सूतजी कहते हैं - ऋषियों! मेनका, कामदेव और देवी रति को लेकर अपने लक्ष्य की और बढ़ चली। मेनका ने अनेक जतन किये जब उसे लगता की वह असफल हो रही है तभी कामदेव अपना कामबाण महर्षि पर छोड़ देते और मेनका उसी उत्साह से पुनः अपने कार्य में लग जाती। आख़िरकार वह अवसर आया जब विश्वामित्र अपने ध्यान से जागे। यह देख कामदेव ने तुरंत ही उन पर अपना कामबाण छोड़ दिया।
'अनेक कामबाण से आहत विश्वामित्र अपनी सारी सद्बुद्धि खो बैठे और मेनका को सामने देखकर उसके रूप में मोहित हो गए। मेनका ने इस अवसर का लाभ उठाया और अपने मधुर तथा रसीले वचनों से महर्षि को सम्मोहित कर दिया। उन्होंने मेनका से गन्धर्व विवाह किया। जैसे ही यह समाचार देवेंद्र को मिला वह अपनी विजय मानकर जोर-जोर से ठहाके लगाने लगे। अपने राजा को प्रसन्न देखकर अन्य देवता भी ठहाके लगाने लगे।'
इन्द्र ने कहा - उस विश्वामित्र के अभिमान के फ़न को मैंने कुचल डाला। वह मुझे चुनौती दे रहा था। उसने क्या सोच था की वह इतनी सहजता से मुझे स्वर्ग के आधिपत्य से हटा देगा। अब वह कभी ब्रह्मर्षि नहीं बन पाएगा। जिस दिन उसे होश आएगा वह स्वयं ही लज्जा के मारे डूब मरेगा।
'विश्वामित्र से विवाह करने के उपरांत मेनका भी धीरे-धीरे महर्षि के प्रेम में इतना रम गई की उसे ध्यान ही नहीं रहा वह स्वर्गलोक की अप्सरा है जिसका कार्य सिर्फ इतना था की वह उनकी तपस्या को भंग कर दे। यद्यपि मेनका ने अपना कार्य कर दिया था फिर भी मन ही मन वह भी विश्वामित्र को चाहने लगी। उनके बीच प्रेम इतना बढ़ गया की मेनका गर्भवती हो गई।'
उधर देवेंद्र को चिंता होने लगी आखिर मेनका स्वर्ग क्यों नहीं लौट रही? एक दिन इन्द्र अवसर पाकर मेनका से मिलने विश्वामित्र के आश्रम पहुंचे। उस समय विश्वामित्र वहां नहीं थे। इन्द्र को अपने सामने देख कर मेनका सकपकाई और फिर उनका अभिवादन किया। इन्द्र ने मेनका से पूछा की वह स्वर्ग आने में इतना विलम्ब क्यों कर रही है ? इन्द्र ने उसे उसी क्षण साथ चलने का आदेश दिया।'
मेनका ने अपने गर्भवती होने की बात इन्द्र को बताई तो वह क्रोध में आ गए - तुम भली प्रकार जानती हो जिस प्रकार एक मानव स्वर्गलोक में नहीं रह सकता वैसे ही परमपिता के बनाये नियमानुसार स्वर्गलोक की अप्सरा भी भूलोक में निवास नहीं कर सकती। मैंने तुम्हे केवल विश्वामित्र के तप को समाप्त करने भेजा था उसकी पत्नी बनकर उसका वंश बढ़ाने के लिए नहीं भेजा।
इन्द्र को क्रोधित देख मेनका ने हाथ जोड़ कर विनती की - हे देवराज! प्रेम कभी एक तरफा नहीं टिकता यदि किसी प्राणी को अपने मोह में फसाना हो तो उसके साथ सामान रूप से प्रेम करना होता है। यदि ऐसा नहीं किया जाए तो यह विश्वासघात होता है और इससे बड़ा पाप संसार में कुछ भी नहीं।
मेनका की बाते सुनकर इन्द्र ने कहा - मुझे तो लगता है तुमने विश्वामित्र को नहीं अपितु उसने तुम्हे अपने प्रेम में मोहित कर दिया है किन्तु याद रखो जिस दिन उसे तुम्हारा सत्य पता चलेगा तो वह तुम्हारा वही हाल करेगा जो रम्भा का हुआ था। रम्भा तो अपने शाप से मुक्त हो जाएगी लेकिन कदाचित तुम नहीं। धरती पर रहकर तुम भी मानवों की भांति सांसारिक मोह में फँस चुकी हो, यदि तुम जल्द स्वर्गलोक नहीं लौटी तो याद रखना स्वर्गलोक के नियमानुसार हम भी तुम्हे दंड दे सकते हैं।
'इतना सब कहने के बाद इन्द्र वहां से लौट जाते हैं। मेनका बहुत बड़ी दुविधा में फँस चुकी थी। उसे समझ नहीं आया की वह क्या करे? जो बच्चा उसके गर्भ में पल रहा है क्या उसके साथ अन्याय करे? समय बिता और मेनका ने एक सुन्दर बालिका को जन्म दिया।'
इसके कुछ दिन बाद इन्द्र पुनः मेनका के पास आये और बोले - जिस दुविधा के कारण तुम स्वर्गलोक नहीं आ रही थी। अब वह भी हल हो गई है। इस बालिका को तो महर्षि स्वयं संभाल लेंगे इसलिए अब तुम्हे किसी भी मूल्य पर स्वर्गलोक आना ही होगा। यदि एक दिवस के भीतर नहीं लौटी तो मेरी चेतावनी याद रखना। फिर न ही तुम स्वर्गलोक के लायक रहोगी और न ही भूलोक के।
अब मेनका को भी लगने लगा की अब उसका भूलोक से लौट जाने का समय आ गया है। मेनका विश्वामित्र के आने की प्रतीक्षा करने लगी। विश्वामित्र आश्रम में पधारते हैं। उन्हें मेनका के मुख पर उदासी दिखाई देती है। उन्होंने मेनका को उदासी का कारण पूछा। तब महर्षि के हठ करने पर मेनका ने साहस दिखाते हुए अपनी वास्तविकता बताना प्रारम्भ किया।
मेनका ने कहा - हे स्वामी! मैं आपकी अपराधी हूँ। आप मुझे कठोर दंड दें। मैं स्वर्गलोक से आई अप्सरा हूँ मुझे इन्द्र ने आपका तप भंग करने के लिए यहाँ भेजा था। कामदेव और देवी रति की सहायता से मैंने आप जैसे बड़े महा तपस्वी को अपने प्रेम जाल में जकड लिया। किन्तु हे स्वामी! मैं ईश्वर की शपथ लेकर कहती हूँ मैंने भी आप से उतना ही प्रेम किया जितना आपने मुझसे। यह कन्या हमारे प्रेम का प्रमाण है। मेरी विनती मानिये इसे स्वीकार कर लीजिये। आपको मेरे लिए जो उचित लगे वही कीजिये। यदि आप चाहें तो स्वर्ग को सदा सदा के लिए त्याग कर आपकी एक साधारण भूलोक की स्त्री बनकर सेवा करुँगी।
मेनका की बातों से महर्षि को गहरा आघात लगा उन्होंने मेनका से कहा - तुमने मेरे साथ छल किया और अब पुनः इन्द्र के कहने पर ऐसे भावनात्मक वचन बोल कर फिर से छल करना चाहती हो। अरे मुर्ख अप्सरा! मैं तुम्हे अवश्य नहीं पहचान पाया था और तुमसे विवाह भी किया किन्तु इसका अर्थ यह कदापि मत समझना की मैं अपने ब्रह्मर्षि बनने के उद्देश्य को भूल चूका हूँ।
इसके बाद विश्वामित्र क्रोधित होकर उस आश्रम को छोड़ कर जाने का निर्णय करते हैं। मेनका उनके पीछे अपनी पुत्री लेकर दौड़ती है तथा पुत्री को उनके चरणों में रखकर और शीश नवाते हुए दया की भिक्षा मांगती है। तब महर्षि यह कहकर वहां से चले जाते हैं की इस बालिका की रक्षा स्वयं विधाता करेंगे। वही इसके पालनहार को यहाँ भेजेंगे। तुम्हे जहाँ जाना है तुम जाओ क्योंकि मैं इस पुत्री को अपने साथ रखकर तुम्हारे विश्वासघात को प्रतिक्षण याद नहीं करना चाहता।
'इस तरह मेनका भारी मन से विवश होकर अपनी पुत्री को वन में अकेला छोड़कर स्वर्ग लौट जाती है। जिस स्थान पर मेनका और विश्वामित्र अपनी पुत्री को अकेला छोड़ गए थे वह स्थान महर्षि कण्व के आश्रम के समीप था। महर्षि कण्व अपने आश्रम में शकुंता (मोर) पक्षियों का पालन किया करते थे। बालिका के रुदन को सुनकर शकुंता पक्षी उसके चारों और एक सुरक्षा आवरण बना लेते हैं। रुदन की आवाज सुनकर कण्व ऋषि उस दिशा में बढ़ते हैं तथा असहाय देखकर उसे अपने आश्रम ले आते हैं।'
उनके आश्रम में गौतमी नाम की एक वृद्ध नारी रहती थी। महर्षि कण्व उस बालिका के लालन-पालन का दायित्व उसे सौंपते हैं। गौतमी महर्षि से बालिका का नामकरण करने का आग्रह करती है। महर्षि नामकरण करते हैं - क्योंकि इस असहाय बालिका की सुरक्षा शकुंता पक्षियों ने की है अतः इसका नाम हम शकुंतला रखते हैं।
सूतजी कहते हैं - हे बंधुओं! समय के साथ शकुंतला व्यस्क हो गई। एक बार वह आश्रम के समीप फूलों के उद्यान में अपनी सखियों के साथ टहल रही थी। उस समय हस्तिन (वर्तमान में दिल्ली और हरियाणा राज्य क्षेत्र) के राजा दुष्यंत यात्रा से लौट रहे थे। अपनी थकान मिटाने के लिए वे अपनी सैनिक टुकड़ी के साथ सुन्दर सरोवर और उद्यान को देखकर वही विश्राम करने का निर्णय करते हैं। तब उनकी दृष्टि शकुंतला पर पड़ती है। शकुंतला को देखकर वे उस पर मोहित हो गए। उन्होंने समीप जाकर अपना और शकुंतला का परिचय साझा किया।
शकुंतला ने विनम्रता से कहा - आप हमारे राजा हैं चूँकि आप हमारे आश्रम की सीमा में ठहरे हैं अतः हमे अतिथि सत्कार का अवसर प्रदान करें। इस समय बाबा (महर्षि कण्व) भी यहाँ नहीं है वे किसी विशेष कार्य हेतु अपने ऋषिदल के साथ हरिद्वार गए हैं। इसलिए उनकी अनुपस्थिति में हमारा दायित्व और भी बढ़ जाता है।
'शकुंतला राजा दुष्यंत को अपने आश्रम ले आती है। शकुंतला के रूप में राजा इतना खो गया की उसे यह भी ध्यान नहीं रहा उसे राज्य वापस लौटना है। कुछ ही दिवस के भीतर शकुंतला भी राजा को चाहने लगी। दोनों का प्रेम इतना बढ़ गया की राजा ने बिना विलम्ब किये शकुंतला को अपनी पत्नी स्वीकार कर उससे विवाह कर लिया। राजा की इच्छा और शकुंतला की सहमति होने के कारण किसी ने भी इस विवाह का विरोध नहीं किया।'
राजा दुष्यंत को अब एक माह बीत चूका था। राज्य से उनका दूत सन्देश लेकर आया की उन्हें राजमाता ने शीघ्र ही राज्य लौटने का आदेश दिया है। राजा दुष्यंत अपनी माँ के आज्ञाकारी थे। यह जानकर की माता उनके विवाह के बारे में नहीं जानती तथा महर्षि कण्व भी आश्रम में उपस्थित नहीं है यह सोचकर उन्होंने शकुंतला से पांच दिवस के भीतर पुनः लौटकर आने का वचन दिया।
जाते जाते निशानी के रूप में उन्होंने अपने नाम की मुद्रिका शकुंतला को पहना दी और कहा - तुम चिंता मत करना प्रिये! यह मुद्रिका हमारे और तुम्हारे प्रेम का प्रतिक है। मैं वापस जब आऊंगा तो इस बार साथ लेकर ही जाऊंगा। राजा दुष्यंत वहां से विदा लेकर अपने सैन्य बल सहित राज्य की और चल पड़ते हैं। शकुंतला राजा को स्मरण करने में इतनी मगन थी की उसे अपने आस पास के क्रियाकलापों की कोई सूध नहीं थी।
'एक बार ऋषि दुर्वासा आश्रम की और पधारते है। मार्ग में बैठी शकुंतला से वह उसका परिचय पूछते हैं। उस समय शकुंतला अपने पति राजा दुष्यंत की यादों में मदहोश रहती है इसलिए उसे महर्षि दुर्वासा के आने का आभास नहीं हुआ। जब बार-बार पूछने पर भी महर्षि को कोई उत्तर नहीं मिला तो उन्होंने इसे अपना अपमान समझा और क्रोध में आकर उन्होंने शकुंतला को शाप दिया की वह जिस किसी के भी स्मरण में लीन है वही उसे भूल जाए। यह सुनकर शकुंतला की एक सखी दौड़कर दुर्वासा के चरणों में गिरकर शकुंतला के लिए क्षमा याचना करती है तब दुर्वासा ऋषि बोले यदि शकुंतला उस भूलने वाले को उसके द्वारा दी गई कोई भेंट दिखा देगी तो उसका शाप समाप्त हो जाएगा। किन्तु स्मरण रहे शकुंतला को यह सब पता नहीं चलना चाहिए।'
'इस तरह अब छः मास बीत चुके थे। शकुंतला गर्भवती भी थी। ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण राजा दुष्यंत शकुंतला को भूल चुके थे। ऐसे में अब शकुंतला भी बेचैन थी किन्तु उसे दुर्वासा ऋषि के कहने पर उसकी सखी ने शाप वाली घटना नहीं बताई थी। अब महर्षि कण्व अपने आश्रम लौट आते हैं। वह शकुंतला से मिलने के लिए व्याकुल थे। अपने बाबा को देखकर शकुंतला उनके गले लग जाती है और रोने लगती है। तभी कण्व ऋषि की दृष्टि शकुंतला की मुद्रिका पर पड़ती है। तब महर्षि अपने ध्यान योग से सब कुछ जान जाते हैं।
अपनी पुत्री को स्नेहपूर्वक कहते हैं - शकुन्तले! पुत्री! हमे राजा दुष्यंत वर के रूप में स्वीकार है। वह हमारे राजा हैं और फिर तुम स्वयं भी उन्हें चाहती हो अतः मैं पुरे सम्मान के साथ कल प्रातः ही तुम्हे राजा के पास भेज दूंगा। इस तरह प्रातः होते ही महर्षि कण्व शकुंतला को माता गौतमी और अपने दो शिष्यों के साथ राजा के पास भेजते हैं। वे शकुंतला की विदाई की रस्म ठीक वैसे ही करते हैं जैसे एक पिता करता है।
शकुंतला माता गौतमी और कण्व ऋषि के दो शिष्यों सहित राजा के दरबार में पहुंचती है। राजा को जब यह पता चलता है की उनका विवाह शकुंतला से हुआ है तो वह उसे स्वीकार करने से मना कर देते हैं। राजा उल्टा उन्ही पर झूठ और षड़यंत्र का आरोप लगते हैं।
राजा ने कहा - यह जानते हुए की तुम महर्षि कण्व के आश्रम से आये हो इसलिए मैं तुम चारों को बिना दंड दिए ही छोड़ रहा हूँ अन्यथा राजा के विरुद्ध षड़यंत्र रचने के अपराध में मैं तुम सब को कारागृह में डाल देता। तब शकुंतला ने वो सब बताया जो उन दोनों के मध्य हुआ था। किन्तु राजा को दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण कुछ भी स्मरण नहीं था।
तब राजा ने शकुंतला से कहा - तुम्हारे कहे अनुसार मैंने तुम्हे मेरे नाम से अंकित मुद्रिका भेंट की थी तो फिर वह कहाँ है? यदि तुम मुझे वह दिखा दो तो मैं तुम्हे अपनी पत्नी स्वीकार करने का वचन देता हूँ। शकुंतला ने अपने हाथ की तरफ देखा किन्तु मुद्रिका नहीं थी तब उसे ध्यान आया की नदी पार करते समय कदाचित उसके हाथ से वह मुद्रिका जल में डूब गयी।
राजा ने शकुंतला का उपहास उड़ाया और उसे राज्य से निकल जाने को कहा। विवश और लाचार शकुंतला वहां से चलने लगी तब ऋषि शिष्यों ने शकुंतला को मर्यादा की दुहाई देकर कहा की न जाने किस दुर्भाग्य ने राजा की मति हर ली है अब तुम्हे इस प्रकार वापस आश्रम नहीं लौटना चाहिए इसलिए हे राजन! हम शकुंतला को यही छोड़ जाते हैं।
'तुम्हारे इस प्रकार फिर जाने का अर्थ यह नहीं की यह तुम्हारी पत्नी नहीं रही तुम्हे इसे अपनाना होगा। इसके गर्भ में तुम्हारी संतान है इसे तुम्हे स्वीकार करना ही होगा। यह सब बोलकर वे दोनों शिष्य माता गौतमी को लेकर वहां से चले जाते हैं। राजा को समझ नहीं आ रहा थी की वह क्या करे? उसने शकुंतला को राज्य के बाहर बने आश्रय स्थल में छोड़ दिया। शकुंतला दीनहीन अवस्था में वहां से चली जाती है तथा वन में भटकती है। भटकते-भटकते वह मूर्छित हो जाती है।
इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-२७(27) समाप्त !
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