सूतजी कहते हैं - माता सुनीति ने जो वचन कहे, वे अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति का मार्ग दिखलाने वाले थे। अतः उन्हें सुनकर ध्रुव ने बुद्धि द्वारा अपने चित्त का समाधान किया। इसके बाद वे पिता के नगर से निकल पड़े। बहुत दूर तक चलने के पश्चात घने निर्जन वन में एक वट वृक्ष के निचे आसन जमाकर नन्हा और मासूम ध्रुव तपस्या करने लगा। यह सब समाचार सुनकर और ध्रुव क्या करना चाहता है, इस बात को जानकर नारद जी वहाँ आये। उन्होंने ध्रुव के मस्तक पर अपना पापनाशक कर-कमल फेरते हुए मन-ही-मन विस्मित होकर कहा - ‘अहो! क्षत्रियों का कैसा अद्भुत तेज है, वे थोड़ा-सा भी मान-भंग नहीं सह सकते। देखो, अभी तो यह नन्हा-सा बच्चा है; तो भी इसके हृदय में सौतेली माता के कटु वचन घर कर गये हैं।'
तत्पश्चात् नारद जी ने उस कोमल और सुकुमार बालक ध्रुव से कहा - वत्स! अभी तो तुम नन्हे बालक हो, खेल-कूद में ही मस्त रहते हो; हम नहीं समझते कि इस उम्र में किसी बात से तुम्हारा सम्मान या अपमान हो सकता है। यदि तुम्हें मानापमान का विचार ही हो, तो पुत्र! असल में मनुष्य के असन्तोष का कारण मोह के सिवा और कुछ नहीं है। संसार में मनुष्य अपने कर्मानुसार ही मान-अपमान या सुख-दुःख आदि को प्राप्त होता है।
'तात! भगवान् की गति बड़ी विचित्र है! इसलिये उस पर विचार करके बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि दैववश उसे जैसी भी परिस्थिति का सामना करना पड़े, उसी में सन्तुष्ट रहे। अब, माता के उपदेश से तुम योग साधन द्वारा जिन भगवान् की कृपा प्राप्त करने चले हो मेरे विचार से साधारण पुरुषों के लिये उन्हें प्रसन्न करना बहुत ही कठिन है।फिर तुम तो सुकुमार बालक हो।
'योगी लोग अनेकों जन्मों तक अनासक्त रहकर समाधियोग के द्वारा बड़ी-बड़ी कठोर साधनाएँ करते रहते हैं, परन्तु भगवान् के मार्ग का पता नहीं पाते। इसलिये तुम यह व्यर्थ का हठ छोड़ दो और घर लौट जाओ; बड़े होने पर जब परमार्थ-साधन का समय आवे, तब उसके लिये प्रयत्न कर लेना। विधाता के विधान के अनुसार सुख-दुःख जो कुछ भी प्राप्त हो, उसी में चित्त को सन्तुष्ट रखना चाहिये। यों करने वाला पुरुष मोहमय संसार से पार हो जाता है। मनुष्य को चाहिये कि अपने से अधिक गुणवान् को देखकर प्रसन्न हो; जो कम गुणवाला हो, उस पर दया करे और जो अपने समान गुण वाला हो, उससे मित्रता का भाव रखे। यों करने से उसे दुःख कभी नहीं दबा सकते।'
देवर्षि नारद को अपने सामने पाकर तथा उनके प्रेम और ज्ञान भरे वचन सुनकर तथा उन्हें नमन करते हुए ध्रुव ने कहा - भगवन्! सुख-दुःख से जिनका चित्त चंचल हो जाता है, उन लोगों के लिये आपने कृपा करके शान्ति का यह बहुत अच्छा उपाय बतलाया। परन्तु मुझ-जैसे अज्ञानियों की दृष्टि यहाँ तक नहीं पहुँच पाती। इसके सिवा, मुझे घोर क्षत्रिय स्वभाव प्राप्त हुआ है, अतएव मुझमें विनय का प्रायः अभाव है; माता सुरुचि ने अपने कटुवचनरूपी बाणों से मेरे हृदय को विदीर्ण कर डाला है; इसलिये उसमें आपका यह उपदेश नहीं ठहर पाता।
'ब्रह्मन्! मैं उस पद पर अधिकार करना चाहता हूँ, जो त्रिलोकी में सबसे श्रेष्ठ है तथा जिस पर मेरे पिता-पितामह और दूसरे कोई भी आरूढ़ नहीं हो सके हैं। आप मुझे उसी की प्राप्ति का कोई अच्छा-सा मार्ग बतलाइये। आप भगवान् ब्रह्माजी के पुत्र हैं और संसार के कल्याण के लिये ही वीणा बजाते सूर्य की भाँति त्रिलोकी में विचरा करते हैं।'
सूतजी कहते हैं - ध्रुव की बात सुनकर नारद जी बड़े प्रसन्न हुए और उस पर कृपा करके इस प्रकार सदुपदेश देने लगे।
श्रीनारद जी ने कहा - पुत्र! तुम्हारी माता सुनीति ने तुम्हे जो कुछ बताया है, वही तुम्हारे लिये परम कल्याण का मार्ग है। भगवान् वासुदेव ही वह उपाय हैं, इसलिये तुम चित्त लगाकर उन्हीं का भजन करो। जिस पुरुष को अपने लिये धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थ की अभिलाषा हो, उसके लिये उनकी प्राप्ति का उपाय एकमात्र श्रीहरि के चरणों का सेवन ही है।
'पुत्र! तुम्हारा कल्याण होगा, अब तुम श्रीयमुना जी के तटवर्ती परमपवित्र मधुवन को जाओ। वहाँ श्रीहरि का नित्य-निवास है। वहाँ श्रीकालिन्दी के निर्मल जल में तीनों समय स्नान करके नित्यकर्म से निवृत्त हो यथाविधि आसन बिछाकर स्थिरभाव से बैठना। फिर रेचक, पूरक और कुम्भक- तीन प्रकार के प्राणायाम से धीरे-धीरे प्राण, मन और इन्द्रिय के दोषों को दूरकर धैर्ययुक्त मन से परमगुरु श्रीभगवान् का इस प्रकार ध्यान करना।'
'भगवान् के नेत्र और मुख निरन्तर प्रसन्न रहते हैं; उन्हें देखने से ऐसा मालूम होता है कि वे प्रसन्नतापूर्वक भक्त को वर देने के लिये उद्यत हैं। उनकी नासिका, भौंहें और कपोल बड़े ही सुहावने हैं; वे सभी देवताओं में परम सुन्दर हैं। उनकी तरुण अवस्था है; सभी अंग बड़े सुडौल हैं; लाल-लाल होठ और रतनारे नेत्र हैं। वे प्रणतजनों को आश्रय देने वाले, अपार सुखदायक, शरणागतवत्सल और दया के समुद्र हैं। उनके वक्षःस्थल में श्रीवत्स (महर्षि भृगु का पद) का चिह्न है; उनका शरीर सजल जलधर के समान श्यामवर्ण है; वे परमपुरुष श्यामसुन्दर गले में वनमाला धारण किये हुए हैं और उनकी चार भुजाओं में शंख, चक्र, गदा एवं पद्म सुशोभित हैं। उनके अंग-प्रत्यंग किरीट, कुण्डल, केयूर और कंकणादि आभूषणों से विभूषित हैं; गला कौस्तुभ मणि की भी शोभा बढ़ा रहा है तथा शरीर में रेशमी पीताम्बर है। उनके कटिप्रदेश में कांचन की करधनी और चरणों में सुवर्णमय नूपुर (पैजनी) सुशोभित हैं।'
'भगवान् का स्वरूप बड़ा ही दर्शनीय, शान्त तथा मन और नयनों को आनन्दित करने वाला है। जो लोग नयनों को आनन्दित करने वाला है। जो लोग प्रभु का मानस-पूजन करते हैं, उनके अन्तःकरण में वे हृदयकमल की कर्णिका पर अपने नख-मणिमण्डित मनोहर पादारविन्दों को स्थापित करके विराजते हैं। इस प्रकार धारणा करते-करते जब चित्त स्थिर और एकाग्र हो जाये, तब उन वरदायक प्रभु का मन-ही-मन इस प्रकार ध्यान करे कि वह मेरी ओर अनुरागभरी दृष्टि से निहारते हुए मन्द-मन्द मुसकरा रहे हैं। भगवान् की मंगलमयी मूर्ति का इस प्रकार निरन्तर ध्यान करने से मन शीघ्र ही परमानन्द में डूबकर तल्लीन हो जाता है और फिर वहाँ से लौटता नहीं।'
'राजकुमार! इस ध्यान के साथ जिस परम गुह्य मन्त्र का जप करना चाहिये, वह भी बतलाता हूँ सुनो। इसका सात रात जप करने से मनुष्य आकाश में विचरने वाले सिद्धों का दर्शन कर सकता है। वह मन्त्र हैं- ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’। किस देश और किस काल में कौन वस्तु उपयोगी है इसका विचार करके बुद्धिमान् पुरुष को इस मन्त्र के द्वारा तरह-तरह की सामग्रियों से भगवान् की द्रव्यमयी पूजा करनी चाहिये।'
'प्रभु का पूजन विशुद्ध जल, पुष्पमाला, जंगली मूल और फलादि, पूजा में विहित दुर्वादि अंकुर, वन में ही प्राप्त होने वाले वल्कल वस्त्र और उनकी प्रेयसी तुलसी से करना चाहिये। यदि शिला आदि की मूर्ति मिल सके तो उसमें, नहीं तो पृथ्वी या जल आदि में ही भगवान् की पूजा करे। सर्वदा संयमचित्त, मननशील, शान्त और मौन रहे तथा जंगली फल-मूलादि का परिमित आहार करे।'
'इसके सिवा पुण्यकीर्ति श्रीहरि अपनी अनिर्वचनीया माया के द्वारा अपनी ही इच्छा से अवतार लेकर जो-जो मनोहर चरित्र करने वाले हैं, उनका मन-ही-मन चिन्तन करता रहे। प्रभु की पूजा के लिये जिन-जिन उपचारों का विधान किया गया है, उन्हें मन्त्रमूर्ति श्रीहरि को द्वादशाक्षर मन्त्र के द्वारा ही अर्पण करे। इस प्रकार जब हृदयस्थित हरि का मन, वाणी और शरीर से भक्तिपूर्वक पूजन किया जाता है, तब वे निश्छलभाव से भलीभाँति भजन करने वाले अपने भक्तों के भाव को बढ़ा देते हैं और उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार धर्म, अर्थ, काम अथवा मोक्षरूप कल्याण प्रदान करते हैं। यदि उपासक को इन्द्रियसम्बन्धी भोगों से वैराग्य हो गया हो तो वह मोक्ष प्राप्ति के लिये अत्यन्त भक्तिपूर्वक अविच्छिन्नभाव से भगवान् का भजन करे।'
श्रीनारद जी से इस प्रकार उपदेश पाकर राजकुमार ध्रुव ने परिक्रमा करके उन्हें प्रणाम किया। तदनन्तर उन्होंने भगवान् के चरणचिह्नों से अंकित परमपवित्र मधुवन की यात्रा की।
(मधुवन का यह स्थान आगे चलकर मथुरा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जिसे मधु नामक असुर ने बसाया था। मधु भगवान शिव का परम भक्त था। कालांतर में इसी के पुत्र लवणासुर का भगवान राम के छोटे भाई शत्रुघ्न ने वध किया था। इस कथा का विस्तृत वर्णन श्रीमद्वाल्मीकी रामायण के उत्तरकाण्ड में मिलता है।)
इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-२(2) समाप्त !
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