भाग-२९(29) विश्वामित्र के कहने पर राजा हरिश्चंद्र का राज्य त्याग

 


सूतजी कहते हैं - एक बार स्वर्गलोक पर देवराज इंद्र ने सभी ब्रह्मर्षियों तथा देवताओं के साथ मिलकर एक सभा का आयोजन किया। देवराज इन्द्र ने सभी को सम्बोधित करते हुए कहा की उन्होंने यह सभा भू-लोक तथा स्वर्गलोक की समस्याओं के निवारण के लिए बुलाई है। तब ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने पूछा क्या इसमें भू-लोक की मुख्य समस्याओं पर भी चर्चा होगी? तब देवराज ने सहमति में अपना सिर हिलाया। 

यह सुनकर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने हस्तक्षेप करते हुए कहा - फिर तो इस सभा में महर्षि विश्वामित्र का होना अत्यावश्यक है क्योंकि उनके महर्षि से ब्रह्मर्षि बनने में अब कुछ ही समय शेष रह गया है। वे तपोबल की सभी सीमाओं को पार कर चुके हैं इसलिए ऐसी महान विभूति को इस सभा में आना ही चाहिए। 

'अपितु देवराज विश्वामित्र को वहां नहीं देखना चाहते थे किन्तु ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के निवेदन के सामने उन्हें झुकना पड़ा। तब सभा में उपस्थित देवर्षि नारद को इन्द्र ने दूत बनाकर भेजा। नारदजी निमंत्रण लेकर विश्वामित्र के पास पधारे। उन्होंने विश्वामित्र को बताया की वे ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के अनुरोध पर उनको  सभा में बुलाने आये हैं।' 

नारदजी द्वारा सब कुछ जान लेने के पश्चात महर्षि विश्वामित्र ने कहा - यदि आपके स्थान पर कोई ओर यहाँ आया होता तो मैं उसका निमंत्रण कभी स्वीकार नहीं करता क्योंकि इसमें वशिष्ठ की इच्छा है और उनकी इच्छा का सम्मान करना मेरे लिए कभी आवश्यक नहीं था। विश्वामित्र जी स्वर्गलोक की सभा में उपस्थित होते हैं। शिष्टाचार वश वे ब्रह्मर्षि वशिष्ठ को प्रणाम करते हैं। इस पर  वशिष्ठ जी ने उन्हें ब्रह्मर्षि होने का आशीर्वाद दिया। यह सुनते ही विश्वामित्र झल्लाकर बोले - मुझे ब्रह्मर्षि बनने के लिए आपके आशीर्वाद की कोई आवश्यकता नहीं है मैं अपने तपोबल से ब्रह्मर्षि बन सकता हूँ।  

सभा आरम्भ होती है। इंद्र ने अपना एक समस्यात्मक प्रश्न सभी से किया - ऐसा क्या है जिसका मूल्यांकन कर पाना बहुत कठिन हो तथा वह बहुमूल्य भी हो? देवराज के इस प्रश्न का उत्तर सभी ने अलग ही दिया किसी ने कहा न्याय, किसी ने आनंद, किसी ने धर्म, तो किसी ने भक्ति। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ को मौन देखकर नारदजी ने इसका कारण पूछा। 

तभी ब्रह्मर्षि ने अपना उत्तर दिया - मेरी दृष्टि में सत्य से बहुमूल्य कुछ भी नहीं। जहाँ सत्य है वहां सभी पुण्य अपने-आप चले आते हैं तथा जो इस पर अडिग हो वही सबसे महान प्राणी होता है। विश्वामित्र, वशिष्ठ का विरोध करते हैं तथा उनसे इसका प्रमाण माँगते हैं। इस पर वशिष्ठ जी ने महाराज सत्यव्रत (त्रिशंकु) के पुत्र अयोध्या नरेश राजा हरिश्चंद्र को सत्य का पालन करने वाला बताया। उनकी दृष्टि में वे अपने सत्य धर्म का पालन करने के लिए अपने समस्त सुखों का त्याग कर सकते हैं। उनके लिए स्वयं के प्राणों का भी कोई मूल्य नहीं। 

तब विश्वामित्र जी ने अवसर जाना की यह उचित अवसर है वशिष्ठ के अभिमान को चूर करने और अपने प्रतिशोध लेने का। विश्वामित्र बोले - मैं यह सिद्ध कर सकता हूँ की कोई भी मनुष्य किसी न किसी परिस्थिति में असत्य का सहारा अवश्य ही लेता है चाहे वह राजा हरिश्चंद्र ही क्यों न हो? वशिष्ठ जी विश्वामित्र को चुनौती देकर कहते हैं - असंभव! यदि आप राजा हरिश्चंद्र को सत्य वचन से डिगा पाए तो मैं आपके ब्रह्मर्षि बनने के सभी साधन जुटा दूंगा और अपना समस्त तपोबल भी आपको समर्पित कर दूंगा। विश्वामित्र चुनौती स्वीकार करते हैं। देवराज इंद्र ने सभा को तब तक के लिए स्थगित कर दिया जब तक महर्षि विश्वामित्र राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा लेंगे। 

राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा लेने के लिए महर्षि विश्वामित्र राजा हरिश्चंद्र के दरबार में पहुँच जाते हैं। विश्वामित्र को दरबार में देखकर हरिश्चंद्र उनका अभिनन्दन करते हैं तथा उन्हें बैठने के लिए अपने निकट का आसन देते हैं। राजा हरिश्चंद्र ने बड़े ही विनम्र भाव से उनके आने का कारण पूछा। तब महर्षि ने कहा - हे राजन! हम एक यज्ञ करना चाहते हैं जिसके लिए हमे कुछ धन की आवश्यकता होगी क्या आप मुझे धन देने की कृपा करेंगे? 

राजा हरिश्चंद्र बोले - यह तो मेरा बहुत बड़ा सौभाग्य है की आपने मुझसे कुछ माँगा। वैसे भी आपका हम पर बहुत बड़ा उपकार है। आपने मेरे पिताश्री की इच्छापूर्ति के लिए उन्हें स-शरीर स्वर्ग भेजने हेतु अपना सम्पूर्ण तपोबल दाव पर लगा दिया था। उसके आगे तो यह धन कुछ भी नहीं। बताइये ऋषिश्रेष्ठ आपको कितना धन चाहिए। 

राजा की विनम्रता की प्रशंसा करते हुए विश्वामित्र जी ने कहा - कोई बलवान हाथी पर चढ़कर एक रत्न जितनी ऊंचाई तक आकाश की और फ़ेंक सके उतना। विश्वामित्र जी की इस अजीब शर्त को सुनकर राजा मुस्कुराते हैं और उन्हें उनकी इच्छानुसार धन देने का वचन देते हैं। तब विश्वामित्र बोले की अभी उन्हें इस धन की आवश्यकता नहीं हैं क्योंकि यज्ञ करने में अभी समय शेष है। यह धन धरोहर स्वरुप आपके राजकोष में सुरक्षित रखिये जब इसकी आवश्यकता होगी मैं ले जाऊंगा। 

'अब विश्वामित्र अपनी दूसरी चाल चलते हैं वह अपने तपोबल से बाघ, भालू, और दो चौर प्रकट करते हैं तथा उन्हें अयोध्या की सिमा पर आतंक फैलाने के लिए छोड़ देते हैं। दोनों चौर नगर में खूब चौरियाँ करते हैं। वहीँ पर बाघ और भालू नगर के प्राणियों को अपना आहार बनाने लग जाते हैं। आतंक से भयभीत प्रजा अपने राजा से गुहार लगाती है। तब राजा हरिश्चंद्र अपने सैनिकों सहित बाघ, भालू, और चौरों को पकड़ने के किये निकल पड़ते हैं। राजा को आता देख बाघ, भालू , और चौर लुप्त हो जाते है।' 

अब बारी थी अपनी तीसरी योजना को पूर्ण करने की इस हेतु विश्वामित्र दो मातंगी कन्याओं (मोहित करने वाली देवियां) की रचना करते हैं और उन्हें आदेश देते हैं की वह वन में ठहरे राजा को अपनी काम वासना के जाल में फंसाकर उससे विवाह करे। महर्षि की आज्ञा से दोनों कन्याएं राजा से अपने नृत्य कौशल का प्रदर्शन करने की आज्ञा मांगती हैं। राजा की आज्ञा पाकर दोनों कन्याएं अपने कामुक नृत्य का प्रदर्शन करती हैं। यह देख राजा उनसे कहते हैं - तुम दोनों के नृत्य में कौशल कम और कामुकता ज्यादा है। यह नृत्य का अपमान है हमे तुम्हारा नृत्य पसंद नहीं आया। अपना पारितोषिक लो और यहाँ से चली जाओ। 

राजा द्वारा दिया गया पारितोषिक दोनों कन्याएं अस्वीकार कर देती हैं। तब राजा कहते हैं की तुम्हे कुछ तो यहाँ से ले जाना होगा। अतः मांगो क्या चाहती हो। तब दोनों कन्याएं उनसे विवाह करने की कामना करती हैं। राजा ने कहा - 'यह असंभव है मैं एक पत्नीव्रत धर्म का पालन करता हूँ।' तब कन्याएं कहती हैं यदि आप विवाह नहीं करना चाहते तो मत कीजिए। इसके बदले आप हमारा एक रात्रि के लिए भोग कर लीजिए। 

राजा यह सुनकर क्रोधित हो जाते हैं और उन्हें वहां तुरंत जाने को कहते हैं। तब वे उनसे पूछते हैं की ऐसी कामुक इच्छा रखने वाली तुम कहाँ से आई हो तुम किस वंश की हो। तब वे कहती हैं की महर्षि विश्वामित्र हमारे पिता हैं उन्होंने ही हमारी रचना की है। दोनों कन्याएं वह से चली जाती हैं किन्तु विश्वामित्र का बताया पास फ़ेंक जाती हैं। राजा सोच में पड़ जाते हैं की ऐसी कन्याओं का जन्म आखिर विश्वामित्र ने क्यों किया। 

अगले दिन विश्वामित्र क्रोध से भरे राजा के दरबार में पधारे - हरिश्चंद्र! तुमने मेरी पुत्रियों का तिरस्कार किया है। उन्होंने सिर्फ तुमसे विवाह की मांग की थी किन्तु तुम्हारा ये दुस्साहस तुमने उन्हें यह जानते हुए भी इंकार किया की वे दोनों उस विश्वामित्र की पुत्री है जो स्वयं एक क्षत्रिय राजा रह चूका है।विश्वामित्र का क्रोध अभी शांत नहीं हुआ था उन्होंने आगे कहा - कदाचित तुमने सोचा होगा की वो तुम्हारी जाती या समुदाय से नहीं इसलिए तुमने ऐसा किया। 

हरिश्चंद्र ने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया - मैं आपका अपमान नहीं कर रहा हूँ ऋषिवर! आप तो जानते हैं मैं विवाहित हूँ और मुझे एक पुत्र भी है ऐसी अवस्था में मैं एक ओर विवाह कैसे कर सकता हूँ। मैंने एक पत्नीव्रत का संकल्प लिया है ओर मैं उसे सर्वदा निभाउंगा। आप ही बताइए इसमें मेरा दोष कहाँ है? 

विश्वामित्र बोले - राजा तो केवल भोग के लिए ही जीते आए हैं। इससे पहले भी कई राजाओं ओर देवताओं के एक से अधिक रानियां हुई हैं। मैंने भी स्वयं विवाहित होकर भी मेनका से विवाह किया तो क्या मैं तुम्हारी दृष्टि में गलत हो गया। तब राजा बोले = यह सबकी अपनी स्वतंत्रता है की वो क्या करता है किन्तु मैं अपनी पत्नी को वचन दे चूका हूँ। इस जन्म में मेरा दूसरा विवाह किसी परिस्थिति में संभव नहीं। यदि अपने इस वचन के लिए मुझे अपना सर्वस्व त्यागना पड़े तो मैं पीछे नहीं हटूंगा। 

विश्वामित्र मन ही मन मुस्कुराये क्योंकि वह हरिश्चंद्र को अपनी योजना के जाल में फंसा चुके थे। उनका उद्देश्य मातंगी कन्याओं से हरिश्चंद्र का विवाह करवाना नहीं अपितु उनसे राज्य त्याग का वचन दिलवाना था। विश्वामित्र ने अपनी चाल चली यदि - तुम अपने आपको इतना ही सत्यव्रत का पालन करने वाला मानते हो तो फिर या तो मेरी कन्याओं से विवाह करो अथवा अपने कहे अनुसार ये राज्य त्याग दो। हरिश्चंद्र ने अपने वचन का पालन किया ओर उन्होंने राज्य त्याग का निर्णय कर लिया। सारी प्रजा अपने राजा को ऐसा करने से रोकती है तथा विश्वामित्र को षडयंत्रकारी बताती है। 

अपने ऊपर प्रजा का क्रोध देखकर विश्वामित्र बोले - हरिश्चंद्र अपनी प्रजा को समझाओ अब यह राज्य मेरा है। इस पर मेरा शासन चलेगा। इन्हे मेरे अनुसार ही चलना होगा। अपना राज्य खो चुके हरिश्चंद्र ने अपनी प्रजा से महर्षि विश्वामित्र को अपना राजा मानने की विनती की। महर्षि बोले - यदि तुम इसी राज्य में रहे तो सारी प्रजा मेरे विरुद्ध आचरण करेगी अतः तुम्हे यह राज्य भी छोड़ना होगा। अपने शरीर पर लगे ये आभूषण यहीं उतारकर जाना होगा क्योंकि यह सब अब मेरा है। हरिश्चंद्र, अपनी पत्नी तारामती तथा पुत्र रोहित सहित अपने मूल्यवान आभूषण वहीँ त्याग कर जाने लगते हैं। 

तभी विश्वामित्र उन्हें रोकते हैं - यह क्या हरिश्चंद्र तुम तो अपने आपको सत्यवादी मानते हो फिर मुझे दिया वचन तोड़ कर क्यों जा रहे हो। राजा ने पूछा - मैंने आपको दिया कौनसा वचन तोडा है ? तब विश्वामित्र बोले इतने भोले मत बनो राजा तुमने मुझे धन देने का वचन दिया था जो मैंने धरोहर स्वरुप तुम्हारे पास छोड़ रखा था। उस धन को मुझे सौंप दो फिर यहाँ से जाना। राजा बोले - अब मैं आपको धन कहाँ से दू मेरा जो कुछ भी है वो मैंने आपको समर्पित कर दिया है। 

विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र से कहा - नहीं हरिश्चंद्र ये धन मेरा है। यदि ये धन तुमने मुझे राज्य त्यागने से पहले दिया होता तो बात कुछ नहीं थी किन्तु अब तुन्हे धन अपनी तरफ से देना होगा। हरिश्चंद्र समझ गए महर्षि उनके सत्य वचन की कठोर परीक्षा ले रहे हैं। विधाता की शायद यही इच्छा है। उन्होंने विश्वामित्र से ऋण चुकाने के लिए एक माह का समय माँगा। तब महर्षि ने हरिश्चंद्र को एक मास का समय प्रदान कर दिया। इस तरह अयोध्या के सत्यवादी, धर्मपरायण राजा अपना सबकुछ त्याग कर अपनी पत्नी ओर पुत्र सहित राज्य की सीमा से बाहर किसी दूसरे नगर की ओर चल पड़े। 

इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-२९(29) समाप्त !

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