भाग-२६(26) विश्वामित्र के द्वारा त्रिशंकु के स्वर्ग का निर्माण तथा इंद्र द्वारा भेजी गयी अप्सरा रम्भा को मिला शिला बनने का शाप

 


सूतजी कहते हैं - हे ऋषियों ! इस प्रकार महर्षि विश्वामित्र के तपोबल के प्रभाव से त्रिशंकु स-शरीर स्वर्गलोक जा पहुंचा। स्वर्ग लोक पहुंचते ही त्रिशंकु ने विश्वामित्र का आभार प्रकट किया। वह मन ही मन यह सोच कर प्रफुल्लित था की जो कार्य स्वयं ब्रह्मर्षि वशिष्ठ और माता गायत्री नहीं कर सकी उस कार्य को महर्षि विश्वामित्र ने बड़ी ही सहजता से कर डाला सचमुच विश्वामित्र जी आप महान हैं। 

'आज सत्यव्रत से श्रापित त्रिशंकु बने राजा की यह इच्छा पूर्ण हो गई जो उसने कई वर्षों से देखी थी। स्वर्गलोक के सौन्दर्य को देखने के लिए लालायित त्रिशंकु स्वर्ग भ्रमण करने लगा। भ्रमण करते-करते वह इन्द्र के दरबार तक जा पहुंचा। उसके वहां पहुंचते ही देवताओं को आश्चर्य हुआ भला एक मानव स-शरीर स्वर्ग में कैसे पहुँच गया?' 

देवताओं को अचंभित देख त्रिशंकु ने अट्टहास किया और वह बोला - यह सब प्रताप तो महर्षि विश्वामित्र का है जिनके कारण मैं आज यहाँ हूँ। त्रिशंकु को स्वर्ग में देख कर देवराज को क्रोध आया और उन्होंने उसे स्वर्ग से बलपूर्वक नीचे धरती की और फ़ेंक दिया। अपने आप को इस प्रकार नीचे जाता देख भय मुद्रा में त्रिशंकु ने जोर-जोर से विश्वामित्र को सहायता के लिए पुकारा। उसकी पुकार सुनकर विश्वामित्र ने उसे नीचे गिरने से रोका और धरती की तरफ लटके उसके उलटे शरीर को सीधा किया। विश्वामित्र ने कहा मैं उनमे से नहीं जो वचन देकर फिर जाए। इन्द्र ने तुम्हे स्वर्ग में स्थान नहीं दिया तो क्या हुआ? मैं अपने तप की शक्ति से तुम्हे नया स्वर्ग बनाकर दूंगा। उस स्वर्ग में तुम बिना किसी रोकटोक के रहना। 

'इसके बाद विश्वामित्र ने एक नए स्वर्ग का निर्माण किया और त्रिशंकु को वहा भेजकर कहा - आज से यह स्वर्ग त्रिशंकु का स्वर्ग कहलाएगा। अपने लिए नए स्वर्ग का निर्माण देखकर त्रिशंकु बहुत प्रसन्न था। जब इन्द्र को नए स्वर्ग के निर्माण की सूचना मिली तो वह घोर चिंतित हो गए। उन्होंने अपनी पीड़ा देवगुरु बृहस्पति को बताई और इसका समाधान पूछा। देवताओं से बहुत देर तक मंत्रणा करने के बाद देवगुरु बृहस्पति देवर्षि नारद को अपने साथ लेकर विश्वामित्र को समझाने पहुंचे। अपने आश्रम में देवगुरु और देवर्षि को देखकर विश्वामित्र ने उनका आदर सत्कार किया। 

विश्वामित्र ने कहा - यद्यपि मैं जनता हूँ की आप यहाँ किस कारण पधारे हैं फिर भी शिष्टाचार हेतु आप स्वयं ही आने के कारण को स्पष्ट करें। देवगुरु ने विनम्रता से कहा - हे राजर्षि विश्वामित्र! तुमने अपने अपार बल और तपस्या से माता गायत्री को प्रकट किया। संसार को तुमने महान गायत्री मंत्र भी दिया जिसके फलस्वरूप तुम विश्वरथ से विश्वामित्र बने। इसलिए हे विश्व का कल्याण करने वाले विश्व के मित्र! तुमने नए स्वर्ग को निर्मित करके अंतरिक्ष का संतुलन बिगाड़ कर स्वयं परमपिता ब्रह्माजी को चुनौती दी है। अतः अपना ये हठ छोड़ दो। 

देवगुरु की बाते सुनकर विश्वामित्र ने उनसे प्रश्न किया - यदि मैं ऐसा करता हूँ तो देवताओं ने मेरी आहुति अस्वीकार करके मेरा जो अपमान किया उसका क्या? क्या आप उसका समाधान लेकर आये हैं? देवगुरु को निरुत्तर देखकर देवर्षि नारद हस्तक्षेप करते हैं - हे विश्वामित्र! नए स्वर्ग का निर्माण करके तुमने जो सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी का अपमान किया है उसके विषय में भी तो सोचो। हमे कोई ऐसा मार्ग निकालना होगा जिससे तुम्हारा वचन भी झूठा न हो और सृष्टि का नियम भी बना रहे। 

विश्वामित्र ने कहा - यदि मैं अपने द्वारा बनाये स्वर्गलोक को तोड़ भी दूँ तो सारे ब्रह्माण्ड में प्रकम्पन आ जाएगा। पूरी सृष्टि में प्रलय जैसी स्थिति व्याप्त हो जाएगी। इस पर देवगुरु बोले - हे महर्षि! आप मेरी प्रार्थना पर अपने स्वर्ग का निर्माण यही रोक दें। त्रिशंकु अपने बनाये स्वर्ग में रहना चाहे तो रहे। विश्वामित्र देवगुरु बृहस्पति का यह अनुरोध स्वीकार कर लेते हैं। तत्पश्चात देवगुरु देवर्षि नारद के साथ पुनः स्वर्गलोक लौट जाते हैं। 

इस मिलन को कुछ ही क्षण बिता था कि देवर्षि नारद अकेले ही पुनः विश्वामित्र से मिलने उनके आश्रम पहुँच जाते हैं। देवर्षि नारद विश्वामित्र को अपने वापस उनसे मिलने आने का कारण बतलाते हैं - मैं यहाँ तुम्हारे लिए आया हूँ विश्वामित्र। भले ही तुमने देवगुरु का परामर्श स्वीकार किया हो लेकिन तुमने आवेश में आकर यह नहीं सोचा जो वचन तुमने त्रिशंकु को दिया था उसका क्या होगा? क्या त्रिशंकु तुम्हारे बनाये स्वर्ग में अकेला ही पड़ा रहेगा? वहां अकेले वह क्या भोगेगा? इस तरह के स्वर्ग का क्या लाभ? 

'देवर्षि कि बातें सुनकर विश्वामित्र उनसे इसका मार्ग निकालने कि याचना करते हैं। देवर्षि ने सुझाव दिया कि वास्तव में त्रिशंकु को स्वर्ग भेजना तुम्हारा लक्ष्य नहीं था। अपितु तुम्हारी प्रतिद्वंदिता तो ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से है जिसके लिए तुम ब्रह्मर्षि बनना चाहते हो। अतः मेरी सलाह मानो और घोर तपस्या करके ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त करो। इस पद को प्राप्त करने से तुम सृष्टि के सहयोगी बन जाओगे फिर तुम यदि अपने स्वर्ग का निर्माण पुनः प्रारम्भ करोगे तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी।' 

'देवर्षि का आभार जताते हुए विश्वामित्र जी ने कहा आपने मुझे मेरे मार्ग कि सही दिशा बतलाई है अब मैं घोर तपस्या से ब्रह्मर्षि पद अवश्य प्राप्त करूँगा। इस तरह विश्वामित्र अपनी तपस्या प्रारम्भ करते हैं। उधर देवराज इन्द्र विश्वामित्र कि इस तपस्या से अपने स्वर्गलोक पर आने वाले खतरे को भांप कर चिंतित होते हैं। अपने सभी देवताओं कि सलाह पर वे एक ऐसे महाशक्तिशाली प्राणी का सृजन करते हैं जिसमे सभी देवताओं कि शक्ति बराबर सम्मिलित थी। वह महाशक्तिशाली प्राणी देवराज कि आज्ञा पाकर विश्वामित्र कि तपस्या भंग करने अथवा आवश्यकता पड़ने पर उसे मारने के लिए जा पहुंचा। किन्तु उसके सभी प्रयास विफल हो गए। अंत में उसने विश्वामित्र पर अमोघ शक्ति से प्रहार किया लेकिन वही शक्ति उल्टा उसे ही मारने उसकी तरफ बढ़ी। यह देखकर वह अपने प्राण बचाने के लिए स्वर्गलोक कि तरफ भागा। किन्तु वहां पहुंचते ही उस शक्ति ने उस महाशक्तिशाली प्राणी को नष्ट कर दिया।' 

'अब देवराज असहाय हो चुके थे उन्हें कोई ओर मार्ग नहीं सूझ रहा था। आख़िरकार उन्हें स्वर्गलोक कि अप्सरा रम्भा कि याद आई। इन्द्र ने रम्भा को अपनी पीड़ा सुनाई तथा किसी भी प्रकार से उससे विश्वामित्र कि तपस्या भंग करने का आग्रह किया। रम्भा देवराज कि आज्ञा पाकर विश्वामित्र के तप को खंडित करने का प्रयास करने लगी। उसने अनेक प्रकार से अपनी कामुकता और यौवन का प्रयोग किया।' 

'बहुत समय पश्चात विश्वामित्र अपने ध्यान से जागे तथा अपने सामने अप्सरा को देखकर वह उसे जान गए कि यह स्वर्गलोक कि अपसरा रम्भा ही है जो उनका तप भंग करने यहाँ आई है। विश्वामित्र ने उसे चेतावनी देते हुए वहां से चले जाने को कहा। जब रम्भा नहीं मानी तो उन्होंने उसे पत्थर कि शिला बनने का शाप दे दिया। रम्भा ने क्षमा याचना कि इस पर महर्षि को उस पर दया आ गई। उन्होंने कहा मैं तुम्हे दिया शाप लौटा नहीं सकता किन्तु इतना अवश्य कहता हूँ कि एक महान तपस्वी ऋषि के हाथों तुम श्राप मुक्त हो जाओगी।' 

सूतजी बोले - ऋषियों! रम्भा के शापित शिला बन जाने से इन्द्र की चिंता बढ़ गई। उनके द्वारा किये गए समस्त प्रयास एक-एक कर विफल हो रहे थे। अब उनके लिए विश्वामित्र की तपस्या भंग करना मान-सम्मान का प्रश्न बन गया था। इन्द्र किसी भी मूल्य पर विश्वामित्र से हार मानने को तैयार न थे। जब कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था तो इन्द्र ने स्वयं जाकर विश्वामित्र के तप को असफल बनाने का निर्णय कर लिया। 

विश्वामित्र अपने तप में लीन थे। तभी एक आकाशवाणी होती है - हे महान तपस्वी विश्वामित्र! तुम्हारे घोर तप से प्रसन्न होकर परमपिता ने तुम्हारे लिए सिधान (अमृत के समान प्रसाद से भरा प्याला) भेजा है अतः इसे ग्रहण करो। विश्वामित्र आकाशवाणी का अनुसरण करते हैं तथा आकाश की ओर सिधान को ग्रहण करने के लिए अपना हाथ फैलाते है। प्रसाद से भरा प्याला उनके हाथ में आता है। विश्वामित्र उसे बड़े ही आदर भाव से अपने माथे पर लगाते हैं तथा हाथ धोकर प्रसाद ग्रहण करने के लिए आसन पर विराजमान होते हैं। 

'तभी भिक्षुक के वेश में इन्द्र उनसे खाने की भिक्षा मांगते हैं। इन्द्र का छल भला विश्वामित्र से कैसे छिपता वह अपने योग शक्ति से इन्द्र को पहचान जाते हैं। किन्तु यह भेद वह प्रकट नहीं करते और वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा इन्द्र चाहते थे। भिक्षुक बने देवराज को विश्वामित्र सहर्ष अपना सिधान उसे सौंप देते हैं। इन्द्र ने बिना विलम्ब किये उस प्रसाद को ग्रहण कर लिया।' 

विश्वामित्र बोले - प्रसाद का स्वाद कैसा लगा देवेंद्र। यह सुनकर देवराज चौंक जाते हैं और उन्हें भय सताने लगता है की कहीं महर्षि शाप न दे डाले। महर्षि ने मुसकुराकर कहा - घबराओ नहीं देवेंद्र मैं तुम्हे कोई शाप नहीं दूंगा यदि मुझे ऐसा करना होता तो मैं परमपिता का आशीर्वाद जो उन्होंने मेरे लिए भेजा था तुम्हे क्यों प्रदान करता? 

देवराज ने पूछा - फिर तुमने मुझे अपना तपोफल मुझे क्यों दिया? विश्वामित्र उनके प्रश्न का उत्तर देते हैं - मैं जानता हूँ देवेंद्र तुम मेरी तपस्या भंग करने के लिए किसी भी नीचता पर उतर सकते हो, तुमने मुझे मारने के लिए अपना योद्धा भेजा जब उसमे सफलता न मिली तो रम्भा को भेज दिया और उस बेचारी को अकारण ही शिला बनना पड़ा सिर्फ तुम्हारी वजह से, और अब तुम स्वयं यहाँ आ गए। 

महर्षि झल्लाकर बोले - आखिर तुम देवताओं ने हम मानवों को समझ क्या रखा है? जिस स्वर्ग के सिंहासन का अहंकार तुम करते हो वह तुम्हे तुम्हारे जन्म के कारण मिला है और हम मानव अपने कर्म के बल पर उसे प्राप्त करते हैं। याद रखो भीरु देवेंद्र जन्म के अधिकार से बड़ा कर्म का अधिकार होता है। मैं चाहूँ तो तुम्हे इसका दंड दे सकता हूँ किन्तु तुम उसी क्षण मेरे सामने हार गए जब तुम्हारा हाथ मेरी तरफ भिक्षा के लिए फैला था। जाओ यहाँ से मुझे मेरे कर्म पथ पर जाने से ब्रह्माण्ड की कोई शक्ति नहीं रोक सकती। मैं अपने उद्देश्य को पूर्ण करके रहूँगा। मैं ब्रह्मर्षि बनकर रहूँगा। 

'इन्द्र लज्जित और अपमानित अवस्था में वहां से चले जाते हैं। अपमान के घाव ने इन्द्र को विश्वामित्र का प्रतिद्वंदी बना दिया। अब वह कहाँ रुकने वाले थे। इस बार उन्होंने एक नया दाव चला। उन्होंने स्वर्गलोक की सबसे प्रतिभाशाली अत्यंत रूपवन्ती अप्सरा मेनका को आदेश दिया की वह जो भी जतन बने विश्वामित्र को अपने झूठे प्रेम में फंसाकर उसे कर्म मार्ग पर जाने से रोके। 

इन्द्र ने मेनका से कहा - यदि तुम्हे इस कार्य के लिए कामदेव और देवी रति की सहायता लेनी पड़े तो ले सकती हो। किन्तु ध्यान रहे रम्भा तुमसे पहले गई और शापित हो गयी। न जाने उसका शाप कब छूटेगा और वह पुनः स्वर्गलोक आ पाएगी भी अथवा नहीं। अतः तुम मेरी अंतिम आशा हो मुझे निराश नहीं करना।'

इति श्रीमद् राम कथा वंश चरित्र अध्याय-२ का भाग-२६(26) समाप्त !

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