भाग-२७(27) देवताओं का भगवान् शङ्कर की सलाह से राक्षसों के वध के लिये भगवान् विष्णु की शरण में जाना और भगवान् विष्णु का उनकी सहायता के लिये आना

 


महर्षि अगस्त्य कहते हैं - रघुनन्दन ! इन राक्षसों से पीड़ित होते हुए देवता तथा तपोधन ऋषि भय से व्याकुल हो देवाधिदेव महादेवजी की शरण में गये। जो जगत की सृष्टि और संहार करनेवाले, अजन्मा, अव्यक्त रूपधारी, सम्पूर्ण जगत के आधार, आराध्य देव और परम गुरु हैं, उन कामनाशक, त्रिपुरविनाशक, त्रिनेत्रधारी भगवान् शिव के पास जाकर वे सब देवता हाथ जोड़ भय से गद्गदवाणी में बोले - भगवन्! प्रजानाथ! ब्रह्माजी के वरदान से उन्मत्त हुए सुकेश के पुत्र शत्रुओं को पीड़ा देनेवाले साधनों द्वारा सम्पूर्ण प्रजा को बड़ा कष्ट पहुँचा रहे हैं। 

'सबको शरण देने योग्य जो हमारे आश्रम थे, उन्हें उन राक्षसों ने निवास के योग्य नहीं रहने दिया है - उजाड़ डाला है। देवताओं को स्वर्ग से हटाकर वे स्वयं ही वहाँ अधिकार जमाये बैठे हैं और देवताओं की भाँति स्वर्ग में विहार करते हैं। माली, सुमाली और माल्यवान् - ये तीनों राक्षस कहते हैं - 'मैं ही विष्णु हूँ, मैं ही रुद्र हूँ, मैं ही ब्रह्मा हूँ तथा मैं ही देवराज इन्द्र, यमराज, वरुण, चन्द्रमा और सूर्य हूँ' इस प्रकार अहंकार प्रकट करते हुए वे रणदुर्जय निशाचर तथा उनके अग्रगामी सैनिक हमें बड़ा कष्ट दे रहे हैं। देव! उनके भय से हम बहुत घबराये हुए हैं, इसलिये आप हमें अभयदान दीजिये तथा रौद्र रूप धारण करके देवताओं के लिये कण्टक बने हुए उन राक्षसों का संहार कीजिये।' 

समस्त देवताओं के ऐसा कहने पर नील एवं लोहित वर्ण वाले जटाजूटधारी भगवान् शंकर सुकेश के प्रति घनिष्ठ रखने के कारण उनसे इस प्रकार बोले – देवगण! मैंने सुकेश के जीवन की रक्षा की है। वे असुर सुकेश के ही पुत्र हैं; इसलिये मेरे द्वारा मारे जाने योग्य नहीं हैं। अत: मैं तो उनका वध नहीं करूँगा; परंतु तुम्हें एक ऐसे पुरुष के पास जाने की सलाह दूँगा, जो निश्चय ही उन निशाचरों का वध करेंगे। 

‘देवताओ और महर्षियो! तुम इसी उद्योग को सामने रखकर तत्काल भगवान् विष्णु की शरण में जाओ। वे प्रभु अवश्य उनका नाश करेंगे। यह सुनकर सब देवता जय-जयकार के द्वारा महेश्वर का अभिनन्दन करके उन निशाचरों के भय से पीड़ित हो भगवान् विष्णु के समीप आये।' 

शङ्ख, चक्र धारण करनेवाले उन नारायण देव को नमस्कार करके देवताओं ने उनके प्रति बहुत अधिक सम्मान का भाव प्रकट किया और सुकेश के पुत्रों के विषय में बड़ी घबराहट के साथ इस प्रकार कहा - देव! सुकेश के तीन पुत्र त्रिविध अग्नियों के तुल्य तेजस्वी हैं। उन्होंने वरदान के बल से आक्रमण करके हमारे स्थान छीन लिये हैं। त्रिकूटपर्वत के शिखर पर जो लङ्का नामवाली दुर्गम नगरी है, वहीं रहकर वे निशाचर हम सभी देवताओं को क्लेश पहुँचाते रहते हैं। 

'मधुसूदन ! आप हमारा हित करने के लिये उन असुरों का वध करें। देवेश्वर ! हम आपकी शरण में आये हैं। आप हमारे आश्रयदाता हों। अपने चक्र से उनका कमलोपम मस्तक काटकर आप यमराज को भेंट कर दीजिये। आपके सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो इस भय के अवसर पर हमें अभय दान दे सके। देव! वे राक्षस मद से मतवाले हो रहे हैं। हमें कष्ट देकर हर्ष से फूले नहीं समाते हैं; अत: आप समराङ्गण में सगे सम्बन्धियों सहित उनका वध करके हमारे भय को उसी तरह दूर कर दीजिये, जैसे सूर्यदेव कुहरे को नष्ट कर देते हैं।' 

देवताओं के ऐसा कहने पर शत्रुओं को भय देनेवाले देवाधिदेव भगवान् जनार्दन उन्हें अभय दान देकर बोले - देवताओ! मैं सुकेश नामक राक्षस को जानता हूँ। वह भगवान् शंकर का वर पाकर अभिमान से उन्मत्त हो उठा है। इसके उन पुत्रों को भी जानता हूँ, जिनमें माल्यवान् सबसे बड़ा है। वे नीच राक्षस धर्म की मर्यादा का उल्लङ्घन कर रहे हैं, अत: मैं क्रोधपूर्वक उनका विनाश करूँगा। तुम लोग निश्चिन्त हो जाओ। 

सब कुछ करने में समर्थ भगवान् विष्णु के इस प्रकार आश्वासन देने पर देवताओं को बड़ा हर्ष हुआ। वे उन जनार्दन की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए अपने-अपने स्थानको चले गये। 

देवताओं के इस उद्योग का समाचार सुनकर निशाचर माल्यवान ने अपने दोनों वीर भाइयों से इस प्रकार कहा - सुनने में आया है कि देवता और ऋषि मिलकर हम लोगों का वध करना चाहते हैं। इसके लिये उन्होंने भगवान् शंकर के पास जाकर यह बात कही - देव! सुकेशके पुत्र आपके वरदान के बल से उद्दण्ड और अभिमान से उन्मत्त हो उठे हैं। वे भयंकर राक्षस पग- पग पर हम लोगों को सता रहे हैं। प्रजानाथ! राक्षसों से पराजित होकर हम उन दुष्टों के भय से अपने घरों में नहीं रहने पाते हैं। त्रिलोचन! आप हमारे हित के लिये उन असुरों का वध कीजिये। दाहकों में श्रेष्ठ रुद्रदेव! आप अपने हुंकार से ही राक्षसों को जलाकर भस्म कर दीजिये। 

देवताओं के ऐसा कहने पर अन्धक शत्रु भगवान् शिव ने अस्वीकृति सूचित करने के लिये अपने सिर और हाथ को हिलाते हुए इस प्रकार कहा - देवताओ! सुकेश के पुत्र रणभूमि में मेरे हाथ से मारे जाने योग्य नहीं हैं, परंतु मैं तुम्हें ऐसे पुरुष के पास जाने की सलाह दूंगा, जो निश्चय ही उन सबका वध कर डालेंगे। जिनके हाथ में चक्र और गदा सुशोभित हैं, जो पीताम्बर धारण करते हैं, जिन्हें जनार्दन और हरी कहते हैं तथा जो श्रीमान् नारायण के नाम से विख्यात हैं, उन्हीं भगवान की शरण में तुम सब लोग जाओ। भगवान् शङ्कर से यह सलाह पाकर उन कामदाहक महादेवजी को प्रणाम करके देवता नारायण के धाम में जा पहुँचे और वहाँ उन्होंने उनसे सब बातें बतायीं। 

तब उन नारायण देव ने इन्द्र आदि देवताओं से कहा - देवगण! मैं उन देवद्रोहियों का नाश कर डालूँगा, अत: तुम लोग निर्भय हो जाओ। 'राक्षसशिरोमणियो! इस प्रकार भयभीत देवताओं के समक्ष श्रीहरी ने हमें मारने की प्रतिज्ञा की है; अत: अब इस विषय में हम लोगों के लिये जो उचित कर्तव्य हो, उसका विचार करना चाहिये। हिरण्यकशिपु तथा अन्य देवद्रोही दैत्यों की मृत्यु इन्हीं विष्णु के हाथ से हुई है। नमुचि, कालनेमि, वीरशिरोमणि संह्लाद, नाना प्रकार की माया जानने वाला राधेय, धर्मनिष्ठ लोकपाल, यमलार्जुन, हार्दिक्य, शुम्भ और निशुम्भ आदि महाबली शक्तिशाली समस्त असुर और दानव समर भूमि में भगवान् विष्णु का सामना करके पराजित न हुए हों, ऐसा नहीं सुना जाता। उन सभी असुरों ने सैकड़ों यज्ञ किये थे। वे सब-के-सब माया जानते थे। सभी सम्पूर्ण अस्त्रों में कुशल तथा शत्रुओं के लिये भयंकर थे। ऐसे सैकड़ों और हजारों असुरों को नारायण देव ने मौत के घाट उतार दिया है। इस बात को जानकर हम सबके लिये जो उचित कर्तव्य हो, वही करना चाहिये। जो नारायण देव हमारा वध करना चाहते हैं, उन्हें जीतना अत्यन्त दुष्कर कार्य है।' 

माल्यवान की यह बात सुनकर सुमाली और माली अपने उस बड़े भाई से उसी प्रकार बोले, जैसे दोनों अश्विनीकुमार देवराज इन्द्र से वार्तालाप कर रहे हों। वे बोले – राक्षसराज ! हमलोगों ने स्वाध्याय, दान और यज्ञ किये हैं। ऐश्वर्य की रक्षा तथा उसका उपभोग भी किया है। हमें रोग-व्याधि से रहित आयु प्राप्त हुई है और हमने कर्तव्य मार्ग में उत्तम धर्म की स्थापना की है। यही नहीं, हमने अपने शस्त्रों के बल से देवसेना रूपी अगाध समुद्र में प्रवेश करके ऐसे-ऐसे शत्रुओं पर विजय पायी है, जो वीरता में अपना सानी नहीं रखते थे; अत: हमें मृत्यु से कोई भय नहीं है। 

'नारायण, रुद्र, इन्द्र तथा यमराज ही क्यों न हों, सभी सदा हमारे सामने खड़े होने में डरते हैं। राक्षसेश्वर! विष्णु के मन में भी हमारे प्रति द्वेष का कोई कारण तो नहीं है। क्योंकि हमने उनका कोई अपराध नहीं किया है केवल देवताओं के चुगली खाने से उनका मन हमारी ओर से फिर गया है। इसलिये हम सब लोग एकत्र हो एक-दूसरे की रक्षा करते हुए साथ-साथ चलें और आज ही देवताओं का वध कर डालने की चेष्टा करें, जिनके कारण यह उपद्रव खड़ा हुआ है।' 

'ऐसा निश्चय करके उन सभी महाबली राक्षसपतियों ने युद्ध के लिये अपने उद्योग की घोषणा कर दी और समूची सेना साथ ले जम्भ एवं वृत्र आदि की भाँति कुपित हो वे युद्ध के लिये निकले। श्रीराम ! पूर्वोक्त मन्त्रणा करके उन सभी महाबली विशालकाय राक्षसों ने पूरी तैयारी की और युद्ध के लिये कूच कर दिया।' 

'अपने बल का अहंकार रखने वाले वे समस्त देवद्रोही राक्षस रथ, हाथी, हाथी जैसे घोड़े, गदहे, बैल, ऊँट, शिशुमार, सर्प, मगर, कछुआ, मत्स्य, गरुड़-तुल्य पक्षी, सिंह, बाघ, सूअर, मृग और नीलगाय आदि वाहनों पर सवार हो लङ्का छोड़कर युद्ध के लिये देवलोक की ओर चल दिये। लङ्का में रहनेवाले जो प्राणी अथवा ग्रामदेवता आदि थे, वे सब अपशकुन आदि के द्वारा लङ्का के भावी विध्वंस को देखकर भय का अनुभव करते हुए मन-ही-मन खिन्न हो उठे।' 

'उत्तम रथों पर बैठे हुए सैकड़ों और हजारों राक्षस तुरंत ही प्रयत्नपूर्वक देवलोक की ओर बढ़ने लगे। उस नगर के देवता राक्षसों के मार्ग से ही पुरी छोड़कर निकल गये। उस समय काल की प्रेरणा से पृथ्वी और आकाश में अनेक भयंकर उत्पात प्रकट होने लगे, जो राक्षसों के विनाश की सूचना दे रहे थे। बादल गरम-गरम रक्त और हड्डियों की वर्षा करने लगे, समुद्र अपनी सीमा का उल्लङ्घन करके आगे बढ़ गये और पर्वत हिलने लगे।  मेघ के समान गम्भीर ध्वनि करनेवाले प्राणी विकट अट्टहास करने लगे और भयंकर दिखायी देनेवाली गीदड़ियाँ कठोर आवाज में चीत्कार करने लगीं।' 

'पृथ्वी आदि भूत क्रमश: गिरते - विलीन होते - से दिखायी देने लगे, गीधों का विशाल समूह मुख से आग की ज्वाला उगलता हुआ राक्षसों के ऊपर काल के समान मँडराने लगा। कबूतर, तोता और मैना लङ्का छोड़कर भाग चले। कौए वहीं काँव-काँव करने लगे। बिल्लियाँ भी वहीं गुर्राने लगीं तथा हाथी आदि पशु आर्तनाद करने लगे। राक्षस बल के घमण्ड में मतवाले हो रहे थे। वे काल के पाश में बँध चुके थे। इसलिये उन उत्पातों की अवहेलना करके युद्ध के लिये चलते ही गये, लौटे नहीं।' 

'माल्यवान्, सुमाली और महाबली माली - ये तीनों प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी शरीर से समस्त राक्षसों के आगे-आगे चल रहे थे। जैसे देवता ब्रह्माजी का आश्रय लेते हैं, उसी प्रकार उन सब निशाचरों ने माल्यवान पर्वत के समान अविचल माल्यवान का ही आश्रय ले रखा था। राक्षसों की वह सेना महान् मेघों की गर्जना के समान कोलाहल करती हुई विजय पाने की इच्छा से देवलोक की ओर बढ़ती जा रही थी। उस समय वह सेनापति माली के नियन्त्रण में थी।' 

'देवताओं के दूत से राक्षसों के उस युद्धविषयक उद्योग की बात सुनकर भगवान् नारायण ने भी युद्ध करने का विचार किया। वे सहस्रों सूर्यो के समान दीप्तिमान् दिव्य कवच धारण करके बाणों से भरा तरकस लिये गरुड़ पर सवार हुए। इसके अतिरिक्त भी उन्होंने सायकों से पूर्ण दो चमचमाते हुए तूणीर बाँध रखे थे। उन कमलनयन श्रीहरी ने अपनी कमर में पट्टी बाँधकर उसमें चमकती हुई तलवार भी लटका ली थी।' 

'इस प्रकार शङ्ख, चक्र, गदा, शाङ्गर्धनुष और खड्ग आदि उत्तम आयुधों को धारण किये सुन्दर पंख वाले पर्वताकार गरुड़ पर आरूढ़ हो वे प्रभु उन राक्षसों का संहार करने के लिये तुरंत चल दिये। गरुड़ की पीठ पर बैठे हुए वे पीताम्बरधारी श्यामसुन्दर श्रीहरी सुवर्णमय मेरुपर्वत के शिखर पर स्थित हुए विद्युत सहित मेघ के समान शोभा पा रहे थे। उस समय सिद्ध, देवर्षि, बड़े-बड़े नाग, गन्धर्व और यक्ष उनके गुण गा रहे थे। असुरों की सेना के शत्रु वे श्रीहरी हाथों में शङ्ख, चक्र, खड्ग और शाङ्गर्धनुष लिये सहसा वहाँ आ पहुँचे।' 

'गरुड़ के पंखों की तीव्र वायु के झोंके खाकर वह सेना क्षुब्ध हो उठी। सैनिकों के रथों की पताकाएँ चक्कर खाने लगीं और सबके हाथों से अस्त्र-शस्त्र गिर गये। इस प्रकार राक्षसराज माल्यवान की समूची सेना काँपने लगी। उसे देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो पर्वत का नील शिखर अपनी शिलाओं को बिखेरता हुआ हिल रहा हो। राक्षसों के उत्तम अस्त्र-शस्त्र तीखे, रक्त और मांस में सने हुए तथा प्रलयकालीन अग्नि के समान दीप्तिमान् थे। उनके द्वारा वे सहस्रों निशाचर भगवान् लक्ष्मीपति को चारों ओर से घेरकर उनपर चोट करने लगे।' 

इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-२७(27) समाप्त !


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