भाग-२९(29) माल्यवान का युद्ध और पराजय तथा सुमाली आदि सब राक्षसों का रसातल में प्रवेश

 

अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन ! पद्मनाभ भगवान् विष्णु ने जब भागती हुई राक्षसों की सेना को पीछे की ओर से मारना आरम्भ किया, तब माल्यवान् लौट पड़ा, मानो महासागर अपनी तटभूमि तक जाकर निवृत्त हो गया हो। 

उसके नेत्र क्रोध से लाल हो रहे थे और मुकुट हिल रहा था। उस निशाचर ने पुरुषोत्तम भगवान् पद्मनाभ से इस प्रकार कहा - नारायण देव ! जान पड़ता है पुरातन क्षत्रिय धर्म को बिलकुल नहीं जानते हो, तभी तो साधारण मनुष्य की भाँति तुम जिनका मन युद्ध से विरत हो गया है तथा जो डरकर भागे जा रहे हैं, ऐसे हम राक्षसों को भी मार रहे हो। सुरेश्वर! जो युद्ध से विमुख हुए सैनिकों के वध का पाप करता है, वह घातक इस शरीर का त्याग करके परलोक में जानेपर पुण्यकर्मा पुरुषों को मिलने वाले स्वर्ग को नहीं पाता है। शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले देवता! यदि तुम्हारे हृदय में युद्ध का हौसला है तो मैं खड़ा हूँ। देखता हूँ, तुममें कितना बल है? दिखाओ अपना पराक्रम। 

माल्यवान पर्वत के समान अविचल भाव से खड़े हुए राक्षस राज माल्यवान को देखकर महाबली भगवान् विष्णु ने उससे कहा - देवताओं को तुम लोगों से बड़ा भय उपस्थित हुआ है, मैंने राक्षसों के संहार की प्रतिज्ञा करके उन्हें अभय दान दिया है; अत: इस रूप में मेरे द्वारा उस प्रतिज्ञा का ही पालन किया जा रहा है। मुझे अपने प्राण देकर भी सदा ही देवताओं का प्रिय कार्य करना है; इसलिये तुमलोग भागकर रसातल में चले जाओ तो भी मैं तुम्हारा वध किये बिना नहीं रहूँगा। 

'लाल कमलके समान नेत्रवाले देवाधिदेव भगवान् विष्णु जब इस प्रकार कह रहे थे, उस समय अत्यन्त कुपित हुए राक्षस राज माल्यवान ने अपनी शक्ति के द्वारा प्रहार करके भगवान् विष्णु का वक्ष:स्थल विदीर्ण कर दिया। माल्यवान के हाथ से छूटकर घंटानाद करती हुई वह शक्ति श्रीहरी की छाती से जा लगी और मेघ के अङ्क में प्रकाशित होने वाली बिजली के समान शोभा पाने लगी।' 

'शक्तिधारी कार्तिकेय जिन्हें प्रिय हैं अथवा जो शक्तिधर स्कन्द के प्रियतम हैं, उन भगवान् कमलनयन विष्णु ने उसी शक्ति को अपनी छाती से खींचकर माल्यवान पर दे मारा। स्कन्द की छोड़ी हुई शक्ति के समान गोविन्द के हाथ से निकली हुई वह शक्ति उस राक्षस को लक्ष्य करके चली, मानो अञ्जनगिरि पर कोई बड़ी भारी उल्का गिर रही हो। हारों के समूह प्रकाशित होनेवाले उस राक्षसराज के विशाल वक्ष:स्थल पर वह शक्ति गिरी, मानो किसी पर्वत के शिखर पर वज्रपात हुआ हो।' 

'उससे माल्यवान का कवच कट गया तथा वह गहरी मूर्च्छा में डूब गया; किंतु थोड़ी ही देर में पुन: सँभलकर माल्यवान पर्वत की भाँति अविचल भावसे खड़ा हो गया। तत्पश्चात् उसने काले लोहे के बने हुए और बहुसंख्यक काँटों से जड़े हुए शूल को हाथ में लेकर भगवान की छाती में गहरा आघात किया। इसी प्रकार वह युद्धप्रेमी राक्षस भगवान् विष्णु को मुक्के से मारकर एक धनुष पीछे हट गया।' 

उस समय आकाश में राक्षसों का महान् हर्षनाद गूँज उठा - वे एक साथ बोल उठे - 'बहुत अच्छा, बहुत अच्छा'। भगवान् विष्णु को घूँसा मारकर उस राक्षस ने गरुड़ पर भी प्रहार किया। 

'यह देख विनतानन्दन गरुड़ कुपित हो उठे और उन्होंने अपने पंखों की हवा से उस राक्षस को उसी तरह उड़ा दिया, जैसे प्रबल आँधी सूखे पत्तों के ढेर को उड़ा देती है। अपने बड़े भाई को पक्षिराज के पंखों की हवा से उड़ा हुआ देख सुमाली अपने सैनिकों के साथ लङ्का की ओर चल दिया। 

गरुड़ के पंखों की हवा के बल से उड़ा हुआ राक्षस माल्यवान् भी लज्जित होकर अपनी सेना से जा मिला और लङ्का की ओर चला गया।' 

'कमलनयन श्रीराम! इस प्रकार उन राक्षसों का भगवान् विष्णु के साथ अनेक बार युद्ध हुआ और प्रत्येक संग्राम में प्रधान- प्रधान नायकों के मारे जाने पर उन सबको भागना पड़ा। वे किसी प्रकार भगवान् विष्णु का सामना नहीं कर सके। सदा ही उनके बल से पीड़ित होते रहे। अतः समस्त निशाचर लङ्का छोड़कर अपनी स्त्रियों के साथ पाताल में रहने के लिये चले गये।' 

'रघुश्रेष्ठ! वे विख्यात पराक्रमी निशाचर सालकंटकवंश में विद्यमान राक्षस सुमाली का आश्रय लेकर रहने लगे। श्रीराम ! आपने पुलस्त्य वंश के जिन-जिन राक्षसों का विनाश किया है, उनकी अपेक्षा प्राचीन राक्षसों का पराक्रम अधिक था। सुमाली, माल्यवान् और माली तथा उनके आगे चलनेवाले योद्धा - ये सभी महाभाग निशाचर रावण से बढ़कर बलवान् थे। देवताओं के लिये कण्टक रूप उन देवद्रोही राक्षसों का वध शङ्ख, चक्र, गदाधारी भगवान् नारायण देव के सिवा दूसरा कोई नहीं कर सकता।' 

'आप चार भुजाधारी सनातन देव भगवान् नारायण ही हैं। आपको कोई परास्त नहीं कर सकता। आप अविनाशी प्रभु हैं और राक्षसों का वध करने के लिये इस लोक में अवतीर्ण हुए हैं। आप ही इन प्रजाओं के स्रष्टा हैं और शरणागतों पर दया रखते हैं। जब-जब धर्म की व्यवस्था को नष्ट करने वाले दस्यु (आतंकी, डाकू या लुटेरे) पैदा हो जाते हैं, तब-तब उन दस्युओं का वध करने के लिये आप समय-समय पर अवतार लेते रहते हैं। नरेश्वर! इस प्रकार मैंने आपको राक्षसों की उत्पत्ति का यह पूरा प्रसंग ठीक-ठीक सुना दिया।' 

'रघुवंशशिरोमणे! अब आप रावण तथा उसके पुत्रों के जन्म और अनुपम प्रभाव का सारा वर्णन सुनिये। भगवान् विष्णु के भय से पीड़ित होकर राक्षस सुमाली सुदीर्घ काल तक अपने पुत्र-पौत्रोंके साथ रसातल में विचरता रहा। इसी बीच में धनाध्यक्ष कुबेर ने लङ्का को अपना निवास स्थान बनाया। जिसका वर्णन मैं पूर्व में आपसे कर चूका हूँ। 

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-२९(29) समाप्त !

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