सूतजी कहते हैं ऋषिगणों अब मैं आपके दूसरे प्रश्न का उत्तर देता हूँ। इस हेतु मैं आपको भगवान शिव और माता सती की कथा बतलाता हूँ। अतः उसे आप सभी मन से आत्मसात करें।
'एक दिन की बात है देवी सती एकांत में भगवान शंकर से मिलीं और उन्हें भक्ति पूर्वक प्रणाम करके हाथ जोड़ कर खड़ी हो गयी। प्रभु शंकर को पूर्ण प्रसन्न जान नमस्कार करके विनीत भाव से खड़ी दक्षकुमारी सती भक्तिभाव से अंजलि बांधे बोलीं।'
सती ने कहा - देवादिदेव महादेव ! करुणासागर ! प्रभो ! दीणोद्धापरायण ! महायोगिन् ! मुझपर कृपा कीजिये। आप परम पुरुष हैं। सबके स्वामी हैं। रजोगुण, तमोगुण, सतोगुण से परे हैं। निर्गुण भी हैं, सगुण भी हैं। सबके साक्षी निर्विकार और महाप्रभु हैं।
'हर ! मैं धन्य हूँ, जो आपकी कामिनी और आपके साथ विहार करने वाली आपकी प्रिय हुई।'
'स्वामिन् ! आप अपनी भक्तवत्सलता से ही प्रेरित होकर मेरे पति हुए हैं। नाथ ! मैंने बहुत वर्षों तक आपके साथ विहार किया है। इससे मैं बहुत संतुष्ट हुई हूँ और अब मेरा मन उधर से हट गया है।'
देवेश्वर हर ! अब तो मैं उस परम तत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना चाहती हूँ, जो सहज सुख प्रदान करने वाला है तथा जिसके द्वारा जीव संसार-दुःख से अनायास ही उद्धार पा सकता है।'
'नाथ ! जिस कर्म का अनुष्ठान करके विषयी जीव भी परम पद को प्राप्त कर ले और संसार बंधन में न बंधे, उसे आप बताइये, मुझपर कृपा कीजिये।'
सूतजी कहते हैं - हे ज्ञानीजनों ! इस प्रकार आदिशक्ति महेश्वरी सती ने केवल जीवों के उद्धार के लिए उत्तम भक्ति भाव के साथ भगवान शंकर से प्रश्न किया, तब उनके इस प्रश्न को सुनकर स्वेच्छा से शरीर धारण करनेवाले तथा योग के द्वारा भोग से विरक्त चित्त वाले स्वामी शिव ने अत्यंत प्रसन्न होकर इस प्रकार कहा।
शिव बोले - देवी ! दक्षनंदिनी ! माहेश्वरी ! सुनो; मैं उसी परमतत्त्व का वर्णन करता हूँ, जिससे वासना बद्ध जीव तत्काल मुक्त हो सकता है। 'परमेश्वरि! तुम विज्ञान को परम तत्त्व जानो। विज्ञान वह है जिसके उदय होने पर 'मैं ब्रह्म हूँ' ऐसा दृढ निश्चय हो जाता है, ब्रह्म के सिवा दूसरी किसी वस्तु का स्मरण नहीं रहता तथा उस विज्ञानी पुरष की बुद्धि सर्वथा शुद्ध हो जाती है। प्रिये ! वह विज्ञान दुर्लभ है। त्रिलोकी में उसका ज्ञाता कोई विरला ही होता है। वह जो और जैसा भी है, सदा मेरा स्वरुप ही है, साक्षात् परात्परब्रह्म है। उस विज्ञान की माता है मेरी भक्ति, जो भोग और मोक्ष रूप फल प्रदान करने वाली है। वह मेरी कृपा से सुलभ होती है।'
'भक्ति नौ प्रकार की बताई गयी है। सती ! भक्ति और ज्ञान में कोई भेद नहीं है। भक्त और ज्ञानी दोनों को ही सदा सुख प्राप्त होता है। जो भक्ति का विरोधी है; उसे ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। देवी ! मैं सदा भक्त के अधीन रहता हूँ और भक्ति के प्रभाव से जातिहीन नीच मनुष्यों के घरों में भी चला जाता हूँ। इसमें संशय नहीं है।'
'सती ! वह भक्ति दो प्रकार की है - सगुणा और निर्गुणा। जो वैधी (शास्त्र विधि से प्रेरित) और स्वाभाविकी (हृदय अनुराग से प्रेरित) भक्ति होती है, वह श्रेष्ठ है तथा इससे भिन्न जो कामनामूलक भक्ति होती है, वह निम्नकोटि की मानी गयी है।'
'पूर्वोक्त सगुणा और निर्गुणा - ये दोनों प्रकार की भक्तियाँ नैष्ठिकी (निष्ठावान होना) और अनैष्ठिकी के भेद से दो भेदवाली हो जाती है।'
नैष्ठिकी भक्ति छः प्रकार की जाननी चाहिये और अनैष्ठिकी एक प्रकार की मानी गयी है। विद्वान् पुरुष विहिता (जिसका विधान किया गया है) और अविहिता आदि भेद से अनेक प्रकार की मानते हैं। इन द्विविध भक्तियों के बहुत से भेद प्रभेद होने के कारण इनके तत्त्व का अन्यत्र वर्णन किया गया है। प्रिये ! मुनियो ने सगुणा और निर्गुणा के नौ अंग बताये हैं। दक्षनंदिनी ! मैं उन नौ अंगो का वर्णन करता हूँ, तुम प्रेम से सुनो।'
'देवी ! श्रवण, कीर्तन, स्मरण, सेवन, दास्य, अर्चन, सदा मेरा वंदन, सख्य और आत्मसमर्पण - ये विद्वानों ने भक्ति के नौ अंग माने हैं। शिवे ! भक्ति के उपांग भी बहुत से बताये गये हैं।'
'देवी ! अब तुम मन लगाकर मेरी भक्ति के पूर्वोक्त नवों अंगों के पृथक-पृथक लक्षण सुनो; वे लक्षण भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। जो स्थिर आसन से बैठकर तन-मन आदि से मेरी कथा-कीर्तन आदि का नित्य सम्मान करता हुआ प्रसन्नता-पूर्वक अपने कानों से उसके अमृत रस का पान करता है, उसके इस साधन को 'श्रवण' कहते हैं।'
'जो हृदयाकाश के द्वारा मेरे दिव्य जन्म-कर्मों का चिंतन करता हुआ प्रेम से वाणी द्वारा उनका उच्चस्वर से उच्चारण करता है, उसके इस भजन-साधन को 'कीर्तन' कहते हैं।'
'देवी मुझ नित्य महेश्वर को सदा और सर्वत्र व्यापक जानकर जो संसार में निरंतर निर्भय रहता है, उसी को 'स्मरण' कहा गया है।'
'अरुणोदय से लेकर हर समय सेव्य की अनुकूलता का ध्यान रखते हुए हृदय और इन्द्रियों से जो निरंतर सेवा की जाती है, वहीं 'सेवन' नामक भक्ति है।'
'अपने को प्रभु का किंकर समझकर हृदयामृत के भोग से स्वामी का सदा प्रिय संपादन करना 'दास्य' कहा गया है।'
'अपने धन वैभव के अनुसार शास्त्रीय-विधि से मुझ परमात्मा को सदा पाद्य आदि सौलह उपचारों का जो समर्पण करना है, उसे 'अर्चन' कहते हैं।'
'मनसे, ध्यान और वाणी से वन्दनात्मक मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक आठों अंगों से भूतल का स्पर्श करते हुए जो इष्टदेव को नमस्कार किया जाता है, उसे 'वंदन' कहते हैं। ईश्वर मंगल या अमंगल जो कुछ भी करता है, वह सब मेरे मंगल के लिए ही है। ऐसा दृढ विश्वास रखना 'सख्य' भक्ति का लक्षण है।
'देह आदि जो कुछ भी अपनी कही जाने वाली वस्तु है, वह सब भगवान की प्रसन्नता के लिये उन्हींको समर्पित करके अपने निर्वाह के लिये भी कुछ न बचाकर रखना अथवा निर्वाह की चिंता से भी रहित हो जाना 'आत्मसमर्पण' कहलाता है।'
'ये मेरी भक्ति के नौ अंग हैं जो भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। इनसे ज्ञान का प्राकट्य होता हैं तथा ये सब साधन मुझे अत्यंत प्रिय हैं। मेरी भक्ति के बहुत से उपांग भी कहे गये हैं, जैसे विल्व आदिका सेवन आदि। इनको विचार से समझ लेना चाहिये।'
'प्रिये इस प्रकार मेरी सांगोपांग भक्ति सबसे उत्तम हैं। यह ज्ञान-वैराग्य की जननी हैं और मुक्ति इसकी दासी हैं। यह सदा सब साधनों से ऊपर विराजमान है। इसके द्वारा सम्पूर्ण कर्मों के फल की प्राप्ति होती है। यह भक्ति मुझे सदा तुम्हारे समान ही प्रिय है। जिसके चित्त में नित्य-निरंतर यह भक्ति निवास करती है, वह साधक मुझे अत्यंत प्यारा है। देवेश्वरी ! तीनो लोकों और चारों युगों में भक्ति के समान कोई दूसरा सुखदायक मार्ग नहीं है।'
'कलियुग में तो यह विशेष सुखद और सुविधाजनक है। देवी ! कलियुग में प्रायः ज्ञान और वैराग्य के कोई ग्राहक नहीं है। इसलिए वे दोनों वृद्ध, उत्साहशुन्य और जर्जर हो गये हैं, परन्तु भक्ति कलियुग में तथा अन्य युगों में प्रत्यक्ष सुख देने वाली है। भक्ति के प्रभाव से मैं सदा उसके वश में रहता हूँ, इसमें संशय नहीं है। संसार में जो भक्तिमान पुरुष है, उसकी मैं सदा सहायता करता हूँ, उसके सारे विघ्नों को दूर हटाता हूँ। उस भक्त का जो शत्रु होता है, वह मेरे लिये दंडनीय है - इसमें संशय नहीं है।'
'देवी ! मैं अपने भक्तों का रक्षक हूँ। भक्त की रक्षा के लिये ही मैंने कुपित हो अपने नेत्रजनित अग्नि से काल को भी जला डाला था।'
'प्रिये ! भक्त के लिये पूर्व काल में मैं सूर्य पर भी अत्यंत क्रुद्ध हो उठा था और शूल लेकर मैंने उन्हें मार भगाया था। देवी ! भक्त के लिये मैंने सेनासहित रावण को भी त्याग दिया और उसके प्रति कोई पक्षपात नहीं किया।'
'सती ! देवेश्वरी ! बहुत कहने से क्या लाभ, मैं सदा ही भक्त के अधीन रहता हूँ और भक्ति करने वाले पुरुष के अत्यंत वश में हो जाता हूँ।'
सूतजी कहते हैं - हे ऋषिगणों ! इस प्रकार भक्त का महत्त्व सुनकर दक्षकन्या सती को बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने अत्यंत प्रसन्नता-पूर्वक भगवान शिव को मन-ही-मन प्रणाम किया।
'इस प्रकार लोकोपकार करने के लिये सद्गुण संपन्न शरीर धारण करने वाले, त्रिलोक-सुखदायक और सर्वज्ञ सती-शिव हिमालय के कैलाश शिखर पर अन्यान्य स्थानों में नाना प्रकार की लीलाएं करते थे। वे दोनों दम्पति साक्षात् परब्रह्मस्वरूप हैं।
इति श्रीमद् राम कथा रामायण माहात्म्य अध्याय का भाग-३(3) समाप्त !
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