सूतजी बोले - हे ऋषियों ! भगवान के धरती पर जन्म लेने का प्रथम कारण मैंने सभी को बताया। भगवान पृथ्वी पर होने वाले पाप और अधर्म का भार हरण करने के लिए ही प्रत्येक कल्प में श्रीराम रूप में आते हैं तथा धर्म की स्थापना करते हैं। भगवान के अवतार लेने का कोई एक कारण नहीं है। कल्प भेद से कारण अलग-अलग होते हैं तथा उनकी कथाओं में भी अंतर आता है।
(श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड में तुलसीदासजी कहते हैं -
चौपाई
हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
भावार्थ-
हरि अनंत हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं। रामचंद्र के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते।)
'अब वह दूसरा कारण सुनो जिसके लिए प्रभु का अवतार हुआ। एक समय पृथ्वीलोक पर असुरों का प्रभुत्व इतना बढ़ गया की वह देवताओं के हितैषी ऋषि-मुनियों का यज्ञ और तप खंडित करने लगे। असुरों के आतंक से चहुँ और त्राहि-त्राहि मच गई। कोई भी सज्जन व्यक्ति अथवा ऋषि मुनि सुरक्षित नहीं था। राक्षसों के भय से हवन आदि पुण्य कार्य समाप्त हो गए'।
'यज्ञ और हवन न होने से धीरे-धीरे देवताओं की शक्ति क्षीण होने लगी। यह सब देखकर सभी देवता चिंतित थे। उन्हें इस बात का भलीभांति ज्ञान था कि यदि यज्ञ और हवन जैसे पुनीत कार्यों में बाधाएं आती रही तो शीघ्र ही वे निर्बल हो जाएंगे और इसका लाभ उठाकर राक्षस उनपर आक्रमण कर देंगे। धरती पर बढ़ते अत्याचार और अपराध से क्षुब्ध देवता सहायता के लिए जगत के पालनहार श्री हरी विष्णु के पास बैकुंठ पधारते हैं।'
'देवताओं की पीड़ा और राक्षसों के आतंक को समाप्त करने के लिए स्वयं श्री विष्णु उनके साथ राक्षसों से युद्ध करने पहुँच जाते है। दोनों ओर से भीषण संग्राम छिड़ जाता है। धीरे-धीरे श्री हरी के बाणों से असुरों की सेना घटने लगी। असुर जानते थे की जब तक श्री विष्णु रणभूमि में होंगे उनका विजयी होना असंभव है। विष्णुजी के सुदर्शन चक्र से बचने के लिए शेष राक्षस युद्ध का क्षेत्र छोड़ कर भागने लगे। असुरों को भागता देख देवता उनका पीछा करते हैं।'
'अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए सभी असुर महर्षि भृगु के आश्रम में प्रवेश कर जाते हैं। उस समय भृगु ऋषि अपने पुत्र शुक्र के साथ आश्रम से बाहर गए हुए थे। आश्रम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति थी। असुरों को आश्रम में प्रवेश करता देख भृगु पत्नी ने उन्हें वही रुकने को कहा। ऋषि पत्नी को लगा कि कदाचित असुर आश्रम पर आक्रमण करने आये हैं। इससे पहले वह कुछ करती सभी राक्षस उनके चरणों में गिर पड़े और देवताओं से अपने प्राणों को बचाने की भिक्षा माँगने लगे।'
'असुरों को निर्बल और शरणागत जान कर देवी ख्याति ने उन्हें सहायता का वचन दिया तथा आश्रम के किसी कुटिया में छिपने को कहा। देवता असुरों का पीछा करते हुए उस आश्रम में पधारते हैं। देवताओं ने देवी ख्याति को प्रणाम किया और उनसे असुरों को उन्हें सौंप देने की प्रार्थना की। किन्तु देवी ख्याति ने शरणागत की दुहाई देकर देवताओं की प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया। जब देवता हठ करने लगे तो ख्याति ने उन सभी को श्राप देने का भय दिखाया। तब देवता विवश होकर वहां से चले गए। असफल देवता श्री हरी से याचना करते हैं।'
देवताओं की विनती स्वीकार करते हुए श्री विष्णु भृगु के आश्रम में आते हैं। अपने सामने पुरुषोत्तम परमात्मा को देखकर ख्याति बहुत ही प्रसन्न थी। ख्याति ने कहा - प्रभु आपके दर्शन पाकर आज मेरा जन्म सफल हो गया। तब प्रभु अतिविनम्र भाव से बोले - हे देवी! जिन असुरों को आपने शरण दी है वही असुर ऋषि मुनियों और सिद्ध पुरुषों को मारते हैं। इनके अत्याचार को देखकर ही हमने देवताओं के साथ इनसे युद्ध किया और अब यह अपने प्राणों की रक्षा के लिए तुम्हारे यहाँ आकर छिपे बैठे हैं। इन पापियों का नाश सृष्टि के कल्याण के लिए अत्यन्तावश्यक है।
ख्याति ने प्रभु को शीश नवाकर कहा - हे दीनानाथ! इस समय ये सभी मेरी शरण में आये हैं और मैंने इनकी रक्षा का वचन दे दिया है। शरणागत की रक्षा करना हर प्राणी का परम धर्म है फिर चाहे वह हमारा शत्रु ही क्यों न हो। प्रभु ने ख्याति के हठ को भांप लिया था। उन्होंने ऋषि पत्नी को चेतावनी दी की अगर उसने असुरों को नहीं छोड़ा तो उसे भी अपने प्राण गवाने होंगे क्योंकि सृष्टि के हित के लिए उनका ऐसा करना सही होगा।
ख्याति अपने वचन से हटने को तैयार नहीं थी। इस पर प्रभु ने कहा - यदि तुम यहीं चाहती हो तो यहीं सही तुम अपने धर्म का पालन करो और मैं अपने धर्म का पालन करता हूँ। इसके बाद प्रभु अपने सुदर्शन चक्र से ख्याति सहित सभी असुरों का शीश काट देते हैं।
'इस घटना के कुछ समय उपरांत महर्षि भृगु अपने पुत्र शुक्र के साथ आश्रम पहुंचे। वहां का दृश्य देखकर उनके पाँव तले मानो जैसे धरती खिसक जाती है। अपनी पत्नी के कटे शव को देखकर महर्षि भृगु घोर विलाप करते हैं। उनका पुत्र शुक्र भी शोक मग्न हो जाता है। आश्रम में उपस्थित शिष्यगण पूरा हाल बताते हैं।'
महर्षि भृगु पत्नी शोक में अपने क्रोध पर नियंत्रण नहीं रख पाए और हाथ में जल लेकर आकाश की ओर फेंकते हैं तथा श्री विष्णु को श्राप देते हैं - प्रभु! जिस प्रकार आपने मुझे पत्नी वियोग में तड़पाया है उसी प्रकार आप भी धरती पर मानव बनकर अपनी पत्नी के वियोग में तड़पेंगे। भृगु द्वारा श्राप मिलने पर श्री विष्णु उन्हें दर्शन देते हैं।
भगवान के दर्शन पाकर महर्षि भृगु का मोह जाल हट गया ओर उन्होंने प्रभु से क्षमा मांगी। क्योंकि भृगु एक ब्रह्मर्षि थे ओर उन्हें प्रभु लीला का ज्ञान था। प्रभु ने भृगु ऋषि से कहा - हे ब्रह्मर्षि यद्यपि मुझे संसार का कोई शाप नहीं लगता फिर भी तुम्हारे तप का मान रखने ओर सृष्टि के कल्याण के लिए मैं इसे सहर्ष स्वीकार करता हूँ तथा प्रभु अंतर्ध्यान हो जाते हैं। महर्षि भृगु अपने तपोबल से अपनी पत्नी का शीश पुनः जोड़ देते हैं।'
अपनी माता को पुनर्जीवित देखकर शुक्र अत्यंत प्रसन्न होता है। शुक्र ने कहा - हे पिताश्री! भले ही आपने श्री विष्णु को क्षमा कर दिया किन्तु मैं उनके द्वारा किये इस कुकृत्य को सर्वदा स्मरण रखूँगा। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ की आज के उपरांत श्री हरी का शत्रु मेरा मित्र होगा। मैं सर्वदा राक्षसों के कल्याणार्थ ही कार्य करूँगा। इस प्रतिज्ञा के बाद महर्षि भृगु के पुत्र को शुक्राचार्य कहा जाने लगा जो नक्षत्र मंडल में घूमने वाले नवग्रहों में से एक माने जाते हैं तथा ये असुरों के गुरु बनकर उनके लिए ही कार्य करते हैं।
इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-२(2) समाप्त !
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