अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनंदन! अब मैं आपको वीर बजरंगबली के जन्म से जुड़ी रोचक घटनाएं कहता हूँ। जिस समय सागर मंथन हुआ तब अन्य अप्सराओं की भाँति एक ओर अप्सरा का प्रादुर्भाव हुआ। उसका नाम पुंजिकस्थला था। पुंजिकस्थला अत्यंत सुशील और सौंदर्य से परिपूर्ण तथा नृत्य कौशल में पारंगत थी। देवराज इन्द्र के स्वर्ग में मेनका, रम्भा, उर्वशी आदि की तरह उसका स्थान भी सम्माननीय था। जब कभी इंद्र की सभा में नृत्य का आयोजन होता तो स्वयं देवराज उसके कौशल की भरपूर प्रशंसा किया करते। इसी दौरान पवन देव और पुंजिकस्थला के मध्य प्रेम बढ़ता गया।
'दोनों के प्रेम की जानकारी देवराज इंद्र को पता चल गयी। किन्तु वह इस समाचार से क्रोधित नहीं हुए तथा उनके प्रेम को स्वीकार करते हुए उन्हें स्वतंत्र विचरण की आज्ञा प्रदान की। तदनन्तर इंद्रदेव की आज्ञा मिलने पर पवन देव और पुंजिकस्थला आकाश भ्रमण को निकल पड़े। दोनों का मन बड़ा ही प्रसन्न था। नभ विचरण के दौरान उन दोनों की दृष्टि पृथ्वी लोक के अत्यंत सुन्दर और मोहक स्थान पर पड़ी। वहां का वातावरण चहूँ ओर से आनंदित करने वाला था। कावेरी नदी के तट पर स्थित वह समस्त प्राकृतिक सौंदर्य का साक्षी था। तभी पुंजिकस्थला ने उस स्थान पर चलने की कामना प्रकट की।'
'पुंजिकस्थला के प्रेम से पूर्ण आग्रह को देखकर पवन देव उसके साथ उस स्थान पर पहुंचे। वहां पहुंचकर दोनों ने भ्रमण करना प्रारम्भ किया। इसके पश्चात वे दोनों कावेरी नदी के निर्मल जल का आनंद लेने हेतु वहां क्रीड़ा करने लगे तथा एक दूसरे पर जल की वर्षा करते हुए बालकों की भांति उत्साहित थे। उसी नदी के दूसरे तट पर मातंग मुनि प्रातः सूर्य वंदना में लीन थे। अधिक उत्साह से भरे दोनों को इस बात का कोई आभास नहीं था की उनके द्वारा फेंकी जाने वाली जल की बूंदें मातंग मुनि की उपासना में विघ्न डाल रही थी।'
'मातंग मुनि उनकी क्रीड़ा से अपनी उपासना में ध्यान नहीं लगा पा रहे थे। वे अत्यंत तेजस्वी ओर महान तपस्वी थे अतः कुछ क्षण सहन करने के पश्चात उन्होंने अपने तपोबल से सब कुछ जान लिया। मुनि तट के उस ओर पहुंचे जहाँ पवन देव और पुंजिकस्थला अपने ही कार्य में मग्न थे।'
उन्हें ऐसी स्थिति में देख मातंग मुनि बोले - मैंने अपने तपोबल से तुम दोनों का परिचय जान लिया है। तुम्हारे यहाँ क्रीड़ा करने से मैं और मेरे शिष्यों की उपासना में विघ्न हो रहा है। अतः हे पवन देव आप पुंजिकस्थला को लेकर किसी दूसरे स्थान पर चले जाएँ। वैसे भी यह स्थान हम ऋषियों की उपासना आदि के लिए आरक्षित है। इस नाते आपको यह स्थान तुरंत रिक्त कर देना चाहिए।
मातंग मुनि की बाते सुनकर होनहारवश पुंजिकस्थला की मतिभ्रम हो गयी और वह मुनि का अपमान करते हुए बोली - मुनिवर ! जिस स्थान को आप अपने लिए आरक्षित बता रहे हैं, वास्तविकता में उस पर आपने अपना अधिकार कर लिया है। ऐसा सुन्दर और अत्यंत रोमांचकारी स्थान किसी एक प्राणी के लिए नहीं वरन सभी के लिए समान प्रकार से उपयोगी है। आप आयु, अनुभव और सभी प्रकार से हम-से बड़े हैं अतः आप हमे यहाँ से चले जाने के लिए नहीं कहे अपितु आपको ही यहाँ से किसी दूसरे स्थान पर चला जाना चाहिए। वैसे भी मेरे साथ पवन देव हैं जिनका स्थान समस्त भू-लोक में है उन्हें आप कैसे चले जाने को कह सकते हैं। जान पड़ता है की अधिक आयु के कारण आपकी मति भोली हो गयी है तभी आप ऐसी अनुचित बाते बोल रहे हैं।
'पुंजिकस्थला की बातों से मुनि को अत्यंत निराशा हुई। फिर भी उन्होंने अपने संयम को बनाये रखा और अप्सरा को बार-बार समझाने का प्रयास किया। पवन देव एक ओर मौन बनकर खड़े थे तथा पुंजिकस्थला को रोकने का उन्होंने कोई प्रयास नहीं किया। अंततः महर्षि का संयम डोल गया। जिस प्रकार पत्थर के टुकड़ों को बार-बार घिसने पर चिंगारी निकल कर अग्नि में परिवर्तित हो जाता है, उसी तरह मुनि को भी क्रोध आ गया।'
होनहारवश उन्होंने पुंजिकस्थला को शाप देते हुए कहा - मूढ़! अप्सरा तू अपने रूप और सौंदर्य के मद में चूर होकर हम ऋषियों का अपमान कर रही है और निर्लज्ज होकर इस पवित्र स्थान पर एक बंदरिया की भांति उछल-कूद कर रही है। अतः यदि मैंने तुझे दंड नहीं दिया तो यह मेरे तप का नाश होने जैसा कृत्य होगा। इसलिए मैं तुझे शाप देता हूँ की तू इसी क्षण वानरी बन जाए। तेरा सम्पूर्ण रूप क्षीण हो जाए।
मुनि के शाप देते ही पुंजिकस्थला का शरीर एक वानरी में परिवर्तित हो गया। जिसे देखकर पवन देव घबरा गए और उन्होंने ऋषि मातंग के चरण पकड़ उनसे क्षमा याचना की। तब मातंग मुनि द्रवित हो गए तथा उन्होंने पवन देव से कहा - हे वायु देव ! यदि आपने अपना मुख पहले ही खोल लिया होता तो कदाचित इसे यह शाप नहीं मिलता। हम ऋषि किसी भी प्राणी को तभी शाप देते हैं जब हमारे पास इसके अतिरिक्त कोई मार्ग शेष नहीं बचता। जो होता है वह विधाता की इच्छा से होता है। मैं अपना शाप लौटा नहीं सकता किन्तु इसकी मुक्ति का उपाय बतलाता हूँ। भगवान शिव की उपासना करने से पुंजिकस्थला का कल्याण अवश्य ही होगा। भक्तवत्सल भोलेनाथ ही अब इसकी मुक्ति का कोई उपाय इसे बताएंगे।
'इस प्रकार मुनि मातंग अपने शिष्यों सहित वहां से अपने आश्रम की ओर लौट जाते हैं। अपनी प्रियतमा पुंजिकस्थला को वानरी रूप में देखकर पवन देव बहुत दुखी थे। उन्होंने पुंजिकस्थला को वन में विल्व वृक्ष के निचे निर्मित एक शिवलिंग के पास छोड़ दिया और भारीमन से पुंजिकस्थला से क्षमा माँगते हुए वे स्वर्ग लोक की ओर चल पड़े। देवराज इंद्र को जब इस पूरे घटनाक्रम का ज्ञान हुआ तो उन्होंने पवन देव को इसका दोषी मानते हुए उन्हें स्वर्ग से निष्कासित कर दिया।'
इति श्रीमद् राम कथा श्रीहनुमान चरित्र अध्याय-४ का भाग-२(2) समाप्त !
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