सूतजी कहते हैं - वन में भटकते हुए जब शकुंतला मूर्छित हो गई तो उसकी सहायता हेतु उसकी माता मेनका वहां पहुँच गयी। मेनका अपनी पुत्री की दुर्दशा देखकर अपने आप को इसका उत्तरदायी मान रही थी। उसने किसी प्रकार शकुंतला की मूर्छा भंग की। अपने सामने एक स्त्री को देखकर शकुंतला ने उससे परिचय पूछा। मेनका ने बिना किसी संकोच के उसे सब बता दिया। शकुंतला को पता चल गया की वह उसकी माता है तथा महर्षि विश्वामित्र उसके पिता। सब कुछ समझने के पश्चात शकुंतला ने अपनी माता के आँचल में अपना शीश रख दिया और अपनी व्यथा बतायी।
मेनका ने कहा - पुत्री! मैं जानती हूँ तुम किस पीड़ा से ग्रसित हो शायद यह मेरे ही कर्मों का फल है जो कदाचित शूल बनकर तुम्हे चुभ रहा है। इसके बाद मेनका अपनी पुत्री को महर्षि कश्यप के आश्रम में ले गयी। महर्षि कश्यप ने मेनका का अनुरोध स्वीकार किया और शकुंतला की सुरक्षा का वचन दिया तथा उसके पति से शीघ्र मिलन का आशीर्वाद भी दिया।
;इस तरह महर्षि कश्यप के आश्रम में कुछ माह पश्चात शकुंतला ने एक बालक को जन्म दिया जिसका नाम भरत रखा गया। भरत अत्यंत तेजस्वी और विलक्षण बालक था। वन में रहने से उसने बाघों को अपना मित्र बना लिया। उसका बचपन बाघों के साथ व्यतीत हुआ। महर्षि कश्यप ने उसका तेज देखकर उसे महान प्रतापी शूरवीर राजा होने का वरदान दिया। भरत ने अपने बाल्यकाल में ही धनुर्विद्या का कौशल अर्जित कर लिया। '
'एक बार राजा दुष्यंत के दरबार में उसके सैनिक एक मछुआरे को पकड़ कर लाये। राजा ने मछुआरे का अपराध पूछा तब सैनिकों ने बताया की इसने राजमुद्रिका चुरायी है जिस पर आपका नाम अंकित है। राजा ने मछुआरे से पूछा की उसने मुद्रिका कहाँ से चुरायी।'
मछुआरा भयभीत होकर बोला - महाराज इसमें मेरा कोई दोष नहीं यह मुद्रिका मुझे मछली के पेट से मिली है। मैंने इसे नहीं चुराया। तब राजा ने उसे मुद्रिका दिखाने को कहा। जैसे ही मछुआरे ने राजा को मुद्रिका दिखाई उसी क्षण उन्हें वह सब स्मरण हो आया जो वे भूल गए थे। महर्षि दुर्वासा का श्राप हट चूका था। राजा दुष्यंत शकुंतला को स्मरण कर अपने किये पर पछता रहे थे। किस प्रकार मैंने अपनी पत्नी का मान मर्दन किया और उसे षड़यंत्रकारी भी बताया। राजा ने मछुआरे को दोस मुक्त कर दिया। राजा दुष्यंत अब शकुंतला की खोज में निकल गए। शकुंतला की खोज में उन्हें बहुत समय बिता।'
'एक दिन राजा दुष्यंत वन में बाघ का शिकार करने के लिए बहुत दूर महर्षि कश्यप के आश्रम के समीप आ पहुंचे। उन्होंने वहां बाघ का शिकार करने के लिए अपने धनुष पर बाण का संधान किया। जैसे ही राजा ने बाण छोड़ा वह बाण रास्ते में ही किसी दूसरे बाण द्वारा काट दिया गया। यह देखकर राजा दुष्यंत सोच में पड़ गए उनका बाण लक्ष्य का भेदन करने से पहले किसने काट दिया। तभी उनकी दृष्टि एक बालक पर पड़ी। वह बालक भरत था तथा उन्ही का पुत्र था। किन्तु राजा दुष्यंत इस बात से अनभिज्ञ थे।'
उन्होंने बालक भरत से पूछा की उसका बाण काटने वाला कहाँ है? भरत ने उत्तर दिया - महाराज! वह आपके सामने ही खड़ा है। यदि आपने फिर ऐसी चूक की तो मैं आपको अपने बाणों से बंदी बना लूंगा। यह वन के जीव मेरे मित्र हैं तथा मेरे रहते कोई इन पर घात नहीं लगा सकता। बालक की बाते सुन महाराज हसने लगे क्योंकि उन्हें लग रहा था की वह बालक बुद्धि के कारण ऐसा बोल रहा है। राजा ने उसकी बातों को हंसी ठिठोली समझा और बालक से उसका नाम पूछा? भरत ने अपना उपहास होते देख राजा पर शक्ति बाण छोड़ा और राजा वही वृक्ष से सटाकर बंदी हो गए।
एक बालक की ऐसी वीरता देखकर राजा उस पर मोहित हो गए तथा उसकी प्रसंशा करने लगे। राजा ने कहा - धन्य है तुम्हारे माता पिता जिसने ऐसे वीर पुत्र को जना है। हे बालक! यदि अपना नाम नहीं बताना चाहते तो कम से कम अपने माता और पिता का परिचय ही दे दो। बालक ने राजा को अपनी वाकपटुता में उलझाए रखा। दोनों में प्यार भरी नौंक-झोंक चल रही थी। तभी शकुंतला भरत को लेने वहां पहुंचती है। आखिर शकुंतला और राजा दुष्यंत के मिलन का समय आ ही गया।
वृक्ष से बंधे अपने राजा को देख कर शकुंतला अचंभित थी। उसने अपने पुत्र को आदेश दिया की वह उन्हें मुक्त कर दे। भरत ने माता की आज्ञा का पालन किया। बंधन से मुक्त हो कर राजा ने अपने पुत्र को दुलारना चाहा किन्तु शकुंतला ने अपने पुत्र का हाथ पकड़ कर उसे राजा से दूर कर दिया।
तब दुष्यंत ने कहा - यह क्या? शकुन्तले! मैं तो इसका पिता हूँ फिर तुम ऐसा क्यों कर रही हो। तब शकुंतला ने राजा दुष्यंत को उसके साथ किये दुर्व्यवहार का स्मरण करवाया। शकुंतला के कंटीले वचन सुनकर राजा ने कहा - बस करो शकुन्तले! मुझे अब और लज्जित नहीं करो। मैंने तुम्हारे साथ जो किया उसका कारण मैं नहीं जानता। किन्तु उसका पछतावा मुझे अवश्य है। यदि तुम्हारी वह मुद्रिका जो मैंने तुम्हे भेंट की थी वह मछुआरे के पास नहीं मिलती तो मुझे कुछ भी स्मरण नहीं रहता। किन्तु विधाता हमारा मिलन करवाना चाहते थे। मुझे क्षमा कर दो प्रिये! तभी उस स्थान पर महर्षि कश्यप और मेनका आते हैं तथा शकुंतला और दुष्यंत को महर्षि दुर्वासा के शाप की घटना बताते हैं। मुनि कश्यप ने कहा - जो कुछ भी हुआ वह विधि का लेख था और आज तुम्हारा मिलन भी उसी विधाता की इच्छा से हुआ है। अब सब कुछ पीछे छोड़कर एक दूसरे का हाथ पकड़ लो इसी में तुम दोनों और तुम्हारे पुत्र का कल्याण है।
'इस तरह महर्षि कश्यप और मेनका के प्रयास से राजा दुष्यंत और शकुंतला का मिलन पुनः हो सका। भरत ने अपने पिता का आशीर्वाद लिया तथा उनके साथ की गई धृष्टता की क्षमा मांगी। राजा ने स्नेहपूर्वक अपने पुत्र को गले लगा लिया। इस प्रकार शकुंतला और राजा दुष्यंत के मिलन की कथा यही समाप्त होती है। जो भी मनुष्य इस प्रसंग को कहता अथवा सुनाता है उसके दांपत्य जीवन में हमेशा दृढ़ता बनती है। बालक भरत भविष्य में महान प्रतापी राजा होते हैं तथा भरत-वंश की स्थापना करते हैं।'
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