रखते हैं। आप अपनी शोभा बढ़ाने हेतु दिव्य आभूषण धारण करती हैं, तो शिवजी के शरीर पर सदैव सर्प लिपटे रहते हैं।''
'कहां मृदंग की मधुर ध्वनि, कहां डमरू की डमडम ? देवी पार्वती! महादेव जी सदा भूतों की दी हुई बलि को स्वीकार करते हैं। उनका यह रूप इस योग्य नहीं है कि उन्हें अपना सर्वांग सौंपा जा सके। देवी! आप परम सुंदरी हैं। आपका यह अद्भुत और उत्तम रूप शिवजी के योग्य नहीं हैं। आप ही सोचें– यदि उनके पास धन होता तो क्या वे इस तरह नंगे रहते?'
'सवारी के नाम पर उनके पास एक पुराना बैल है। कन्या के लिए योग्य वर ढूंढ़ते समय वर की जिन-जिन विशेषताओं और गुणों को देखा-परखा जाता है, शिवजी में वह कोई भी गुण उपस्थित नहीं है। और तो और आपके प्रिय कामदेव जी को भी उन्होंने अपनी क्रोधाग्नि से भस्म कर दिया था। साथ ही उस समय आपको छोड़कर चले जाना आपका अनादर करना ही था। हे देवी! उनकी जात-पात, ज्ञान और विद्या के बारे में सभी अनजान हैं । पिशाच ही उनके सहायक हैं। उनके गले में विष दिखाई देता है। वे सदैव सबसे अलग-थलग रहते हैं।'
'इसलिए आपको भगवान शिव के साथ अपने मन को कदापि नहीं जोड़ना चाहिए । आपके और उनके रूप और सभी गुण अलग-अलग हैं, जो कि परस्पर एक-दूसरे के विरोधी जान पड़ते हैं। इसी कारण मुझे आपका और महादेव जी का संबंध रुचिकर नहीं लगता है। फिर भी जो आपकी इच्छा हो, वैसा ही करो। वैसे मैं तो यह चाहता हूं कि आप असत की ओर से अपना मन हटा लें। यदि यह सब नहीं करना चाहती हैं तो आपकी इच्छा। जो चाहो करो। अब मुझे और कुछ नहीं कहना है।'
इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-३०(30) समाप्त !
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