भाग-२८(28) भगवान् विष्णु द्वारा राक्षसों का संहार और पलायन

 


अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन ! जैसे बादल जल की वर्षा से किसी पर्वत को आप्लावित करते हैं, उसी प्रकार गर्जना करते हुए वे राक्षसरूपी मेघ अस्त्ररूपी जल की वर्षा से नारायण रूपी पर्वत को पीड़ित करने लगे। भगवान् विष्णु का श्रीविग्रह उज्वल श्यामवर्ण से सुशोभित था और अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करते हुए वे श्रेष्ठ निशाचर नीले रंग के दिखायी देते थे; इसलिये ऐसा जान पड़ता था, मानो अञ्जनगिरि को चारों ओर से घेरकर मेघ उस पर जल की धारा बरसा रहे हों। 

'जैसे टिड्डीदल धान आदि के खेतों में, पतिंगे आग में, डंक मारनेवाली मक्खियाँ मधु से भरे हुए घड़े में और मगर समुद्र में घुस जाते हैं, उसी प्रकार राक्षसों के धनुष से छूटे हुए वज्र, वायु तथा मन के समान वेग वाले बाण भगवान् विष्णु के शरीर में प्रवेश करके इस प्रकार लीन हो जाते थे, जैसे प्रलयकाल में समस्त लोक उन्हीं में प्रवेश कर जाते हैं। रथ पर बैठे हुए योद्धा रथों सहित, हाथी सवार हाथियों के साथ, घुड़सवार घोड़ों सहित तथा पैदल पाँव पयादे ही आकाश में खड़े थे।' 

'उन राक्षस राजों के शरीर पर्वत के समान विशाल थे। उन्होंने सब ओर से शक्ति, ऋष्टि, तोमर और बाणों की वर्षा करके भगवान् विष्णु का साँस लेना बंद कर दिया। ठीक उसी तरह, जैसे प्राणायाम द्विज के श्वास को रोक देते हैं। जैसे मछली महासागर पर प्रहार करे, उसी तरह वे निशाचर अपने अस्त्र-शस्त्रों द्वारा श्रीहरी पर चोट करते थे। उस समय दुर्जय देवता भगवान् विष्णु ने अपने शाङ्गर्धनुष को खींचकर राक्षसों पर बाण बरसाना आरम्भ किया।' 

'वे बाण धनुष को पूर्णरूप से खींचकर छोड़े गये थे; अत: वज्र के समान असह्य और मन के समान वेगवान् थे। उन पैने बाणों द्वारा भगवान् विष्णु ने सैकड़ों और हजारों निशाचरों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। जैसे हवा उमड़ी हुई बदली एवं वर्षा को उड़ा देती है, उसी प्रकार अपनी बाण वर्षा से राक्षसों को भगाकर पुरुषोत्तम श्रीहरी ने अपने पाञ्चजन्य नामक महान् शङ्ख को बजाया। सम्पूर्ण प्राणशक्ति से श्रीहरी के द्वारा बजाया गया वह जल जनित शङ्खराज भयंकर आवाज से तीनों लोकों को व्यथित करता हुआ-सा गूंजने लगा।' 

'जैसे वन में दहाड़ता हुआ सिंह मतवाले हाथियों को भयभीत कर देता है, उसी प्रकार उस शङ्खराज की ध्वनि ने समस्त राक्षसों को भय और घबराहट में डाल दिया। वह शङ्खध्वनि सुनकर शक्ति और साहस से हीन हुए घोड़े युद्धभूमि में खड़े न रह सके, हाथियों के मद उतर गये और वीर सैनिक रथों से नीचे गिर पड़े। सुन्दर पंखवाले उन बाणों के मुखभाग वज्र के समान कठोर थे। वे शाङ्गर्धनुष से छूटकर राक्षसों को विदीर्ण करते हुए पृथ्वी में घुस जाते थे।' 

'संग्राम भूमि में भगवान् विष्णु के हाथ से छूटे हुए उन बाणों द्वारा छिन्न- भिन्न हुए निशाचर वज्र के मारे हुए पर्वतों की भाँति धराशायी होने लगे। श्रीहरी के चक्र के आघात से शत्रुओं के शरीरों में जो घाव हो गये थे, उनसे उसी तरह रक्त की धारा बह रही थी, मानो पर्वतों से गेरुमिश्रित जल का झरना गिर रहा हो। शङ्खराज की ध्वनि, शाङ्गर्धनुष की टंकार तथा भगवान् विष्णु की गर्जना – इन सबके तुमुल नाद ने राक्षसों के कोलाहल को दबा दिया।' 

'भगवान ने राक्षसों के काँपते हुए मस्तकों, बाणों, ध्वजाओं, धनुषों, रथों, पताकाओं और तरकसों को अपने बाणों से काट डाला। जैसे सूर्य से भयंकर किरणें, समुद्र से जल के प्रवाह, पर्वत से बड़े-बड़े सर्प और मेघ से जल की धाराएँ प्रकट होती हैं, उसी प्रकार भगवान् नारायण के चलाये और शाङ्गर्धनुष से छूटे हुए सैकड़ों और हजारों बाण तत्काल इधर-उधर दौड़ने लगे। जैसे शरभ से सिंह, सिंह से हाथी, हाथी से बाघ, बाघ से चीते, चीते से कुत्ते, कुत्ते से बिलाव, बिलाव से साँप और साँप से चूहे डरकर भागते हैं, उसी प्रकार वे सब राक्षस प्रभावशाली भगवान् विष्णु की मार खाकर भागने लगे। उनके भगाये हुए बहुत-से राक्षस धराशायी हो गये।' 

'सहस्रों राक्षसों का वध करके भगवान् मधुसूदन ने अपने शङ्ख पाञ्चजन्य को उसी तरह गम्भीर ध्वनि से पूर्ण किया, जैसे देवराज इन्द्र मेघ को जलसे भर देते हैं। भगवान् नारायण के बाणों से भयभीत और शङ्खनाद से व्याकुल हुई राक्षस सेना लङ्का की ओर भाग चली। नारायण के सायकों से आहत हुई राक्षस सेना जब भागने लगी, तब सुमाली ने रणभूमि में बाणों की वर्षा करके उन श्रीहरी को आगे बढ़ने से रोका। जैसे कुहरा सूर्यदेव को ढक लेता है, उसी तरह सुमाली ने बाणों से भगवान् विष्णु को आच्छादित कर दिया। यह देख शक्तिशाली राक्षसों ने पुनः धैर्य धारण किया।' 

'उस बलाभिमानी निशाचर ने बड़े जोर से गर्जना करके राक्षसों में नूतन जीवन का संचार करते हुए-से रोषपूर्वक आक्रमण किया। जैसे हाथी सूँड़ को उठाकर हिलाता हो, उसी तरह लटकते हुए आभूषण से युक्त हाथ को ऊपर उठाकर हिलाता हुआ वह राक्षस विद्युत सहित सजल जलधर के समान बड़े हर्ष से गर्जना करने लगा।' 

'तब भगवान् ने अपने बाणों द्वारा गर्जते हुए सुमाली के सारथी का जगमगाते हुए कुण्डलों से मण्डित मस्तक काट डाला। इससे उस राक्षस के घोड़े बेलगाम होकर चारों ओर चक्कर काटने लगे। उन घोड़ों के चक्कर काटने से उनके साथ ही राक्षसराज सुमाली भी चक्कर काटने लगा। ठीक उसी तरह, जैसे अजितेन्द्रिय मनुष्य विषयों में भटकने वाली इन्द्रियों के साथ-साथ स्वयं भी भटकता फिरता है। जब घोड़े रणभूमि में सुमाली के रथ को इधर-उधर लेकर भागने लगे, तब माली नामक राक्षस ने युद्ध के लिये उद्यत हो धनुष लेकर गरुड़ की ओर धावा किया। राक्षसों पर टूटते हुए महाबाहु विष्णु पर आक्रमण किया।' 

'माली के धनुष से छूटे हुए सुवर्णभूषित बाण भगवान् विष्णु के शरीर में उसी तरह घुसने लगे, जैसे पक्षी क्रौञ्चपर्वत के छिद्र में प्रवेश करते हैं। जैसे जितेन्द्रिय पुरुष मानसिक व्यथाओं से विचलित नहीं होता, उसी प्रकार रणभूमि में भगवान् विष्णु माली के छोड़े हुए सहस्रों बाणों से पीड़ित होने पर भी क्षुब्ध नहीं हुए। तदनन्तर खड्ग और गदा धारण करनेवाले भूतभावन भगवान् विष्णु ने अपने धनुष की टङ्कार करके माली के ऊपर बाण समूहों की वर्षा आरम्भ कर दी।' 

'वज्र और बिजली के समान प्रकाशित होनेवाले वे बाण माली के शरीर में घुसकर उसका रक्त पीने लगे, मानो सर्प अमृतरस का पान कर रहे हों। 

अन्त में माली को पीठ दिखाने के लिये विवश करके शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् श्रीहरी ने उस राक्षस के मुकुट, ध्वज और धनुष को काटकर घोड़ों को भी मार गिराया। रथहीन हो जाने पर राक्षस प्रवर माली गदा हाथ में लेकर कूद पड़ा, मानो कोई सिंह पर्वत के शिखर से छलाँग मारकर नीचे आ गया हो।' 

'जैसे यमराज ने भगवान् शिव पर गदा का और इन्द्र ने पर्वतपर वज्र का प्रहार किया हो, उसी तरह माली ने पक्षिराज गरुड़ के ललाट में अपनी गदाद्वारा गहरी चोट पहुँचायी। माली की गदा से अत्यन्त आहत हुए गरुड़ वेदना से व्याकुल हो उठे। उन्होंने स्वयं युद्ध से विमुख होकर भगवान् विष्णु को भी विमुख - सा कर दिया। माली ने गरुड़ के साथ ही जब भगवान् विष्णु को भी युद्ध से विमुख - सा कर दिया, तब वहाँ जोर-जोर से गर्जते हुए राक्षसों का महान् शब्द गूँज उठा।' 

'गर्जते हुए राक्षसों का वह सिंहनाद सुनकर भगवान् विष्णु अत्यन्त कुपित हो पक्षिराज की पीठ पर तिरछे होकर बैठ गये। इससे वह राक्षस उन्हें दिखने लगा उस समय पराङ्मुख होने पर भी श्रीहरी ने माली के वध की इच्छा से पीछे की ओर मुड़कर अपना सुदर्शन चक्र चलाया। सूर्यमण्डल के समान उद्दीप्त होनेवाले कालचक्र - सदृश उस चक्र ने अपनी प्रभा से आकाश को उद्भासित करते हुए वहाँ माली के मस्तक को काट गिराया। 

चक्र से कटा हुआ राक्षसराज माली का वह भयंकर मस्तक पूर्वकाल में कटे हुए राहु के सिर की भाँति रक्त की धारा बहता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा।' 

'इससे देवताओं को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे 'साधु भगवन्! साधु !' ऐसा कहते हुए सारी शक्ति लगाकर जोर-जोर से सिंहनाद करने लगे। माली को मारा गया देख सुमाली और माल्यवान् दोनों राक्षस शोक से व्याकुल हो सेना सहित लङ्का की ओर ही भागे। इतने ही में गरुड़ की पीड़ा कम हो गयी, वे पुन: सँभलकर लौटे और कुपित हो पूर्ववत् अपने पंखों की हवा से राक्षसों को खदेड़ने लगे। कितने ही राक्षसों के मुखकमल चक्र के प्रहार से कट गये। गदाओं के आघात से बहुतों के वक्ष:स्थल चूरचूर हो गये। हलके फाल से कितनों के गर्दनें उतर गयीं । मूसलों की मार से बहुतों के मस्तकों की धज्जियाँ उड़ गयीं।' 

'तलवार का हाथ पड़ने से कितने ही राक्षस टुकड़े-टुकड़े हो गये। बहुतेरे बाणों से पीड़ित हो तुरंत ही आकाश से समुद्र के जल में गिर पड़े। भगवान् विष्णु भी अपने धनुष से छूटे हुए श्रेष्ठ बाणों और अशनियों द्वारा राक्षसों को विदीर्ण करने लगे। उस समय उन निशाचरों के खुले हुए केश हवा से उड़ रहे थे और पीताम्बर धारी श्यामसुन्दर श्रीहरि विद्युन्माला-मण्डित महान् मेघ के समान सुशोभित हो रहे थे।' 

'राक्षसों की वह सारी सेना अत्यन्त उन्मत्त-सी प्रतीत होती थी। बाणों से उसके छत्र कट गये थे, अस्त्र-शस्त्र गिर गये थे, सौम्य वेष दूर हो गया था, आँतें बाहर निकल आयी थीं और सबके नेत्र भय से चञ्चल हो रहे थे। जैसे सिंहों द्वारा पीड़ित हुए हाथियों के चीत्कार और वेग एक साथ ही प्रकट होते हैं, उसी प्रकार उन पुराणप्रसिद्ध नृसिंह रूपधारी श्रीहरी के द्वारा रौंदे गये उन निशाचर रूपी गजराजों के हाहाकार और वेग साथ-साथ प्रकट हो रहे थे।'

'भगवान् विष्णु के बाण समूहों से आवृत हो अपने सायकों का परित्याग करके वे निशाचर रूपी काले मेघ उसी प्रकार भागे जा रहे थे, जैसे हवा के उड़ाये हुए वर्षाकालीन मेघ आकाश में भागते देखे जाते हैं। चक्र के प्रहारों से राक्षसों के मस्तक कट गये थे, गदाओं की मार से उनके शरीर चूर-चूर हो रहे थे तथा तलवारों के आघात से उनके दो-दो टुकड़े हो गये थे। इस तरह वे राक्षसराज पर्वतों के समान धराशायी हो रहे थे।' 

लटकते हुए मणिमय हारों और कुण्डलों के साथ गिराये जाते हुए नील मेघ- सदृश उन निशाचरों की लाशों से वह रणभूमि पट गयी थी। वहाँ धराशायी हुए वे राक्षस नीलपर्वतों के समान जान पड़ते थे। उनसे वहाँ का भूभाग इस तरह आच्छादित हो गया था कि कहीं तिल रखने की भी जगह नहीं दिखायी देती थी। 

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-२८(28) समाप्त !

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