अगस्त्यजी कहते हैं - रघुनन्दन ! तदनन्तर एक दिन विश्वावसु के समान तेजस्वी ग्रामणी नामक गन्धर्व ने राक्षस सुकेश को धर्मात्मा तथा वरप्राप्त वैभव से सम्पन्न देख अपनी देववती नामक कन्या का उसके साथ ब्याह कर दिया। वह कन्या दूसरी लक्ष्मी के समान दिव्य रूप और यौवन से सुशोभित एवं तीनों लोकों में विख्यात थी। धर्मात्मा ग्रामणी ने राक्षसों की मूर्तिमती राजलक्ष्मी के समान देववती का हाथ सुकेश के हाथ में दे दिया।
वरदान में मिले हुए ऐश्वर्य से सम्पन्न प्रियतम पति को पाकर देववती बहुत संतुष्ट हुई, मानो किसी निर्धन को धनकी राशि मिल गयी हो। जैसे अञ्जन नामक दिग्गज से उत्पन्न कोई महान् गज किसी हथिनी के साथ शोभा पा रहा हो, उसी तरह वह राक्षस गन्धर्व-कन्या देववती के साथ रहकर अधिक शोभा पाने लगा।
'रघुनन्दन! तदनन्तर समय आने पर सुकेश ने देववती के गर्भ से तीन पुत्र उत्पन्न किये, जो तीन अग्नियों के समान तेजस्वी थे। उनके नाम थे - माल्यवान्, सुमाली और माली । माली बलवानों में श्रेष्ठ था। वे तीनों त्रिनेत्रधारी महादेवजी के समान शक्तिशाली थे। उन तीनों राक्षस पुत्रों को देखकर राक्षस राज सुकेश बड़ा प्रसन्न हुआ। वे तीनों लोकों के समान सुस्थिर, तीन अग्नियों के समान तेजस्वी, तीन मन्त्रों (शक्तियों - अथवा वेदों) के समान उग्र तथा तीन रोगों के समान अत्यन्त भयंकर थे।'
'सुकेश के वे तीनों पुत्र त्रिविध अग्नियों के समान तेजस्वी थे। वे वहाँ उसी तरह बढ़ने लगे, जैसे उपेक्षा वश दवा न करने से रोग बढ़ते हैं। उन्हें जब यह मालूम हुआ कि हमारे पिता को तपोबल के द्वारा वरदान एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति हुई है, तब वे तीनों भाई तपस्या करने का निश्चय करके मेरु पर्वत पर चले गये।'
'नृपश्रेष्ठ! वे राक्षस वहाँ भयंकर नियमों को ग्रहण करके घोर तपस्या करने लगे। उनकी वह तपस्या समस्त प्राणियों को भय देने वाली थी। सत्य, सरलता एवं शम-दम आदि से युक्त तप के द्वारा, जो भूतल पर दुर्लभ है, वे देवताओं, असुरों और मनुष्यों सहित तीनों लोकों को संतप्त करने लगे। तब चार मुख वाले भगवान् ब्रह्मा एक श्रेष्ठ विमान पर बैठकर वहाँ गये और सुकेश के पुत्रों को सम्बोधित करके बोले - मैं तुम्हें वर देने के लिये आया हूँ।'
इन्द्र आदि देवताओं से घिरे हुए वरदायक ब्रह्माजी को आया जान वे सब -के-सब वृक्षों के समान काँपते हुए हाथ जोड़कर बोले - देव! यदि आप हमारी तपस्या से आराधित एवं संतुष्ट होकर हमें वर देना चाहते हैं तो ऐसी कृपा कीजिये, जिससे हमें कोई परास्त न कर सके। हम शत्रुओं का वध करने में समर्थ, चिरंजीवी तथा प्रभावशाली हों। साथ ही हम लोगों में परस्पर प्रेम बना रहे। यह सुनकर ब्रह्माजी ने कहा - तुम ऐसे ही होओगे। सुकेश के पुत्रों से ऐसा कहकर ब्राह्मणवत्सल ब्रह्माजी ब्रह्मलोक को चले गये।
'श्रीराम! वर पाकर वे सब निशाचर उस वरदान से अत्यन्त निर्भय हो देवताओं तथा असुरों को भी बहुत कष्ट देने लगे। उनके द्वारा सताये जाते हुए देवता, ऋषि- समुदाय और चारण नरक में पड़े हुए मनुष्यों के समान किसी को अपना रक्षक या सहायक नहीं पाते थे।'
रघुवंशशिरोमणे! एक दिन शिल्प - कर्मके ज्ञाताओं में श्रेष्ठ अविनाशी विश्वकर्मा के पास जाकर वे राक्षस हर्ष और उत्साह से भरकर बोले -
महामते ! जो ओज, बल और तेज से सम्पन्न होने के कारण महान् हैं, उन देवताओं के लिये आप ही अपनी शक्ति मनोवाञ्छित भवन का निर्माण करते हैं, अतः हमारे लिये भी आप हिमालय, मेरु अथवा मन्दराचल पर चलकर भगवान् शंकर के दिव्य भवन की भाँति एक विशाल निवास स्थानका निर्माण कीजिये। यह सुनकर महाबाहु विश्वकर्मा ने उन राक्षसों को एक ऐसे निवासस्थान का पता बताया, जो इन्द्र की अमरावती को भी लज्जित करनेवाला था।
वे बोले - राक्षसपतियो ! दक्षिण समुद्र के तटपर एक त्रिकूट नामक पर्वत है और दूसरा सुवेल नाम से विख्यात शैल है। उस त्रिकूट पर्वत के मझले शिखर पर जो हरा-भरा होने के कारण मेघ के समान नीला दिखायी देता है तथा जिसके चारों ओर के आश्रय टाँकी से काट दिये गये हैं, अतएव जहाँ पक्षियों के लिये भी पहुँचना कठिन है, मैंने और मय ने भगवान शिव की आज्ञा से लङ्का नामक नगरी का निर्माण किया है। वह तीस योजन चौड़ी और सौ योजन लम्बी है। उसके चारों ओर सोने की चारदीवारी है और उसमें सोने के ही फाटक लगे हैं। एक बार विश्रवा मुनि ने गृह प्रवेश के समय में दक्षिणा के रूप में वह लंकापुरी मांग ली थी। जिससे रुष्ट होकर माता पार्वती ने मुनि को उस नगरी में दुःखपूर्वक रहने का शाप दे दिया। उस शाप के भय से मुनि ने उस नगरी को त्याग दिया। अब उस नगरी में किसी का निवास नहीं है।'
‘दुर्धर्ष राक्षस शिरोमणियो! जैसे इन्द्र आदि देवता अमरावतीपुरी का आश्रय लेकर रहते हैं, उसी प्रकार तुम लोग भी उस लङ्कापुरी में जाकर निवास करो। शत्रुसूदन वीरो! लङ्का के दुर्ग का आश्रय लेकर बहुत से राक्षसों के साथ जब तुम निवास करोगे, उस समय शत्रुओं के लिये तुम पर विजय पाना अत्यन्त कठिन होगा।'
'विश्वकर्मा की यह बात सुनकर वे श्रेष्ठ राक्षस सहस्रों अनुचरों के साथ उस पुरी में जाकर बस गये। उसकी खाई और चारदीवारी बड़ी मजबूत बनी थी। सोने के सैकड़ों महल उस नगरी की शोभा बढ़ा रहे थे। उस लङ्कापुरी में पहुँचकर वे निशाचर बड़े हर्ष के साथ वहाँ रहने लगे।'
'रघुकुलनन्दन श्रीराम ! इन्हीं दिनों नर्मदा नाम की एक गन्धर्वी थी। उसके तीन कन्याएँ हुईं, जो ह्री, श्री, और कीर्ति-के समान शोभासम्पन्न थीं। इनकी माता यद्यपि राक्षसी नहीं थी तो भी उसने अपनी रुचि के अनुसार सुकेश के उन तीनों राक्षस जातीय पुत्रों के साथ अपनी कन्याओं का ज्येष्ठ आदि अवस्था के अनुसार विवाह कर दिया। वे कन्याएँ बहुत प्रसन्न थीं। उनके मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर थे। माता नर्मदा ने उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में उन तीनों महाभाग्यवती गन्धर्व कन्याओं को उन तीनों राक्षसराजों के हाथ में दे दिया।'
'श्रीराम! जैसे देवता अप्सराओं के साथ क्रीड़ा करते हैं, उसी प्रकार सुकेश के पुत्र विवाह के पश्चात् अपनी उन पत्नियों के साथ रहकर लौकिक सुख का उपभोग करने लगे। उनमें माल्यवान की स्त्री का नाम सुन्दरी था। वह अपने नाम के अनुरूप ही परम सुन्दरी थी। माल्यवान ने उसके गर्भ से जिन संतानों को जन्म दिया, उन्हें बता रहा हूँ, सुनिये। वज्रमुष्टि, विरूपाक्ष, राक्षस दुर्मुख, सुप्तन, यज्ञकोप, मत्त और उन्मत्त – ये सात पुत्र थे। श्रीराम ! इनके अतिरिक्त सुन्दरी के गर्भ से अनला नाम वाली एक सुन्दरी कन्या भी उत्पन्न हुई थी।'
'सुमाली की पत्नी भी बड़ी सुन्दरी थी। उसका मुख पूर्णचन्द्रमा के समान मनोहर और नाम केतुमती था । सुमाली को वह प्राणों से भी अधिक प्रिय थी। महाराज! निशाचर सुमाली ने केतुमती के गर्भ से जो संतानें उत्पन्न की थीं, उनका भी क्रमशः परिचय दिया जा रहा है, सुनिये। प्रहस्त, अकम्पन, विकट, कालिकामुख, धूम्राक्ष, दण्ड, महाबली सुपार्श्व, संह्रादि, प्रघस तथा राक्षस भासकर्ण - ये सुमाली के पुत्र थे और राका, पुष्पोत्कटा, कैकसी और कुम्भीनसी – ये चार पवित्र मुस्कानवाली उसकी कन्याएँ थीं । ये सब सुमाली की संतानें बतायी गयी हैं।'
'माली की पत्नी गन्धर्व कन्या वसुदा थी, जो अपने रूप-सौन्दर्य से सुशोभित होती थी। उसके नेत्र प्रफुल्ल कमल के समान विशाल एवं सुन्दर थे। वह श्रेष्ठ यक्ष-पत्नियोंके समान सुन्दरी थी। प्रभो! रघुनन्दन! सुमालीके छोटे भाई मालीने वसुदा के गर्भ से जो संतति उत्पन्न की थी, उसका मैं वर्णन कर रहा हूँ; आप सुनिये। अनल, अनिल, हर और सम्पाति – ये चार निशाचर माली के ही पुत्र थे, जो इस समय विभीषण के मन्त्री हैं।'
'माल्यवान् आदि तीनों श्रेष्ठ राक्षस अपने सैकड़ों पुत्रों तथा अन्यान्य निशाचरों के साथ रहकर अपने बाहुबल के अभिमान से युक्त हो इन्द्र आदि देवताओं, ऋषियों, नागों तथा यक्षों को पीड़ा देने लगे। वे वायुकी भाँति सारे संसार में विचरने वाले थे। युद्ध में उन्हें जीतना बहुत ही कठिन था। वे मृत्यु के तुल्य तेजस्वी थे। वरदान मिल जाने से भी उनका घमंड बहुत बढ़ गया था; अत: वे यज्ञादि क्रियाओं का सदा अत्यन्त विनाश किया करते थे।'
इति श्रीमद् राम कथा रावण चरित्र अध्याय-३ का भाग-२६(26) समाप्त !
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