भाग-२(2) राजा का पुत्र के लिये अश्वमेध यज्ञ करने का प्रस्ताव और मन्त्रियों तथा ब्राह्मणों द्वारा उनका अनुमोदन



सम्पूर्ण धर्मों को जानने वाले महात्मा राजा दशरथ ऐसे प्रभावशाली होते हुए भी पुत्र के लिये सदा चिन्तित रहते थे। उनके वंश को चलाने वाला कोई पुत्र नहीं था। उसके लिये चिन्ता करते-करते एक दिन उन महामनस्वी नरेश के मन में यह विचार हुआ कि मैं पुत्र प्राप्ति के लिये अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान क्यों न करूँ?

अपने समस्त शुद्ध बुद्धि वाले मन्त्रियों के साथ परामर्श पूर्वक यज्ञ करने का ही निश्चित विचार करके उन महातेजस्वी, बुद्धिमान् एवं धर्मात्मा राजा ने सुमन्त्र से कहा – 'मन्त्रिवर! तुम मेरे समस्त गुरुजनों एवं पुरोहितों को यहाँ शीघ्र बुला ले आओ।'  

तब शीघ्रतापूर्वक पराक्रम प्रकट करनेवाले सुमन्त्र तुरंत जाकर उन समस्त वेदविद्या के पारंगत मुनियों को वहाँ बुला लाये। सुयज्ञ, वामदेव, जाबालि, काश्यप, कुलपुरोहित वसिष्ठ तथा और भी जो श्रेष्ठ ब्राह्मण थे, उन सबकी पूजा करके धर्मात्मा राजा दशरथ ने धर्म और अर्थ से युक्त यह मधुर वचन कहा - 'महर्षियो! मैं सदा पुत्र के लिये विलाप करता रहता हूँ। उसके बिना इस राज्य आदि से मुझे सुख नहीं मिलता; अत: मैंने यह निश्चय किया है कि मैं पुत्र प्राप्ति के लिये अश्वमेध द्वारा भगवान का यजन करूँ। मेरी इच्छा है कि शास्त्रोक्त विधि से इस यज्ञ का अनुष्ठान करूँ; अतः किस प्रकार मुझे मेरी मनोवाञ्छित वस्तु प्राप्त होगी? इसका विचार आप लोग यहाँ करें।' 

राजा के ऐसा कहने पर वसिष्ठ आदि सब ब्राह्मणों ने 'बहुत अच्छा' कहकर उनके मुख से कहे गये पूर्वोक्त वचन की प्रशंसा की। फिर वे सभी अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा दशरथ से बोले - 'महाराज ! यज्ञ-सामग्री का संग्रह किया जाये। भूमण्डल में भ्रमण के लिये यज्ञसम्बन्धी अश्व छोड़ा जाये तथा सरयू के उत्तर तट पर यज्ञभूमि का निर्माण किया जाये। आप यज्ञ द्वारा सर्वथा अपनी इच्छा के अनुरूप पुत्र प्राप्त कर लोगे; क्योंकि पुत्र के लिये आपके हृदय में ऐसी धार्मिक बुद्धि का उदय हुआ है। 

ब्राह्मणों का यह कथन सुनकर राजा बहुत संतुष्ट हुए। हर्ष से उनके नेत्र चञ्चल हो उठे। वे अपने मन्त्रियों से बोले – ‘गुरुजनों की आज्ञा के अनुसार यज्ञ की सामग्री यहाँ एकत्र की जाये । शक्तिशाली वीरों के संरक्षण में उपाध्याय सहित अश्व को छोड़ा जाये। सरयू के उत्तर तट पर यज्ञभूमि का निर्माण हो। शास्त्रोक्त विधि के अनुसार क्रमश: शान्तिकर्म का विस्तार किया जाये (जिससे विघ्नों का निवारण हो)। यदि इस श्रेष्ठ यज्ञ में कष्टप्रद अपराध बन जाने का भय न हो तो सभी राजा इसका सम्पादन कर सकते हैं; परंतु ऐसा होना कठिन है; क्योंकि विद्वान् ब्रह्मराक्षस यज्ञ में विघ्न डालने के लिये छिद्र ढूँढ़ा करते हैं। विधिहीन यज्ञ का अनुष्ठान करने वाला यजमान तत्काल नष्ट हो जाता है; अतः मेरा यह यज्ञ जिस तरह विधिपूर्वक सम्पन्न हो सके, वैसा उपाय किया जाये। तुम सब लोग ऐसे साधन प्रस्तुत करने में समर्थ हो।' 

राजा के द्वारा सम्मानित हुए समस्त मन्त्री पूर्ववत् उनके वचनों को सुनकर बोले - 'बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा।' 

इसी प्रकार वे सभी धर्मज्ञ ब्राह्मण भी नृपश्रेष्ठ दशरथ को बधाई देते हुए उनकी आज्ञा लेकर जैसे आये थे, वैसे ही फिर लौट गये। 

उन ब्राह्मणों को विदा करके राजा ने मन्त्रियों से कहा – 'पुरोहितों के उपदेश के अनुसार इस यज्ञ को विधिवत् पूर्ण करना चाहिये।' 

वहाँ उपस्थित हुए मन्त्रियों से ऐसा कहकर परम बुद्धिमान् नृपश्रेष्ठ दशरथ उन्हें विदा करके अपने महल में चले गये। वहाँ जाकर नरेश ने अपनी प्यारी पत्नियों से कहा – 'देवियो ! दीक्षा ग्रहण करो। मैं पुत्र के लिये यज्ञ करूँगा।' 

उस मनोहर वचन से उन सुन्दर कान्तिवाली रानियों के मुखकमल वसन्तऋतु में विकसित होनेवाले पङ्कजों के समान खिल उठे और अत्यन्त शोभा पाने लगे। 

पुत्र के लिये अश्वमेध यज्ञ करने की बात सुनकर सुमन्त्र ने राजा से एकान्त में कहा – 'महाराज ! एक पुराना इतिहास सुनिये। मैंने पुराण में भी इसका वर्णन सुना है। ऋत्विजों ने पुत्र-प्राप्ति के लिये इस अश्वमेधरूप उपाय का उपदेश किया है; परंतु मैंने इतिहास के रूप में कुछ विशेष बात सुनी है।' 

'राजन् ! पूर्वकाल में भगवान् सनत्कुमार ने ऋषियों के निकट एक कथा सुनायी थी। वह आपकी पुत्रप्राप्ति से सम्बन्ध रखने वाली है। उन्होंने कहा था, मुनिवरो ! महर्षि काश्यप के विभाण्डक नाम से प्रसिद्ध एक पुत्र हैं। उनके भी एक पुत्र होगा, जिसकी लोगों में ऋष्यश्रृंग नाम से प्रसिद्धि होगी। वे ऋष्यश्रृंग मुनि सदा वन में ही रहेंगे और वन में ही सदा लालन- पालन पाकर वे बड़े होंगे।'  

'सदा पिता के ही साथ रहने के कारण विप्रवर ऋष्यश्रृंग दूसरे किसी को नहीं जानेंगे। राजन्! लोक में ब्रह्मचर्य के दो रूप विख्यात हैं और ब्राह्मणों ने सदा उन दोनों स्वरूपों का वर्णन किया है। एक तो है दण्ड, मेखला आदि धारणरूप मुख्य ब्रह्मचर्य और दूसरा है ऋतुकाल में पत्नी-समागम रूप गौण ब्रह्मचर्य। उन महात्मा के द्वारा उक्त दोनों प्रकार के ब्रह्मचर्यों का पालन होगा।' 

'इस प्रकार रहते हुए मुनि का समय अग्नि तथा यशस्वी पिता की सेवा में ही व्यतीत होगा। उसी समय अंगदेश में रोमपाद नामक एक बड़े प्रतापी और बलवान् राजा होंगे; उनके द्वारा धर्म का उल्लङ्घन हो जाने के कारण उस देश में घोर अनावृष्टि हो जायेगी, जो सब लोगों को अत्यन्त भयभीत कर देगी। 

वर्षा बंद हो जाने से राजा रोमपाद को भी बहुत दुःख होगा। वे शास्त्रज्ञान में बढ़े- चढ़े ब्राह्मणों को बुलाकर कहेंगे – 'विप्रवरो! आप लोग वेद-शास्त्र के अनुसार कर्म करने वाले तथा लोगों के आचार-विचार को जानने वाले हैं; अत: कृपा करके मुझे ऐसा कोई नियम बताइये, जिससे मेरे पाप का प्रायश्चित्त हो जाये।' 

राजा के ऐसा कहने पर वे वेदों के पारंगत विद्वान् सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण उन्हें इस प्रकार सलाह देंगे - ‘राजन्! विभाण्डक के पुत्र ऋष्यश्रृंग वेदों के पारगामी विद्वान् हैं। भूपाल ! आप सभी उपायों से उन्हें यहाँ ले आइये। बुलाकर उनका भलीभाँति सत्कार कीजिये। फिर एकाग्रचित्त हो वैदिक विधि के अनुसार उनके साथ अपनी कन्या शान्ता का विवाह कर दीजिये। 

उनकी बात सुनकर राजा इस चिन्ता में पड़ जायेंगे कि किस उपाय से उन शक्तिशाली महर्षि को यहाँ लाया जा सकता है। फिर वे मनस्वी नरेश मन्त्रियों के साथ निश्चय करके अपने पुरोहित और मन्त्रियों को सत्कार पूर्वक वहाँ भेजेंगे। 

राजा की बात सुनकर वे मन्त्री और पुरोहित मुँह लटकाकर दुःखी हो यों कहने लगेंगे कि हम महर्षि से डरते हैं, इसलिये वहाँ नहीं जायेंगे। यों कहकर वे राजा से बड़ी अनुनय-विनय करेंगे। इसके बाद सोच-विचारकर वे राजा को योग्य उपाय बतायेंगे और कहेंगे कि हम उन ब्राह्मण कुमार को किसी उपाय से यहाँ ले आयेंगे। ऐसा करने से कोई दोष नहीं घटित होगा।

इस प्रकार वेश्याओं की सहायता से अंगराज मुनि कुमार ऋष्यश्रृंग को अपने यहाँ बुलायेंगे। उनके आते ही इन्द्रदेव उस राज्य में वर्षा करेंगे। फिर राजा उन्हें अपनी पुत्री शान्ता समर्पित कर देंगे। इस तरह ऋष्यश्रृंग आपके जामाता हुए। वे ही आपके लिये पुत्रों को सुलभ कराने वाले यज्ञकर्म का सम्पादन करेंगे। यह सनत्कुमारजी की कही हुई बात मैंने आपसे निवेदन की है। 

यह सुनकर राजा दशरथ को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने सुमन्त्र से कहा – 'मुनिकुमार ऋष्यश्रृंग को वहाँ जिस प्रकार और जिस उपाय से बुलाया गया, वह स्पष्टरूप से बताओ। 

इति श्रीमद् राम कथा बालकाण्ड अध्याय-५ का भाग-२(2) समाप्त !


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